Wednesday, 6 November 2024

Special Story : आखिर स्टूडेंट्स क्यों कर रहे सुसाइड? वे पहले देते हैं संकेत, तभी उन्हें संभाल लें

Special Story : सैय्यद अबू साद Special Story : चेतना मंच विशेष। हाइस्कूल में टॉप करने वाली सुकन्या की बीमारी…

Special Story : आखिर स्टूडेंट्स क्यों कर रहे सुसाइड? वे पहले देते हैं संकेत, तभी उन्हें संभाल लें

Special Story :

सैय्यद अबू साद

Special Story : चेतना मंच विशेष। हाइस्कूल में टॉप करने वाली सुकन्या की बीमारी के बाद 11वीं के फर्स्ट सेमेस्टर की परीक्षा थोड़े कम नंबर आए, तो वह सुस्त रहने लगी। धीरे-धीरे डिप्रेशन में गई और एक दिन अपनी मां को मैसेज भेजा कि तुम मुझसे बेहतर बेटी की हकदार हो। मां मैसेज का मर्म नहीं समझ सकी। अगले दिन सुकन्या ने फांसी लगा ली। कोविड के दौरान हंसमुख रहने वाली 15 साल की कविता के व्यवहार में काफी बदलाव आ गया। अकेले रहना, मूड स्विंग, चिड़चिड़ापन, लेकिन घरवालों को इस गंभीरता का अहसास तब हुआ जब कविता ने अपने हाथ की नस काट ली। घूमने-फिरने के शौकीन विपिन को धीरे-धीरे अंधेरा पसंद आने लगा। वह अकेले रहने के साथ गंभीर गाने सुनने लगा। उसके घरवालों को यह समझने में 6 महीने लग गए कि बेटा डिप्रेशन में है।

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सुकन्या और कविता तो अब इस दुनिया में नहीं रहीं, लेकिन विपिन का इलाज चल रहा है और वे काफी बेहतर हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि आत्मघाती कदम उठाने से पहले बच्चे हमेशा कुछ न कुछ संकेत देते हैं। अगर उन संकेतों को समझा जाए तो बच्चों को ऐसा करने से रोका जा सकता है। आत्महत्या का कभी कोई एक कारण नहीं होता, कई कारण साथ काम कर रहे होते हैं। उन पर गौर करना भी जरूरी है।

रिजल्ट खराब आने पर उठाते बड़ा कदम
हाल में छात्र आत्महत्या की कई घटनाएं सुर्खियों में आई हैं। उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद ने पिछले महीने, 25 अप्रैल को दसवीं और बारहवीं के नतीजे जारी किए। इसके 24 घंटे के भीतर कम से कम सात छात्र-छात्राओं ने खुदकुशी कर ली। इसी तरह, आंध्र प्रदेश बोर्ड की तरफ से इंटरमीडिएट परीक्षा के नतीजे घोषित करने के 48 घंटे में कम से कम नौ छात्र-छात्राओं ने जान दे दी। दो और बच्चों ने कोशिश की थी, लेकिन उन्हें बचा लिया गया। इससे पहले आईआईटी मद्रास में 14 फरवरी से 21 अप्रैल तक सवा दो महीने में चार छात्रों के आत्महत्या करने की खबरें आईं। फरवरी में आईआईटी बॉम्बे में बीटेक फर्स्ट ईयर के छात्र दर्शन सोलंकी का मामला तो कई दिनों तक चर्चा में रहा। प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की कोचिंग के लिए मशहूर कोटा और दिल्ली में भी इस साल छात्र आत्महत्या की कई घटनाएं हो चुकी हैं।

