Bihar Assembly Election 2025 : बिहार की राजनीति में मुस्लिम वोट बैंक हमेशा से निर्णायक भूमिका में रहा है। अब जब राज्य में विधानसभा चुनावों की आहट सुनाई देने लगी है, एक बार फिर सियासी दलों की नजरें मुस्लिम मतदाताओं पर टिक गई हैं, जो राज्य की 50 से अधिक सीटों पर परिणामों की दिशा बदलने की ताकत रखते हैं। महागठबंधन के अगुवा तेजस्वी यादव और एनडीए की ओर से नीतीश कुमार दोनों मुस्लिम समाज को अपने पाले में लाने के लिए रणनीतिक दांव-पेच आजमा रहे हैं। इसके इतर AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी सीमांचल क्षेत्र में अपनी पकड़ मज़बूत कर महागठबंधन की गणित को उलझा सकते हैं। सवाल यही है: क्या इस बार मुस्लिम वोट एकजुट रहेगा या विभाजन की राजनीति सत्ता का संतुलन बदल देगी?
राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में मुस्लिम वोटरों की ताकत
बिहार की कुल जनसंख्या में मुस्लिम समुदाय की हिस्सेदारी लगभग 17.5% है, जो राज्य की तकरीबन 55 विधानसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका में हैं। सीमांचल क्षेत्र के ज़िलों — किशनगंज (68%), कटिहार (43%), अररिया (42%), पूर्णिया (38%) और दरभंगा (25%) — में मुस्लिम मतदाता निर्णायक हैं। पिछले चार चुनावों की बात करें तो मुस्लिम समुदाय का रुझान महागठबंधन की ओर झुका रहा है। 2015 के विधानसभा चुनावों में 84%, 2019 लोकसभा में 89%, और 2024 में लगभग 87% मुस्लिम वोट महागठबंधन को मिले। लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव में AIMIM की 5 सीटों पर जीत ने यह स्पष्ट कर दिया कि मुस्लिम वोट अब ‘एकतरफा’ नहीं रहा।
2020 के चुनावों में एनडीए और महागठबंधन दोनों को करीब 37.9% वोट मिले थे, पर सिर्फ 11,000 वोटों के मामूली अंतर ने सरकार की चाबी एनडीए के हाथ में थमा दी। ओवैसी की पार्टी को उसी चुनाव में 5 लाख से अधिक वोट मिले — और यहीं से तेजस्वी यादव को मुस्लिम वोट बैंक की ‘दरार’ का एहसास हुआ। तेजस्वी इस बार कोई जोखिम नहीं लेना चाहते। सुप्रीम कोर्ट में लंबित वक्फ बोर्ड कानून को लेकर उन्होंने खुली चुनौती दे दी — “अगर हमारी सरकार बनी, तो वक्फ कानून को कूड़ेदान में डाल देंगे।” इमारत-ए-शरिया की रैली में उनके इस बयान को मुस्लिम मतदाताओं के प्रति ‘सीधा संवाद’ माना जा रहा है।
नीतीश का कार्ड कितना कारगर?
भाजपा-जदयू गठबंधन मुस्लिम समाज के उस तबके को साधने में जुटा है जो अक्सर मुख्यधारा से कटे रहे — पसमांदा मुस्लिम। आंकड़े बताते हैं कि राज्य के मुस्लिम समुदाय में 10% पसमांदा, 3% पिछड़े और 4% अशराफ शामिल हैं। नीतीश कुमार की पार्टी वक्फ बोर्ड के नए कानून को पसमांदा मुस्लिमों को प्रतिनिधित्व देने वाला कदम बता रही है। लेकिन इस नीति को लेकर जदयू में ही विरोध के सुर हैं। पार्टी छोड़ने वाले कई मुस्लिम नेताओं ने आरोप लगाया कि यह कानून दिखावटी है और इसका कोई जमीनी असर नहीं होगा। 2020 में जदयू के 11 मुस्लिम उम्मीदवारों में कोई भी नहीं जीत सका।
महागठबंधन में ओवैसी की एंट्री क्यों रोक रहे तेजस्वी?
असदुद्दीन ओवैसी सीमांचल में AIMIM के प्रभाव को विस्तार देना चाहते हैं, लेकिन तेजस्वी यादव उन्हें गठबंधन में शामिल करने के पक्ष में नहीं हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि ओवैसी अब सीधे राजद पर हमला कर रहे हैं — राजद में मुस्लिमों की भूमिका सिर्फ चादर बिछाने तक सीमित है। उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी नहीं दी जाती। ओवैसी का यह तेवर अगर सीमांचल के मुस्लिम मतदाताओं को दोबारा अपनी ओर खींच लेता है, तो महागठबंधन को नुकसान और एनडीए को लाभ हो सकता है। दूसरी ओर, भाजपा को उम्मीद है कि अगर महागठबंधन मुस्लिम तुष्टिकरण की राह पर ज्यादा चला, तो हिन्दू मतदाताओं में ‘काउंटर पोलराइजेशन’ बढ़ेगा, जिससे उन्हें स्पष्ट बढ़त मिलेगी।
क्या फिर से चलेगा M+Y फॉर्मूला?
बिहार में यादव और मुस्लिम वोटर्स मिलकर लगभग 32% वोटर बेस बनाते हैं। यही समीकरण 2015 और 2020 में महागठबंधन की ताकत रहा है। तेजस्वी यादव को भरोसा है कि यह सामाजिक समीकरण अब भी उनकी सबसे बड़ी ताकत है, लेकिन चिंता यह है कि वह गैर-MY मतदाताओं को अभी तक पूरी तरह जोड़ नहीं पाए हैं। उधर, ओवैसी का सीमांचल में प्रभाव और एनडीए की पसमांदा रणनीति इस समीकरण को ‘डाइल्यूट’ कर सकती है। यही कारण है कि 2025 का चुनाव M+Y समीकरण की अंतिम परीक्षा भी साबित हो सकता है। Bihar Assembly Election 2025
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