Friday, 29 March 2024

National Issue: सवाल यह है कि क्या सभी गरीब भाग्यशाली हैं?

National Issue: इसे भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस देश में कितने ही दलों की सरकार आई। सभी…

National Issue: सवाल यह है कि क्या सभी गरीब भाग्यशाली हैं?

National Issue: इसे भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस देश में कितने ही दलों की सरकार आई। सभी सरकारों ने गरीब और गरीबी के दंश को समझने का प्रयास तो किया, लेकिन इसे दूर करने के लिए आज तक कोई ठोस कदम नहीं उठाए। हाल की बात करें तो महंगाई लगातार बढ़ती जा रही है। और इस महंगाई का दंश सबसे ज्यादा गरीब ही झेल रहे हैं।

National Issue

रविवार को एक लेख के माध्यम से देश के पूर्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने गरीबी और गरीब, सामाजिक समानता और असमानता पर विस्तार से प्रकाश डाला है। पूर्व वित्त मंत्री ​पी चिदंबरम लेख की शुरुआत करते हुए लिखते हैं कि, मैं इस बारे में बहुत अच्छी तरह जानता हूं कि समकालीन भारत में सामाजिक न्याय क्या है और उसके आगे का रास्ता क्या है। मुझे इस बारे में भी जानकारी है। कि भारतीय समाज में कितनी असमानता है और समाज में समानता लाने के लिए कौन-कौन से सौ कदम उठाए जाने की जरूरत है। अगर हम सामाजिक न्याय और समानता की बात करें, तो कभी सामाजिक न्याय बाधित होता है, तो कभी समानता का उद्देश्य पूरा नहीं होता। कानून विधानसभाओं में बनते हैं, जहां राजनेता ही होते हैं। कानून को नियंत्रित और लागू करने का काम न्यायाधीशों का है, जिनका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं। शासकों को न्यायाधीशों से डरना ही चाहिए, लेकिन न्यायाधीशों को शासकों से नहीं डरना चाहिए। कानून और राजनीति अगर टकराएं, तो उसका नतीजा ही इस बारे में ठीक-ठीक बता सकता है कि कोई देश कानून से शासित होता है या नहीं।

मिलन बिंदु पर

विगत सात नवंबर को एक एनजीओ जनहित अभियान पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला इसका सटीक उदाहरण है कि कानून, राजनीति, सामाजिक न्याय और समानता के विचार जब एक साथ टकराते हैं, तो कैसी दुविधा उपस्थित होती है। शीर्ष अदालत का फैसला उन तमाम याचिकाओं की सुनवाई के बाद आया था, जिनमें संविधान के 103वें संशोधन या ईडब्ल्यूएस आरक्षण मामले को चुनौती दी गई थी। ईडब्ल्यूएस का मतलब है आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग। यहां मैं उन्हें गरीब ही कहूंगा। मैं इस कॉलम में अदालत के फैसले पर टिप्पणी करने के बजाय मुद्दों पर बात करूंगा और पाठकों से अपना पक्ष तय करने के लिए कहूंगा।

बुनियादी मुद्दे

शिक्षा संस्थानों और सरकारी रोजगार में आज कई तरह के आरक्षण हैं। ये आरक्षण ‘सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए यानी अनुसूचित जातियों (एससी), अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और दूसरे पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के लिए हैं। इन वर्गों के लोगों के सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े होने के ऐतिहासिक और अकाट्य कारण हैं। आरक्षण को ‘सकारात्मक कार्रवाई’ का औजार माना गया है और एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण को वैधता और मंजूरी मिली हुई है। ऐसी धारणा है कि आरक्षण की व्यवस्था से समाज के उस वर्ग में क्षोभ है, जो एससी, एसटी और ओबीसी नहीं हैं और जिसे आरक्षण का लाभ . नहीं मिलता। चूंकि इस वर्ग के गरीब भी शिक्षा और रोजगार के क्षेत्रों में ऐसी ही समस्याओं का सामना करते हैं, ऐसे में, यह विचार आया कि क्या आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था की जा सकती है? धारणागत रूप से यह विचार अच्छा था, पर इसमें कई तरह की बाधाएं थीं।

जैसे कि क्या ये गरीब सामाजिक और शैक्षिक रूप से भी पिछड़े हैं, जिसे कि संविधान ने आरक्षण का लाभ देने की एकमात्र कसौटी माना है? आर्थिक न्याय के लक्ष्य के लिए गरीबों को आरक्षण देना क्या संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन है? फिर चूंकि अदालत ने यह तय कर रखा है कि कुल आरक्षण 50 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए, ऐसे में, आर्थिक रूप से गरीबों के लिए 10 फीसदी का आरक्षण क्या 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन नहीं होगा?

