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मोदी के अमेरिकी यात्रा पर दिखा ‘एम’ फैक्टर का असर!

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Modi in US

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा, क्वॉड बैठक और यूएनजीसी में संबोधन को भारतीय मीडिया इस तरह दिखा रहा है जैसे मोदी ने नया इतिहास रच दिया है।

इसके पीछे मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अपनी मजबूरियां और कमजोरियां हैं। स्टूडियो पत्रकारिता का बढ़ता चलन और ग्राउंड रिपोर्टिंग की कमी का यही अंजाम होना था।

भारतीय मीडिया से अलग मोदी की इस यात्रा से जुड़ा एक ऐसा तथ्य है जिसपर बहुत ही कम बात हुई है। यह बात भारत और अमेरिका की विदेश नीति और आंतरिक राजनीति से भी गहराई से जुड़ी हुई है।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी देश की विदेश नीति पर वहां की तात्कालिक सरकार, उसकी विचारधारा और आंतरिक राजनीति का गहरा प्रभाव होता है। आइए जानते हैं कैसे…

भारतीय राजनीति पर समाजवाद का प्रभाव
भारत की आजादी के समय दुनिया शीत युद्ध की राजनीति का शिकार थी। राजनीति में थोड़ी सी भी रुचि रखने वाला व्यक्ति जानता है कि नेहरू समाजवाद के प्रशंसक थे। भले ही वह गुटनिरपेक्ष आंदोलन को समर्थन दे रहे थे।

उस वक्त की भारतीय विदेश नीति पर नेहरू के समाजवाद का सीधा असर था। भारत का स्पष्ट झुकाव तत्कालीन सोवियत संघ की ओर था। भिलाई स्टील प्लांट से लेकर आईआईटी मुंबई की स्थापना में रूस के योगदान का इतिहास गवाह है।

इंदिरा युग में और भी मजबूत हुआ समाजवादी प्रभाव
इसमें कोई दो राय नहीं कि रूस के साथ इस गठबंधन से भारत को फायदा हुआ। नेहरू के बाद इंदिरा गांधी ने भी समाजवाद के प्रति रुझान जारी रखा। 1971 में इंदिरा सरकार ने सोवियत सरकार के साथ सामरिक समझौता (Indo–Soviet Treaty of Peace, Friendship and Cooperation) किया। यह समझौते अमेरिका और पाकिस्तान के बीच बढ़ रही नजदीकी का कूटनीतिक जवाब था।

समाजवाद के प्रति इस लगाव के चलते कांग्रेस को आंतरिक या राष्ट्रीय राजनीति में भी फायदा हो रहा था। सर्वहारा (have-nots) यानी गरीबों की चिंता करने वाली इस विचारधारा का विरोध किसी भी पार्टी के लिए संभव नहीं था। इंदिरा सरकार में गरीबी हटाओ का नारा बुलंद हो रहा था।

आंतरिक राज​नीति और अर्थव्यवस्था पर दिखा गहरा असर
समाजवाद के नाम पर लाइसेंस, कोटा, परमिट राज और राष्ट्रीयकरण की आंधी चल रही थी। मिट्टी तेल से लेकर कार और स्कूटर खरीदने तक के लिए सरकार से परमिट लेना पड़ता था।

समय के साथ समाजवाद ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया। नब्बे का दशक आते-आते सोवियत संघ का विघटन हो गया। यही वह दौर है जब भारत में कांग्रेस पार्टी के कमजोर होने की औपचारिक शुरुआत हुई। 1989 के बाद कांग्रेस को कभी भी लोकसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला।

इसी उसी दौरान भारत घोर आर्थिक संकट का शिकार हुआ। सोवियत संघ के विघटन और भारत में चुनाव के बाद 1991 में पहली बार कांग्रेस पार्टी की ऐसी सरकार बनी जिसमें नेहरू परिवार का कोई सदस्य शामिल नहीं था।

