DeepFake इंटरनेट यूजर्स के लिए ‘डीपफेक्स’ बना बड़ी चुनौती

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Deepfake Technique
locationभारत
userचेतना मंच
calendar30 Nov 2025 08:12 AM
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DeepFake / नई दिल्ली। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई), ‘डीपफेक्स’ (DeepFake) और सोशल मीडिया, जिसे साधारण जनता कम ही समझती है। लेकिन यह तिकड़ी करोड़ों इंटरनेट यूजर्स के लिए रहस्यमयी बाधा बन गई है जो रोजाना सच और फर्जी के बीच अंतर करने के लिए जूझते हैं। डीपफेक्स का आशय किसी छवि या वीडियो में डिजिटल छेड़छाड़ करके उसे दूसरे की छवि या वीडियो के रूप में दिखाना है, ताकि फर्जी सूचना फैलाई जा सके।

DeepFake App

भ्रमित करने वाली सूचना के खिलाफ लड़ाई हमेशा से चुनौतीपूर्ण रही है और एआई चालित टूल्स के विकास के बाद विभिन्न सोशल मीडिया मंचों पर ‘डीपफेक्स’ सूचनाओं की सच्चाई का पता लगाना और मुश्किल हो गया है।

एआई की बिना मंशा वाली फर्जी खबरें बनाने की क्षमता ऐसी खबरों को रोकने से अधिक है, जो चिंता का विषय बनी हुई है।

भ्रामक सूचनाओं का नया मोर्चा बना डीपफेक्स

‘डाटालीड्स’ के संस्थापक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) सईद नजाकत ने कहा कि भारत में तेजी से बदलती सूचना पारिस्थितिकी में ‘डीपफेक्स’ भ्रामक सूचना का एक नया मोर्चा बनकर उभरा है जिसमें लोगों के लिए झूठ और सच्चाई के बीच अंतर करना मुश्किल होता है।

‘डाटालीड्स’ एक डीजिटल मीडिया समूह है। नजाकत ने कहा कि भारत पहले ही विभिन्न भारतीय भाषाओं में भ्रामक सूचनाओं की बाढ़ का सामना कर रहा है। यह स्थिति एआई प्रौद्योगिकी और डीपफेक्स आधारित टूल्स से और विकराल हो गई है।

ब्रिटिश टेलीकॉम में इंटरप्राइज आर्किटेक के तौर पर काम करने वाले अजहर माचवी कहते हैं, ‘‘एआई मॉडल की अगली पीढ़ी को जेनरेटिव एआई कहते हैं, जिसमें डाल-ई, चैटजीपीटी, मेटा का मेक ए वीडिया आदि उदाहरण हैं। इनमें बदलाव के लिए स्रोत की जरूरत नहीं होती। इसके बजाय ये तस्वीर, लेख या वीडियो को आदेश के आधार पर पैदा कर सकते हैं। यह विकास की शुरुआती अवस्था है, लेकिन इन में नुकसान पहुंचाने की क्षमता है क्योंकि हमारे पास सबूत के तौर पर पेश करने के लिए मूल सामग्री नहीं होती।

डीपफेक्स क्या है?

डीपफेक्स का अभिप्राय कृत्रिम मीडिया से होता है, जिसमें एक मौजूदा छवि या वीडियो में एक व्यक्ति की जगह किसी दूसरे को लगा दिया जाए, इतनी समानता से कि उनमें अंतर करना कठिन हो जाए। इसके लिए व्यक्ति के ज्ञान की जरूरत नहीं होती बल्कि कंप्यूटर स्वयं कर देता है। इंटरनेट पर कई एआई टूल्स हैं जिनका इस्तेमाल स्मार्टफोन पर मुफ्त में किया जा सकता है।

एआई और फर्जी खबरें

कुछ साल पहले पत्रकारिता में एआई की शुरुआत की गई जिससे उद्योग को आगे बढ़ाने और समाचार प्राप्त करने एवं वितरण में क्रांति की उम्मीद की गई। इसके फर्जी खबरों और भ्रामक सूचना को रोकने में सहायक माना गया।