‘बुनियादी ढांचे’ के सिद्धांत और ‘आरक्षण पर 50 फीसदी की सीलिंग को संविधान की व्याख्या के न्यायिक आलोक में देखा जा सकता है। एक बार जजों ने जब जजों द्वारा बनाए गए उस कानून के अवरोध से बाहर निकलने का फैसला किया, तब आगे का रास्ता बिल्कुल स्पष्ट था। सभी पांचों सम्माननीय न्यायाधीश इस पर सहमत थे कि आर्थिक न्याय वस्तुतः सामाजिक न्याय के समान ही है, और कमजोर आर्थिक आधार पर आरक्षण का लाभ देने से संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं होता। वे इस पर भी सहमत थे कि आर्थिक आधार पर आरक्षण की नई श्रेणी बनाने से अगर 50 फीसदी आरक्षण की सीलिंग का उल्लंघन होता है, तो वह असांविधानिक नहीं है। वे सभी आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के फैसले से सहमत हुए और इस पर भी कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण 10 फीसदी होगा। फैसले के इस अंश की आलोचना ज्यादा नहीं हुई। जिस मुद्दे ने निर्णय को विभाजित किया, वह यह था कि इस आरक्षण में वंचित करेगा। एससी, एसटी और ओबीसी के गरीबों को शामिल किया जाएगा या नहीं।

विभाजित अदालत

पोषण, लालन-पालन और शुरुआती शिक्षा में कमी का मुख्य कारण गरीबी है। ये कमियां वंचित वर्ग के युवाओं की शिक्षा और रोजगार तक पहुंच को सीमित कर देती हैं या रोक देती हैं। सवाल यह है कि गरीब कौन है। 103 वें संविधान संशोधन ने यह जिम्मेदारी राज्यों पर डाल दी है कि वे ‘पारिवारिक आय और आर्थिक कमियों के दूसरे संकेतकों के आधार पर गरीबों की शिनाख्त करें। जिन दो न्यायाधीशों ने आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का विरोध किया, उन्होंने अपनी टिप्पणी में सिन्हो कमीशन (जुलाई, 2010) का हवाला दिया है, जिसका निष्कर्ष था कि 31.7 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) हैं। इनमें से अनुसूचित जाति की आबादी 7.74 करोड़, अनुसूचित जनजाति की आबादी 4.25 करोड़ और अन्य पिछड़े वर्ग की आबादी 13.86 करोड़ थी। यह कुल मिलाकर 25.85 करोड़ थी, जो बीपीएल आबादी का 81.5 फीसदी थी। तब से बीपीएल आबादी की आबादी में कोई खास बदलाव नहीं आया है। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि अनुच्छेद 15(6) और 16(6), जो आरक्षण की नई व्यवस्था से एससी, एसटी और ओबीसी वर्गों के गरीबों को बाहर कर देता है, क्या सांविधानिक रूप से सही है। इस मुद्दे पर सम्माननीय न्यायाधीशों के विचार विभाजित थे, और उन्होंने 3:2 से फैसला दिया। न्यायमूर्ति रविंद्र भट्ट की असहमत टिप्पणी बेहद प्रभावशाली थी, जिससे प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति ललित सहमत थे। उनके ये शब्द सर्वोच्च न्यायालय के अदालत कक्षों में आने वाले अनेक वर्षों तक गूंजते रहेंगे कि ‘हमारा संविधान किसी को बाहर करने की भाषा में बात नहीं करता।’

दिग्गज अमेरिकी न्यायमूर्ति चार्ल्स इवांस ह्यूजेस के शब्दों को उधार लेकर कहूं, तो मेरे विचार से न्यायिक असहमति वस्तुतः ‘भविष्य के किसी एक दिन के लिए की गई अपील है, जब कोई न्यायिक निर्णय संभवतः मौजूदा खामी को दुरुस्त कर दे।’ इस आधार पर जो निष्कर्ष बनता है, वह यह है : गरीबों के लिए आरक्षण की नई व्यवस्था से आर्थिक न्याय को गति मिलेगी। लेकिन एससी, एसटी और ओबीसी के गरीबों को इस आरक्षण से बाहर रखने का (जो कुल गरीबों का लगभग 81.5 फीसदी हैं) फैसला निर्धनों से भी निर्धनतम को समानता और न्याय से वंचित करेगा।

अमर उजाला से साभार

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