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Rani Laxmi Bai -आज है रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि, इस मौके पर जानें इनकी वीर गाथा

History of Today

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Rani Laxmi Bai- ‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी’। रानी लक्ष्मीबाई एक ऐसी वीरांगना जिसकी वीरता के कायल अंग्रेज भी थे। 18 जून 1857 को अंग्रेजी सेना से युद्ध करते हुए इन्हें रणभूमि में वीरगति की प्राप्ति हुई। भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की लिस्ट में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता को अहम स्थान मिला है। प्रतिवर्ष 18 जून के दिन को रानी लक्ष्मीबाई को उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर याद किया जाता है।

क्या है इनकी वीरता की कहानी –

रानी लक्ष्मी बाई (Rani Laxmi Bai) का जन्म 19 नवंबर 1828 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में हुआ था। बचपन में इन्हें मणिकर्णिका व मनु नाम से जाना जाता था। रानी लक्ष्मीबाई को बचपन से ही शस्त्र शिक्षा के प्रति रुचि थी। इन्हें बचपन से शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्र शिक्षा भी दी गई। साल 1842 में झांसी के राजा गंगाधर राव नेवलकर के साथ इनका विवाह हुआ, और इस तरह से यह बन गई झांसी की रानी।

साल 1851 में इनके पुत्र का जन्म हुआ। परंतु स्वास्थ्य अच्छा ना होने की वजह से जन्म के 4 महीने बाद ही उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद साल 1853 में इनके पति व झांसी के राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। इनके वंश का कोई बारिश ना होने की वजह से लोगों ने इन्हें पुत्र गोद लेने की सलाह दी। लोगों की सलाह को मानते हुए साल 1853 में इन्होंने एक पुत्र गोद लिया। इनके दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया। पुत्र के गोद लेने के बाद नवंबर 1853 में इनके पति राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गई।

पति की मृत्यु के बाद गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी की नीति के तहत ईस्ट इंडिया कंपनी ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र दामोदर राव को उनका वारिस मानने से इनकार कर दिया। लेकिन रानी लक्ष्मीबाई ने भी यह ठान रखा था कि वह झांसी किसी को नहीं देंगी। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया जिसके बाद अंग्रेजों और रानी लक्ष्मीबाई (Rani Laxmi Bai) के बीच युद्ध निश्चित हो गया। रानी के इस विद्रोह को खत्म करने के लिए लॉर्ड डलहौजी ने कैप्टन ह्यूरोज को जिम्मेदारी दो।

23 मार्च 1857 को अंग्रेजों ने झांसी पर हमला कर दिया। 13 दिन तक चले इस युद्ध में आखिरकार अंग्रेजी सेना झांसी में घुसने में सफल हो गई जिसके बाद रानी लक्ष्मीबाई को झांसी छोड़कर जाना पड़ा। झांसी से निकलकर रानी लक्ष्मी बाई नाना साहब पेशवा, राव साहब व तात्या टोपे से मुलाकात करने कालपी पहुंची। इन सब ने मिलकर अंग्रेजों से लड़ने की रणनीति तैयार की। इस रणनीति में ग्वालियर की फौज ने उनका साथ दिया। हालांकि ग्वालियर के राजा जयाजीराव सिंधिया अंग्रेजों के साथ थे लेकिन उनकी पूरी फौज रानी लक्ष्मीबाई के साथ मिल गई।

17 जून 1857 को शुरू हुआ निर्णायक युद्ध –

17 जून 1857 को रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजो के बीच निर्णायक युद्ध की शुरुआत हुई। कैप्टन ह्यूरोस ने रानी लक्ष्मीबाई को पत्र लिखकर समर्पण के लिए कहा था जिसके जवाब में रानी लक्ष्मीबाई सेना के साथ मैदान में आ गई। इस युद्ध के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने रणनीति तैयार की थी कि सेना की एक टुकड़ी को वो संभालेंगी, जबकि दूसरी टुकड़ी को संभालने का काम तात्या टोपे करेंगे। परंतु तात्या टोपे युद्ध के दौरान समय पर वहां पहुंच नहीं पाए जिसकी वजह से रानी लक्ष्मीबाई अकेली पड़ गई और अंग्रेजों की सेना के बीच घिर गई।

आखरी दम तक उन्होंने साहस के साथ अंग्रेजों का सामना किया और बिना डरे आगे बढ़ती रही। इसी युद्ध के दौरान इन्हें शहादत मिली। लेकिन जिस वीरता से इन्होंने अंग्रेजों का सामना किया कि कैप्टन ह्यूरोज़ ने भी लक्ष्मीबाई की वीरता की प्रशंसा की।

आज के समय में देश की वीरांगनाओं की चर्चा की जाए तो उसमें रानी लक्ष्मीबाई का नाम सर्वोपरि आता है।

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