अजहर ने बताया कि डीपफेक्स की कमी यही है कि उसे काम करने के लिए कुछ मूल सामग्री की जरूरत होती है। उदाहरण के लिए बिल गेट्स का वीडियो जिसमें उनकी आवाज की जगह फर्जी आवाज स्थापित कर दी जाए। इसकी पहचान करना आसान है बशर्ते मूल की पहचान कर ली जाए, लेकिन इसमें समय और मूल सामग्री की तलाश करने की क्षमता की जरूरत होती है।

वह मानते हैं कि हाल में सोशल मीडिया पर साझा किए गए ‘डीपफेक्स’ की पहचान करना आसान है, लेकिन आने वाले दिनों में इनका पता लगाना चुनौतीपूर्ण होगा।

आगे की राह

अधिकतर सोशल मीडिया मंच फर्जी समाचार भाषा की परिपाटी और जन जानकारी आधारित कलन विधि से स्रोत के स्तर पर ही फर्जी समाचार को कम करने का दावा करते हैं। यह सुनिश्चित करती हैं कि भ्रामक सूचना के तथ्य को पता लगाने और हटाने के बाद उसे आगे फैलने न दी जाए।

हालांकि, डीपफेक्स के उदाहरणों ने एआई द्वारा फर्जी खबर गढ़ने की क्षमता को रेखांकित किया है। एआई और मशीन लर्निंग ने कई कार्य-सुविधा वाले उपकरण के साथ पत्रकारिता के कार्य में मदद करने वाले टूल्स दिए हैं जिनमें स्वयं से ध्वनि-पहचान प्रतिलेखन टूल सामग्री शामिल है।

नील्सन की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण भारत में 42.5 करोड़ इंटरनेट उपयोकर्ता हैं। यह संख्या शहरी क्षेत्र में इंटरनेट इस्तेमाल कर रहे 29.5 करोड़ लोगों से 44 प्रतिशत अधिक है।

नजाकत ने कहा कि हमें बहु आयामी और अंतर क्षेत्र रुख पूरे भारत में सभी लोगों को आज और कल की जटिल डिजटिल अवस्था के लिए तैयार करने के लिए अपनाना चाहिए ताकि वे डीपफेक्स और भ्रामक सूचना के प्रति सतर्क रह सकें।

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Article : अपनों से जोड़ नहीं, तोड़ रहा है स्मार्टफोन

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locationभारत
userचेतना मंच
calendar01 Dec 2025 05:53 AM
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संजीव रघुवंशी (वरिष्ठ पत्रकार) लोग किस कदर टचस्क्रीन (Touch Screen) की लत के शिकार हो रहे हैं, इस बाबत डिजिटल रिसर्च संस्था ‘एप एनी’ की रिपोर्ट डराने वाली है। संस्था ने अपनी 2021 की रिपोर्ट में दावा किया था कि विश्व भर में लोगों ने एक साल में 3.8 लाख करोड़ घंटे मोबाइल पर बिताए हैं। वहीं, भारतीयों ने 69.9 करोड़ घंटे मोबाइल पर खर्च किये। भारतीय औसतन 4.8 घंटे रोजाना मोबाइल की स्क्रीन से चिपके रहे। यह उनके जागने के समय के एक तिहाई के बराबर है। ‘एप एनी’ के सीईओ थियोडोर क्रांत्ज का कहना है कि साल 2021 में गूगल प्ले स्टोर और एप स्टोर से दुनिया भर में 26 अरब 70 करोड़ एप डाउनलोड किए गए। भारत एप डाउनलोड करने के मामले में चीन के बाद दूसरे स्थान पर है।