भारत ने पहली बार किया आर्थिक और विदेश नीति में किया बदलाव
प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव ने देश की कमजोर हो चुकी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए उदारवादी आर्थिक नीतियों को अपनाने का फैसला किया और मनमोहन सिंह जैसे गैर राजनीतिक व्यक्ति को देश का वित्त मंत्री बनाया।

सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनियाभर में यह आम धारणा बनी कि आर्थिक विकास का रास्ता उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (LPG: Liberalisation, Privatisation and Globalisation) से होकर गुजरता है। भारत ने अपनी नई आर्थिक नीति (India’s New Economic Policy: July 24, 1991) में इसे औपचारिक तौर पर स्वीकार किया।

आंतरिक राजनीति में आए इस बदलाव का भारत की विदेश नीति पर भी असर हुआ। तब से लेकर आज तक भारत यह साबित करने में लगा हुआ है कि वह अमेरिका का रणनीतिक सहयोगी है।

बदलाव के बाद 15 साल तक करना पड़ा संघर्ष
1989 से लेकर 2014 तक भारत में किसी भी राजनीतिक दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। गठबंधन की सरकारों का असर भारत की विदेश नीति पर भी दिखा।

लगभग एक दशक तक अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत का प्रभाव न के बराबर था। इस दौरान भारत की आंतरिक राजनीति में एक बड़ा बदलाव आया। 2014 और 2019 के दो लोकसभा चुनावों में एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला।

नई सरकार के असर को दुनियाभर में स्वीकार किया गया। अमेरिकी संस्थाओं तक ने माना कि फिलहाल, नरेंद्र मोदी दुनिया के सबसे लोकप्रिय नेता हैं।

भारत और अमेरिका की राजनीति में कॉमन है ये बात
इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय जनता पार्टी की राजनीति हिंदुत्व और राष्ट्रवाद पर आधारित है। कांग्रेस इस विचारधारा का खुलकर विरोध भले न करे लेकिन, वह इससे सहमति नहीं रखती।

बीजेपी-कांग्रेस की तरह अमेरिका में भी सत्ता के लिए रिपब्लिकन और डेमाक्रेट के बीच संघर्ष है। फिलहाल, अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार है जिसे वहां के मुसलमानों का समर्थन हासिल है। जबकि, डोनाल्ड ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी को इस समुदाय का वोट नहीं मिलता।

सत्ता परिवर्तन का विदेश नीति पर दिखा असर
देश में जो राजनीतिक दल सत्ता में होता है उसकी विचारधारा का असर राष्ट्रीय राजनीति और विदेश नीति पर पड़ना स्वाभाविक है। यही कारण है कि अमेरिकी उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस ने मौका मिलते ही नरेंद्र मोदी को सलाह दे डाली कि हमें अपने देश में राजनीतिक संस्थाओं और सिद्धांतों को बचाने का प्रयास करना चाहिए।

साफ है कि उनकी सलाह के पीछे अमेरिका के उस खास तबके का दबाव है जो मोदी व बीजेपी की हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की नीति को पसंद नहीं करता। लेकिन, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि पिछले सात सालों में भारतीय लोकतंत्र की छवि पर सवाल उठे हैं। ठीक वैसे ही जैसे अफगानिस्तान से सेना हटाने के बाद अमेरिका की इमेज को नुकसान हुआ है।

क्यों भारत से है पश्चिमी देशों को उम्मीद
असल में अमेरिका सहित सभी पश्चिमी देशों को भारत से काफी उम्मीदें हैं क्योंकि, चीन के खिलाफ लड़ाई में वह एशिया का सबसे मजबूत सहयोगी साबित होने की क्षमता रखता है।

भारत पर भरोसा करने की सबसे बड़ी वजह लोकतंत्र है। इतनी विविधताओं के बावजूद भारत का एक लोकतांत्रिक देश के तौर पर मजबूती के साथ आगे बढ़ना, दुनिया को चौंकाता है।

शायद यही वजह है कि कमला हैरिस की सलाह के बावजूद मोदी जैसे मजबूत नेता ने इस पर किसी तरह की प्रतिक्रिया देना उचित नहीं समझा।

– संजीव श्रीवास्तव

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