Saturday, 20 April 2024

कमज़ोर विपक्ष लोकतंत्र के लिए खतरा

विनय संकोची किसी भी देश में लोकतांत्रिक प्रणाली को जिंदा रखने के लिए मजबूत विपक्ष अनिवार्य घटक है। यह विपक्ष…

कमज़ोर विपक्ष लोकतंत्र के लिए खतरा

विनय संकोची

किसी भी देश में लोकतांत्रिक प्रणाली को जिंदा रखने के लिए मजबूत विपक्ष अनिवार्य घटक है। यह विपक्ष ही है जो लोकतंत्र की आधारभूत मान्यताओं को सत्यापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विपक्ष ही सरकार की अनियंत्रित और निरंकुश प्रवृत्ति पर अंकुश लगाता है। जनता की उचित आवश्यक मांगों को उपेक्षा का शिकार होने से बचाता है। सच तो यह है कि बिना विपक्ष की सक्रियता के कोई भी लोकतंत्र न तो स्वस्थ हो सकता है, न जिंदा ही रह सकता है।

भारत की लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली में विपक्ष की महत्वपूर्ण भूमिका है। विपक्ष अपनी भूमिका का निर्वाह भी करता रहा है, कर रहा है। लेकिन वर्तमान सरकार न केवल विपक्ष की उपेक्षा, अनदेखी कर रही है, अपितु तरह-तरह से अपमानित करने का भी परोक्ष रूप से प्रयास करती रही है। सत्ताधारी विपक्ष को उतना महत्व नहीं दे रहे जितना उसे दिया जाना चाहिए।

1947 में आजादी मिलने के बाद जिस मजबूत विपक्ष की बेहद आवश्यकता थी, वह तब मौजूद नहीं था ऐसे में जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया ने मजबूत प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कई फैसलों को चुनौती दी। 1953 में जेपी ने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया तब अकेले लोहिया ने ही विपक्ष क्या होता है और उसे क्या-क्या करना चाहिए इसका पाठ भारतीय लोकतंत्र को सिखाया-रटाया, जिसका परिणाम यह हुआ कि लोहिया के जीवित रहते कांग्रेसी सरकार कभी खुलकर मनमानी नहीं कर सकी।

आज स्थिति यह है कि संसद में किसी भी दल के पास विरोधी दल का दर्जा तक नहीं है। यही कारण है कि सरकार मनमर्जी के फैसले लेती है और विपक्ष के विरोधी स्वरों को अनसुना कर देती है कितने ही बिल पारित हो गए, जिन पर सरकार ने बहस कराने तक की आवश्यकता महसूस नहीं की। पहले विपक्ष का सम्मान सत्तापक्ष करता था और महत्वपूर्ण मामलों पर उसकी राय लेने में गुरेज नहीं करता था लेकिन आज ऐसा माहौल नहीं रहा है। कमजोर विपक्ष को कई महत्वपूर्ण निर्णय में शामिल ही नहीं किया जाता है। अचानक रात 8:00 बजे टीवी पर आकर प्रधानमंत्री नोटबंदी की घोषणा कर देते हैं, इतने बड़े फैसले में विपक्ष की सलाह लेने तक की जरूरत महसूस नहीं की गई। ऐसे तमाम उदाहरण पिछले 7 सालों की अवधि के मिल जायेंगे, जब सरकार ने विपक्ष को भाव न देकर मनमाने फैसले ले लिए। विपक्ष चिल्लाता रहा मगर उसकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह गई, बेअसर।

इसमें संदेह नहीं है कि भारतीय राजनीति में विपक्ष की ताकत खो रही है। आज लगभग वैसी ही स्थिति है जैसी 1950 और 1960 के दशक में थी, जिसका प्रभाव 1970 के दशक में लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने वाले उन फैसलों से पड़ा, जो इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री के रूप में लिए थे।

विपक्ष के कमजोर होते जाने के पीछे उसका मतदाताओं के बदलते सोच को न पहचान पाना भी है। भाजपा सरकार कहें या प्रधानमंत्री मोदी, अपनी चुनावी रणनीति से मतदाताओं को यह बताने-समझाने में सफल रहे कि वे जो कुछ कर रहे हैं, मतदाताओं के सपने पूरे करने के लिए ही कर रहे हैं। विकास ही उनका एजेंडा है।

विपक्ष मतदाताओं की नब्ज पकड़ने में असफल रहा है। विपक्ष समझ ही नहीं पा रहा कि मतदाता चाहता क्या है और उसकी चाहत को लेकर उसे किस तरह संतुष्ट किया जा सकता है। विपक्ष को लोकतंत्र को निरंकुश होने से बचाना है, तो उसे मतदाताओं की मनोभावना का सटीक आकलन करके अपनी रणनीति तैयार करनी होगी। यदि जल्दी ही विपक्ष ने स्वयं को मजबूत नहीं किया तो भारतीय लोकतंत्र तानाशाही का शिकार हो सकता है और इसके लिए दोषी विपक्ष को भी ठहराया जाएगा।

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