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लखीमपुर खीरी की घटना के बाद उठ रहे ये 8 सवाल

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1. आंदोलन किसे कहते हैं?
आंदोलन का मतलब है कि किसी स्थापित सत्ता, व्यवस्था, कानून या कुरीति के खिलाफ संगठिन, सुनियोजित या स्वत: स्फूर्त विरोध। ​इस विरोध का मकसद सत्ता या व्यवस्था में बदलाव या सुधार करना होता है। आंदोलन और क्रांति दो अलग-अलग चीजें हैं। आंदोलन का मकसद सुधार या बदलाव होता है, जबकि किसी व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने और नई व्यवस्था की स्थापना को क्रांति कहते हैं।

जैसे, जाति प्रथा की समाप्ति या विधवा विवाह के लिए होने वाले आंदोलनों का मकसद हिंदू धर्म में सुधार करना था। लेकिन, 1857 के विद्रोह का मकसद अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकना और स्वराज स्थापित करना था।

2. आंदोलन कितने प्रकार के होते हैं?
मोटे तौर पर आंदोलन के तीन प्रकार होते हैं: सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक। किसी सामाजिक व्यवस्था का विरोध और उसमें बदलाव की मांग के लिए सामाजिक आंदोलन किए जाते हैं। जैसे जाति प्रथा या दहेज प्रथा का विरोध।

इसी तरह, सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के लिए होने वाला आंदोलन, धार्मिक आंदोलन का ताजा उदाहरण है। जब सरकार की किसी नीति, कानून के विरोध या उसमें बदलाव के ​लिए आंदोलन होता है, तो उसे राजनीतिक आंदोलन कहते हैं।

3. आंदोलन दो तरीके से किए जाते हैं
फिलहाल, किसान आंदोलन और लखीमपुर खीरी में हुई घटना के बाद यह सवाल खड़ा किया जा रहा है कि क्या आंदोलन करने का यही तरीका होता है?

यह बात सभी जानते हैं कि भारत की आजादी की लड़ाई में दो विचारधाराओं को मानने वाले शामिल थे। एक विचारधारा हिंसा या सशस्त्र विरोध को सही मानती थी। दूसरी विचारधारा अहिंसक विरोध का समर्थन करती थी, जिसके सबसे बड़े पैरोकार महात्मा गांधी थे।

4. क्या अहिंसक आंदोलन सफल नहीं होते?
लखीमपुर खीरी की घटना से लगभग नौ महीने पहले 26 जनवरी 2021 को किसानों ने दिल्ली में ट्रैक्टर मार्च निकाला था। गणतंत्र दिवस के दिन प्रदर्शनकारियों ने लाल किले की प्राचीर और दिल्ली की सड़कों पर खुलेआम शक्ति प्रदर्शन किया।

पिछले एक दशक के राजनीतिक आंदोलनों में अन्ना हजारे का जनलोकपाल के लिए किया गया आंदोलन सबसे महत्वपूर्ण है। लगभग पांच महीने तक चले इस आंदोलन में अन्ना हजारे ने अनशन को सबसे बड़ा हथियार बनाया और सरकार को झुकने के लिए विवश कर दिया।

5. क्यों लगातार हो रहे हैं आंदोलन?
2019 में लगातार दूसरी बार सत्ता में आई एनडीए सरकार के नागरिकता संशोधन कानून (CAA), धारा 370 का उन्मूलन सहित तीन नए कृषि कानून बनाए। इन कानूनों से बहुत से लोग असहमत थे। लोकतांत्रिक देश में विरोध करना और आंदोलन करना आम बात है।

किसान आंदोलन के दौरान सरकार और आंदोलनकारी किसानों के बीच 13 दौर की वार्ता हुई, लेकिन कोई समाधान नहीं निकला। तीनों नए कानूनों को समाप्त करने के अलावा किसान संगठन किसी और रास्ते या समाधान के लिए तैयार नहीं हैं।

6. आंदोलन के इन तरीकों पर उठ रहे सवाल
कृषि कानूनों और सीएए के विरोध के दौरान दिल्ली सहित देश के अन्य शहरों में मुख्य सड़कों और हाईवे पर प्रदर्शन किया गया। दिल्ली की सड़कों सहित लाल किले की प्राचीर पर एक विशेष संगठन का झंडा फहराया गया। इस तरह सीएए के विरोध में हुए आंदोलन के दौरान भी गोलीबारी की कई घटनाएं हुईं। साथ ही, आंदालनकारियों ने सड़कों और नेशनल हाईवे को लंबे समय तक ब्लॉक रखा।

आंदोलन और प्रदर्शन के इस तरीके को लेकर सुप्रीम कोर्ट अपना गुस्सा जाहिर कर चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने अंतर-राज्यीय सड़कों और नेशनल हाइवे को बंद किए जाने और उससे आम नागरिकों को होने वाली परेशानी पर चिंता जाहिर की है।

7. इन वजहों से उठ रहे सवाल
सरकार या कानून के खिलाफ प्रदर्शन या आंदोलन के दौरान क्या आम नागरिकों को होने वाली परेशानी और उनके नुकसान को नजर अंदाज करना सही है? शाहीन बाग में चले आंदोलन के कारण हाइवे के ब्लॉक होने के अलावा, स्थानीय दुकानदारों को भारी नुकसान हुआ। कई दुकानें और वहां काम करने वालों की रोजी-रोटी पर संकट खड़ा हो गया।

किसी भी आंदोलन का मकसद ज्यादा से ज्यादा लोगों को जोड़ना होता है, ताकि सरकार और व्यवस्था पर दबाव बनाया जा सके। आंदोलनकारी हों या सरकारें, अगर उनकी कार्यवाई से आम जन-जीवन प्रभावित होता है, तो उस पर सवाल उठना स्वाभाविक है। चाहे, धारा 370 उन्मूलन के नाम पर जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट सेवा को लंबे समय तक बंद करना हो या किसी कानून के विरोध में नेशनल हाईवे और सड़कों को बंद करना।

8. सरकार हो या आंदोलनकारी, ये सवाल तो उठेंगे
सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट सेवा बाधित होने पर इसे मूल-अधिकारों का हनन माना था। इसी तरह हाईवे या सड़कों को लंबे समय तक बंद रखने को भी न्यायालय ने सही नहीं माना है।

हालांकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि गतिरोध को समाप्त करने में सरकार की भी भूमिका होती है। लोकतांत्रिक देशों में व्यापक जन-आंदोलन सत्ता परिवर्तन की नींव तैयार करते रहे हैं। जेपी आंदोलन के बाद इंदिरा सरकार या अन्ना आंदोलन के बाद मनमोहन सरकार का जाना यह साबित करता है कि आंदोलन को हल्के में लेने वाली सरकारों का क्या अंजाम होता है। लेकिन, इसका यह मतलब नहीं है कि आंदोलन के नाम पर होने वाली किसी भी कार्यवाई को सही मान लिया जाए या उस पर सवाल न खड़ा किया जाए।

– संजीव श्रीवास्तव

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