बच्चे देते हैं डिप्रेशन में जाने के संकेत
2018 से हर साल 10 हजार से ज्यादा छात्रों ने किसी न किसी कारण जान दी है। सुसाइड का कोई एक कारण नहीं होता, कई कारण साथ काम कर रहे होते हैं। एक समय ऐसा आता है जब कई फैक्टर एक साथ हावी हो जाते हैं, तब व्यक्ति अपने आप को खत्म करने की कोशिश करता है। सीनियर प्रोफेसर तथा चार दशक से अधिक का अनुभव रखने वाले डॉ. चित्तरंजन अंद्रादे डिप्रेशन तथा तनाव (स्ट्रेस) को आत्महत्या का प्रमुख कारण मानते हैं। वे कहते हैं कि छात्रों के जल्दी तनाव में आने के दो कारण हैं- एक तो उन पर कई तरह का दबाव होता है और दूसरा, उस दबाव से निपटने के लिए वे परिपक्व नहीं होते। वे सुसाइड करने से पहले ढेर सारे संकेत देते हैं, जैसे वे पहले अभिभावक से बात करते हैं, हल न निकलने पर वे सुस्त होते हैं, फिर डिप्रेशन में चले जाते हैं और जब उनको लगता है कि अब वे इस परेशानी से नहीं उबर पाएंगे, तो सुसाइड का रास्ता अपनाते हैं। माता-पिता को चाहिए कि बच्चे से हालचाल पूछते रहें। बच्चे की बात को इग्नोर न करें। उनके साथ समय बिताएं। बच्चे को थोड़ा भी सुस्त या व्यवहार में बदलाव देखें तो तुरंत एक्टिव हो जाएं। ऐसे समय में दोस्त बहुत काम आते हैं।

स्टडी में चौंकाने वाले आंकड़े
ऐसा नहीं कि यह सब अचानक होने लगा है। केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री सुभाष सरकार ने पिछले दिनों राज्यसभा में बताया कि 2018 से मार्च 2023 के मध्य तक आईआईटी, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एनआईटी) और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (आईआईएम) में इस दौरान कुल 61 छात्रों ने आत्महत्या की। इनमें से 33 आईआईटी के छात्र थे।
इंडियन साइकियाट्रिक सोसायटी की पत्रिका इंडियन जर्नल ऑफ साइकियाट्री में एक रिपोर्ट के लिए मेडिकल कॉलेज के स्टूडेंट्स का सर्वे किया गया। फरवरी और मार्च 2022 के दौरान की गई स्टडी में 787 छात्र शामिल हुए जिनकी औसत उम्र 21 वर्ष थी। इनमें से 293 अर्थात 37.2 प्रतिशत छात्रों ने कहा कि उनके मन में आत्महत्या के विचार आते हैं, 86 छात्रों यानी 10.9 प्रतिशत ने कहा कि वे आत्महत्या करने की सोच रहे थे, 26 छात्रों यानी 3.3 प्रतिशत ने बताया कि वे पहले कभी न कभी आत्महत्या की कोशिश कर चुके थे। प्रमुख कारणों में ठीक से न सोना, परिवार में साइकियाट्रिक बीमारी का इतिहास, बुलिंग, अवसाद और अत्यधिक तनाव शामिल हैं।

लगातार बढ़ रहे स्टूडेंट सुसाइड के मामले
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े देखें तो 2018 से हर साल 10 हजार से ज्यादा छात्रों (छात्राओं समेत) ने किसी न किसी वजह से जान दी है। वर्ष 2021 में आत्महत्या के कुल 1,64,033 मामलों में छात्रों की संख्या 13,089 थी। खतरनाक बात यह है कि कुल आत्महत्या में छात्रों का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है। एनसीआरबी के पास 1995 से छात्र आत्महत्या के आंकड़े उपलब्ध हैं। 1995 में कुल सुसाइड में छात्र 7 प्रतिशत से कम थे। बाद के वर्षों में इसमें गिरावट भी आई, लेकिन 2020 और 2021 में यह आंकड़ा 8 प्रतिशत को पार कर गया। 2011 और 2021 के आंकड़ों की तुलना करें तो इस दौरान कुल आत्महत्याएं 21 प्रतिशत बढ़ीं, लेकिन छात्र आत्महत्या में 70 प्रतिशत वृद्धि हुई। 2011 में हर दिन 21 छात्रों ने खुदकुशी की तो 2021 में यह संख्या 36 हो गई, यानी हर दो घंटे में तीन। 2021 में 18-30 आयु वर्ग में सबसे ज्यादा 56,543 सुसाइड के मामले सामने आए।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हर साल दुनिया में लगभग आठ लाख लोग खुदकुशी करते हैं। इससे भी डराने वाला आंकड़ा यह है कि हर आत्महत्या की तुलना में 20 लोग इसका प्रयास करते हैं। अर्थात हर साल 1.6 करोड़ लोग सुसाइड करने की कोशिश करते हैं। भारत में आत्महत्या दर (प्रति एक लाख आबादी में) विश्व औसत से ज्यादा है। डबल्यूएचओ के अनुसार 2019 में ग्लोबल आत्महत्या दर 9 थी। एनसीआरबी के मुताबिक उस साल भारत में यह दर 10.4 थी, जो 2020 में 11.3 और 2021 में 12 हो गई।