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राजधानी दिल्ली से सटे गाजियाबाद के लोनी स्थित परिवार परामर्श केंद्र पर पिछले दिनों एक अजीबोगरीब मामला सामने आया। यहां काउंसलर को एक महिला ने दो-टूक कह दिया कि वह पति को छोड़ सकती है, लेकिन स्मार्टफोन (Smart Phone) नहीं। पति का आरोप था कि वह लगातार घंटों तक वीडियो कॉल करती रहती है, जिससे घर-परिवार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। महिला को काउंसलर, मायके वालों समेत दूसरे रिश्तेदारों ने भी समझाया, लेकिन उसने पति के बजाय स्मार्टफोन को चुना। बहरहाल, इस मामले की परिणति क्या होगी, इस बारे में तो कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन स्मार्टफोन Smart Phone के प्रति दीवानगी की पराकाष्ठा का यह मामला कई सवाल खड़े करता है। क्या अपनों से जुड़े रहने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला मोबाइल ही हमें अपनों से दूर ले जा रहा है? क्या हम एक ‘कम्युनिकेशन इंस्ट्रूमेंट’ के इतने गुलाम हो गए हैं कि वह हमें अपने इशारों पर नचाने लगा है? कहीं हमने स्मार्टफोन को ‘दोस्त’ बना कर बीमार शरीर के साथ एकाकी जीवन का रास्ता तो नहीं चुन लिया है?

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दुनिया में स्मार्टफोन की दस्तक 23 नवंबर, 1992 को ‘आईबीएम साइमन’ नाम के तीन इंच की टचस्क्रीन वाले मोबाइल फोन के साथ मानी जाती है। इसके करीब पौने दो साल बाद 16 अगस्त, 1994 को यह बाजार में आया। जबकि, भारत में टचस्क्रीन फोन एचटीसी कंपनी ने 22 अक्टूबर, 2008 को ‘एचटीसी ड्रीम’ नाम से लांच किया। दुनिया में स्मार्टफोन का चलन बढऩे के साथ ही इसके फायदे-नुकसान का गुणा-भाग भी शुरू हो गया। कोरोना काल में तमाम व्यावसायिक और शैक्षणिक गतिविधियों का डिजिटलीकरण हुआ तो स्मार्टफोन ने अधिकतर घरों में पहुंच बना ली। कोरोना पर लगाम लगने के साथ ही जनजीवन तो काफी हद तक अपने पूर्ववर्ती ढर्रे पर आ गया है, लेकिन जिंदगी स्मार्टफोन की ‘कैद’ से निकलने को तैयार नहीं। मोबाइल ने लोगों से ऐसी ‘दोस्ती’ गांठी कि यह जीवन-मरण का बंधन बनकर रह गया है। चिंता इस बात को लेकर है कि यह सब रिश्तों और मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य की कीमत पर हो रहा है। स्मार्टफोन की लत हमें किस रास्ते पर ले जा रही है, इसकी एक बानगी पिछले महीने हैदराबाद में सामने आई है। यहां एक महिला की देखने की क्षमता लगभग चली गई। नेत्र रोग विशेषज्ञ की जांच में सब कुछ ठीक होने के बावजूद महिला को देखने में बड़ी दिक्कत हो रही थी। आखिरकार, न्यूरोलॉजिस्ट ने जांच की तो पाया कि अंधेरे में घंटों मोबाइल की स्क्रीन देखने से समस्या पैदा हुई है। ‘डिजिटल विजन सिंड्रोम’ के ही एक रूप ‘स्मार्टफोन विजन सिंड्रोम’ से पीडि़त 30 वर्षीय महिला मंजू की आंखों को न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. सुधीर कुमार ने बगैर किसी दवाई और टेस्ट के एक महीने में ही ठीक कर दिया। इसके लिए सिर्फ मोबाइल स्क्रीन से परहेज किया गया। यह हालत सिर्फ मंजू की नहीं है अधिकतर घरों में ऐसे किस्से मौजूद हैं। लगातार घंटों तक मोबाइल स्क्रीन पर टकटकी लगाकर देखने से सिर्फ आंखों से जुड़ी दिक्कत ही पैदा नहीं हो रही है। विशेषज्ञ बताते हैं कि गर्दन दर्द, कंधे में दर्द, सिर दर्द, अंगुली, कलाई व कोहनी में दर्द की सबसे बड़ी वजह मोबाइल का बेतहाशा इस्तेमाल ही है। स्मार्टफोन के दिए दर्द की दास्तान यहां ही खत्म नहीं हो जाती। देर रात तक मोबाइल से चिपके रहने से नींद पूरी नहीं हो पाती जो अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, भ्रमित रहना, तनाव और अंतत: अवसाद का कारण बनता है।

