अयोध्या का 'नया अध्याय': राम मंदिर भारत की आत्मा का दर्पण है

अयोध्या का 'नया अध्याय': आस्था का संगीत, इतिहास का दर्पण।

अयोध्या का 'नया अध्याय': राम मंदिर भारत की आत्मा का दर्पण है
locationभारत
userचेतना मंच
calendar22 Jan 2024 06:17 PM
bookmark
Ram Mandir News : अयोध्या की पावन धरती पर, सरयू नदी के मधुर स्वर के साथ गुंजायमान श्री राम जन्मभूमि मंदिर की भव्यता आस्था का एक ऐसा महाकाव्य प्रस्तुत करती है, जिसके स्वर सदियों के इतिहास को बयां करते हैं। भगवान राम के जन्मस्थान के रूप में विख्यात, यह मंदिर केवल ईंटों और पत्थरों का समूह नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का दर्पण है, जहां इतिहास, संस्कृति और आस्था एक स्वर्णिम त्रयी में बंधे हुए हैं। राम मंदिर के भविष्य में उज्ज्वल प्रकाश नजर आता है। आध्यात्मिकता, संस्कृति और पर्यटन का केंद्र बनता अयोध्या, आधुनिक तीर्थस्थल के रूप में विकसित होगा। यह मंदिर न केवल भारत के अतीत का गौरवशाली इतिहास समेटेगा, बल्कि एक उज्ज्वल भविष्य का निर्माण भी करेगा। यहां आधुनिक सुविधाओं के साथ पारंपरिक संस्कृति का संगम होगा।

-प्रियंका सौरभ

राममय हुई अयोध्या के नाम एक और अध्याय जुड़ने जा रहा है। राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा से पहले अयोध्या की तस्वीर के साथ-साथ तकदीर भी बदल गई है। ग्लोबल इनवेस्टर्स समिट में उत्तर प्रदेश को 40 लाख करोड़ रुपये के निवेश प्रस्ताव प्राप्त हुए। इसके साथ ही, आर्थिक रूप से अयोध्या भी विकास की नई सीढ़ी चढ़ी है। उत्तर प्रदेश का पवित्र शहर अयोध्या, भगवान राम की जन्मस्थली के रूप में अत्यधिक धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व रखता है। रामायण और महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। इसी कारण अयोध्या एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल भी बन गया है।