अभिभावक छुपाते हैं मामले
सीनियर साइकोथेरेपिस्ट और बेंगलुरू की संस्था द एबल माइंड की संस्थापक एवं क्लिनिकल हेड रोहिणी राजीव बताती हैं कि 10 साल पहले की तुलना में अब काफी अधिक रिपोर्टिंग होने लगी है। अक्सर बच्चे कोई जहरीला पदार्थ खा लेते हैं। उन्हें लगता है कि इसे खाने से उनकी जान चली जाएगी, लेकिन ज्यादातर मामलों में बच्चे का सिर्फ पेट खराब होता है। पहले मां-बाप घर पर ही बच्चे का इलाज करवाते थे। अगर बच्चे को अस्पताल लेकर गए तो डॉक्टर से कहते थे कि नींद में गलती से जहर पी लिया। वे बस इतना चाहते थे कि पुलिस में मामला दर्ज न हो। मां-बाप को लगता है कि अगर यह बात सबको पता चलेगी तो लोग उनके परवरिश के तरीके पर सवाल उठाएंगे। अब स्थिति में काफी बदलाव आया है, क्योंकि माता-पिता को लगता है कि मदद के रास्ते उपलब्ध हैं।
बेहतर रिपोर्टिंग की बात स्वीकार करते हुए बेंगलुरु स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज में मनारोग विभाग में प्रोफेसर डॉ. वी. सेंथिल कुमार रेड्डी वर्दर इफेक्ट की बात कहते हैं। वे कहते हैं कि जब आत्महत्या के मामले अधिक प्रकाश में आते हैं तो पहले से विभिन्न समस्याओं से जूझ रहे लोगों में सुसाइड के प्रति एक तरह का ट्रिगर पैदा होता है। ऐसा खासतौर से छात्रों तथा उन लोगों में होता है जो आसानी से किसी बात में आ जाते हैं। उन्हें लगता है कि समस्याओं से निजात पाने का यही सबसे अच्छा तरीका है।

कई बच्चे स्वयं करते हैं काउंसलर से संपर्क
दिल्ली के डॉ. ओम प्रकाश के अनुसार, कानून में बदलाव (मेंटल हेल्थकेयर एक्ट 2017 में आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से हटाया गया) के बाद लोगों में जागरूकता आई है। फिर भी, हमारे पास उन्हीं मामलों के रिकॉर्ड हैं जो अस्पतालों में आते हैं। उम्मीद है कि आधार तथा डिजिटाइजेशन से डाटा में और सुधार आएगा।

दिल्ली स्थित काउंसलिंग संस्था सुमैत्री की डायरेक्टर नलिनी भी जागरूकता की बात मानती हैं। वे कहती हैं कि 25 साल पहले जब मैं नई-नई वॉलंटियर बनी थी, तब किसी को साइकियाट्रिस्ट या काउंसलर के पास भेजने में बहुत मुश्किल आती थी। अगर सीधे किसी से साइकियाट्रिस्ट के पास जाने के लिए कहती तो उसका सवाल होता था कि क्या मैं पागल हूं। 10 साल पहले तक यह स्थिति थी। लेकिन अब लोग हमारे पास आने से पहले साइकियाट्रिस्ट और थेरेपिस्ट के पास जा रहे होते हैं। कई बार बच्चे मां-बाप को बताए बिना खुद ऑनलाइन काउंसलर से संपर्क कर लेते हैं। इस लिहाज से देखें तो जागरूकता काफी बढ़ी है जो अच्छी बात है।

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