पिछले साल उत्तर प्रदेश के मेरठ में मेडिकल कॉलेज और जिला अस्पताल के डॉक्टरों ने जनवरी से जून तक 26553 मरीजों का विश्लेषण करके यह निष्कर्ष निकाला कि स्मार्टफोन पर ज्यादा समय बिताने से लोग तनाव, चिड़चिड़ापन और अवसाद का शिकार हो रहे हैं। खास बात यह है कि इनमें से करीब 50 फीसदी मरीज 25 से 45 साल के थे। जिला अस्पताल के मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. कमलेंद्र किशोर का कहना था कि मोबाइल की लत से युवा देर रात तक जागते हैं और फिर दिन में सोते हैं। यह विकृत जीवनशैली उन्हें अवसाद की ओर धकेल रही है। मेडिकल कॉलेज के मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. तरुण पाल ने तो कई ऐसे लोगों की काउंसलिंग करने की बात स्वीकारी जो स्मार्टफोन से ‘दोस्ती’ कर एकाकीपन का शिकार हो गए और आत्महत्या करने तक की सोचने लगे। लोग किस कदर टचस्क्रीन की लत के शिकार हो रहे हैं, इस बाबत डिजिटल रिसर्च संस्था ‘एप एनी’ की रिपोर्ट डराने वाली है। संस्था ने अपनी 2021 की रिपोर्ट में दावा किया था कि विश्व भर में लोगों ने एक साल में 3.8 लाख करोड़ घंटे मोबाइल पर बिताए हैं। वहीं, भारतीयों ने 69.9 करोड़ घंटे मोबाइल पर खर्च किये। भारतीय औसतन 4.8 घंटे रोजाना मोबाइल की स्क्रीन से चिपके रहे। यह उनके जागने के समय के एक तिहाई के बराबर है। ‘एप एनी’ के सीईओ थियोडोर क्रांत्ज का कहना है कि साल 2021 में गूगल प्ले स्टोर और एप स्टोर से दुनिया भर में 26 अरब 70 करोड़ एप डाउनलोड किए गए। भारत एप डाउनलोड करने के मामले में चीन के बाद दूसरे स्थान पर है।

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यहां, मोबाइल टावर से निकलने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों से स्वास्थ्य पर पडऩे वाले नकारात्मक प्रभाव का जिक्र करना भी जरूरी है। हालांकि, सूचना प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञों का दावा है कि शरीर पर इनका गंभीर प्रभाव नहीं पड़ता। ‘गंभीर’ शब्द की आड़ लेकर भले ही मोबाइल टावर का बचाव किया जाता रहा हो, लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने एक दशक पहले ही इसके नुकसान को लेकर चेता दिया था। अपनी 2012 की रिपोर्ट में डब्ल्यूएचओ ने कहा था कि अगर कोई व्यक्ति 8 से 10 साल तक रोजाना 30 घंटे टावर से निकलने वाली माइक्रोवेव तरंगों के संपर्क में रहता है, तो उसमें ब्रेन ट्यूमर का खतरा 400 गुना तक बढ़ जाता है। यही तरंगे मोबाइल का इस्तेमाल करने वालों तक भी पहुंचती हैं, जो अधिक इस्तेमाल करने पर अधिक नुकसान पहुंचा सकती हैं। अब 5G और 6G की होड़ ने इस खतरे को भी बढ़ा दिया है। इंटरनेट की ज्यादा स्पीड के लिए इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों की क्षमता बढ़ाने से ये स्वास्थ्य के लिए पहले से कहीं अधिक घातक हो रही हैं।

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हाल ही में नोकिया ने ‘ब्रॉडबैंड इंडिया ट्रैफिक इंडेक्स’ को लेकर अपनी सालाना रिपोर्ट में दावा किया है कि भारत में इंटरनेट डाटा की खपत पांच साल में 3.2 गुना तक बढ़ गई है। भारतीय हर महीने औसतन 19.5 जीबी डाटा खर्च कर रहे हैं। साथ ही, संभावना जताई है कि डाटा उपभोग का मासिक औसत 2027 तक 46 जीबी तक पहुंच सकता है। भारत में अगले साल तक करीब 15 करोड़ लोग 5G तकनीक से लैस मोबाइल का उपयोग करने लगेंगे, जो डाटा खपत बढऩे की प्रमुख वजह बनेगी। सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के लिहाज से ये आंकड़े भले ही उत्साह बढ़ाने वाले हो, लेकिन स्मार्टफोन के अंधाधुंध इस्तेमाल से समाज और शरीर के बीमार होने की कड़वी हकीकत को अनदेखा नहीं किया जा सकता। बेशक, कोरोना काल में स्मार्टफोन से नजदीकी हमारी मजबूरी बन गई थी, लेकिन इस मजबूरी को अपनी कमजोरी बनने दिया तो अपनों से जुड़े रहने का यह जरिया हमें सिर्फ अपनों से ही नहीं, बल्कि खुद से भी दूर कर देगा।

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Delhi AIIMS : मात्र 90 सेकंड्स में डॉक्टर्स ने की भ्रूण की हार्ट सर्जरी

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Doctors did surgery of fetus in ninty seconds
locationभारत
userचेतना मंच
calendar15 Mar 2023 09:49 PM
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वैज्ञानिक तकनीकों के माध्यम से असम्भव को सम्भव बनाते हुए दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ( Delhi AIIMS) के डॉक्टरों ने एक माँ के गर्भ में पल रहे भ्रूण के हृदय आकार का सफल ऑपरेशन किया। डॉक्टर्स ने बताया कि ज़ब माता-पिता को उनके होने वाले शिशु की हृदय स्थिति के बारे में बताया गया तो उन्होंने अपनी गर्भवस्था को आगे जारी रखने पर सहमति जताई और डाईलेशन की प्रक्रिया के लिए भी हामी भर दी। जिसके बाद डॉक्टर्स ने मात्र 90 सेकंड्स में ही भ्रूण के दिल का सफल बैलून डाईलेशन कर दिया।

Delhi AIIMS

डॉक्टर्स ने यह भी जानकारी दी कि 28 वर्ष की महिला जो होने वाले शिशु की मां है, ने इससे पहले तीन बार गर्भपात का सामना किया है। और ऐसे में ज़ब Delhi AIIMS के डॉक्टर्स ने उन्हें भ्रूण के हृदय संबंधी दिक्क़त के बारे में बताया तो वे यह खबर सुनकर बेहोश हो गयीं।

सर्जरी के बाद स्वस्थ्य हैं मां एवं भ्रूण

Delhi AIIMS में प्रसूति एवं स्त्री रोग (भ्रूण चिकित्सा) विभाग के साथ कार्डियोलॉजी और कार्डियक एनेस्थीसिया विभाग की डॉक्टरों की टीम ने जानकारी दी कि एक सफल सर्जरी के बाद मां और भ्रूण दोनों ही स्वस्थ हैं। उन्होंने यह भी बताया कि भ्रूण के अँगूर के आकार की सफल बैलून डाइलेशन की प्रक्रिया एम्स कार्डियोथोरेसिक साइंसेज सेंटर में की गयी थी। सर्जरी के बाद भी डॉक्टर्स के द्वारा लगातार भ्रूण के विकास पर नज़र रखी जा रही है।

कैसे 90 सेकंड्स में पूरी हुई सर्जरी?

Delhi AIIMS के डॉक्टर्स की टीम के वरिष्ठ सदस्य जिन्होंने यह सर्जरी की वे बताते हैं कि यह काफी जटिल प्रक्रिया थी और इसे तेज़ी के साथ किया जाना था। इसलिए हमनें माँ के पेट से भ्रूण के दिल में सुई डालकर बैलून कैथेडर का प्रयोग किया और रक्त प्रवाह में बाधित वॉल्व को खोल दिया। अब भ्रूण के हृदय विकास में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।

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