राजा रघु की तीसरी पीढ़ी में श्री राम का जन्म हुआ

अयोध्या की प्राचीन उत्पत्ति के बारे में बात करें तो अयोध्या को पहले साकेत के नाम से जाना जाता था। इसकी एक समृद्ध विरासत है जो ईसा पूर्व पांचवीं या छठी शताब्दी की है। सरयू नदी के तट पर स्थित, अयोध्या ने तीर्थयात्रियों, इतिहासकारों और पर्यटकों को सदैव अपनी ओर आकर्षित किया है जो यहां की पौराणिक कथाओं और ऐतिहासिक जड़ों से जुड़कर उन्हें रोमांचित करती है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, अयोध्या प्राचीन कोसल साम्राज्य की राजधानी और भगवान राम का जन्मस्थान था। राजा दशरथ द्वारा शासित इस शहर को एक समृद्ध और सामंजस्यपूर्ण राज्य के रूप में वर्णित किया गया था। इक्ष्वाकु, पृथु, मांधाता, हरिश्चंद्र, सगर, भगीरथ, रघु, दिलीप, दशरथ और राम उन प्रसिद्ध शासकों में से थे जिन्होंने कौशल (कोसल) देश की राजधानी पर शासन किया था। अयोध्या की संस्कृति एवं विरासत अतीत में सूर्यवंशियों के साम्राज्य से उत्पन्न हुई है। सूर्यवंशी क्षत्रियों के वंश में राजा रघु एक तेजस्वी चरित्र थे जिनके नाम पर सूर्यवंश रघुवंश के नाम से लोकप्रिय हुआ। राजा रघु की तीसरी पीढ़ी में श्री राम का जन्म हुआ, जिनकी छवि आज भी सभी हिंदुओं के हृदय में भगवान के रूप में विद्यमान है। रामायण का काल संभवतः प्राचीन भारत के इतिहास का सबसे गौरवशाली काल था। दरअसल, इसी युग में न केवल सबसे पवित्र धर्म ग्रंथों, वेदों और अन्य पवित्र साहित्य की रचना हुई, जिन्होंने भारतीय संस्कृति और सभ्यता की नींव रखी, बल्कि यह युग कानून और सच्चाई के शासन में भी अनुकरणीय था। Ram Mandir News राज्य और समाज की प्रतिष्ठा से जुड़े मामलों में राजा अपनी प्रजा के प्रति जवाबदेह था। तथ्यों की सत्यता तीन सहस्राब्दियों से अधिक के बाद भी महाकाव्य में निहित है। भगवान राम रामायण के 'आदर्श पुरुष' थे। उनके चौदह वर्ष के वनवास ने मानव मन को उनके जीवन के अन्य अवधियों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया क्योंकि उन्होंने केवल अपने पिता के वचन का सम्मान बनाए रखने के लिए, अपनी उचित विरासत को त्यागकर जंगल में घूमना शुरू कर दिया था। इसके अलावा भारतीय इतिहास में भी अयोध्या का विशेष स्थान रहा है। अतः धार्मिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से भी अयोध्या को प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त हुआ है। अयोध्या के इसी ऐतिहासिक महत्व को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने यहां आने वाले पर्यटकों और निवासियों की सहुलियत के लिए धर्मनगरी के कायाकल्प का जिम्मा संभाला है। अयोध्या का नाम सुनते ही मन रामायण के पन्नों में खो जाता है। यही वह पवित्र भूमि है जहां भगवान राम का जन्म हुआ, उनके जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंग घटित हुए। सदियों से, अयोध्या तीर्थयात्रियों और विद्वानों की आस्था का केंद्र रहा है, जहां मंदिरों और आश्रमों से ज्ञान और आध्यात्मिकता का प्रकाश बिखरता है। मुगल काल का एक अध्याय अयोध्या के इतिहास में खून के धब्बे छोड़ गया। राम जन्मभूमि पर मस्जिद का निर्माण, विवादों का बीज बो गया। 1992 में हुए तनावपूर्ण घटनाक्रमों के बाद, यह विवाद सुप्रीम कोर्ट की चौखट तक पहुंचा। Ram Mandir News 2019 में आया ऐतिहासिक फैसला, जिसने न्याय की तराजू को सीधा कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने विवादित भूमि को राम जन्मभूमि न्यास को सौंपने का आदेश दिया, तभी मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ। राम मंदिर, केवल हिंदुओं की आस्था का ही केंद्र नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है। भगवान राम, आदर्शों और नैतिकता के मूर्तिमंत स्वरूप हैं, जिनके गुण भारतीय संस्कृति की जीवनदायिनी नदियों की तरह पूरे देश में बहते हैं। लाखों श्रद्धालुओं के लिए राम मंदिर, जीवन, धर्म, कर्म और सत्य के सरोवर में डूबकर पवित्र होने का साधन है। यहां आकर वे राम के आदर्शों को जीते हैं, उनके गुणों को आत्मसात करते हैं और जीवन की वास्तविकताओं का सामना करने का बल पाते हैं। भव्य राम मंदिर का निर्माण, इतिहास का पुनर्लेखन है। यह केवल मंदिर नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनरुत्थान और राष्ट्रीय एकता का स्वर्णिम अध्याय है। मंदिर निर्माण से रोजगार के अवसर तो मिलेंगे ही, साथ ही अयोध्या एक वैश्विक तीर्थस्थल के रूप में भी स्थापित होगा। यह मंदिर, सामाजिक सद्भावना और धार्मिक सहिष्णुता का प्रेरक मंत्र भी है। यह दिखाएगा कि शांतिपूर्ण तरीके से विवादों को सुलझाया जा सकता है, और विभिन्न समुदाय मिलकर राष्ट्र निर्माण में योगदान दे सकते हैं। यहां सभी धर्मों के लोग शांति से आ सकते हैं, प्रार्थना कर सकते हैं और आध्यात्मिक ऊर्जा का अनुभव कर सकते हैं। राम मंदिर के भविष्य में उज्ज्वल प्रकाश नजर आता है। आध्यात्मिकता, संस्कृति और पर्यटन का केंद्र बनता अयोध्या, आधुनिक तीर्थस्थल के रूप में विकसित होगा। यह मंदिर न केवल भारत के अतीत का गौरवशाली इतिहास समेटेगा, बल्कि एक उज्ज्वल भविष्य का निर्माण भी करेगा। यहां आधुनिक सुविधाओं के साथ पारंपरिक संस्कृति का संगम होगा।Ram Mandir News   नोट : इस लेख में व्यक्त विचार लेखिका के अपने विचार हैं ।

Ram Mandir Pran Pratishtha : प्राण प्रतिष्ठा के मुख्य यमजान PM मोदी पहुंचे अयोध्या

ग्रेटर नोएडा - नोएडा की खबरों से अपडेट रहने के लिए चेतना मंच से जुड़े रहें। देश-दुनिया की लेटेस्ट खबरों से अपडेट रहने के लिए हमें  फेसबुकपर लाइक करें या  ट्विटरपर फॉलो करें।
अगली खबर पढ़ें

109 साल पहले लिखी प्रेम कथा,आज भी उतर जाती है रूह में,कहानी पर बनी थी ये फिल्म

Kahani
Hindi Kahani
locationभारत
userचेतना मंच
calendar16 Jan 2024 07:38 PM
bookmark
Hindi Kahani : चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी हिन्दी कहानी "उसने कहा था"  आज से लगभग 109 साल पहले 1915 में लिखी गई थी । ये कहानी विश्व की सर्वश्रेष्ठ प्रेम कहानियों में से एक है । इस कहानी पर 1960 में मोनी भट्टाचार्य ने इसी नाम से फिल्म भी निर्देशित की थी ,जिसमें  मुख्य कलाकार थे सुनील दत्त और नंदा।   उसने कहा था (चंद्रधर शर्मा गुलेरी) बडे-बडे शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोडों से जिनकी पीठ छील गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर वालों की बोली का मरहम लगाएँ। जब बडे-बडे शहरों की चौडी सडकों पर घोडे की पीठ में चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोडे की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगलियों के पोरे को चींघकर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार भर की ग्लानि-निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुन्द्र उमड़ा कर 'बचो खालसाजी' हठों भाईजी' 'ठहरना भाई जी’ 'आने दो लाला जी' ‘हठों बाछा’ कहते हुए सफेद, खच्चरों और बत्तकों, गन्ने और खोमचे और भारेवालों के जगंल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि 'जी' और 'साहब' बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं, पर मीठी छुरी की तरह मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चीतौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती तो उनकी बचनवाली के ये नमूने हैं- हट जा जीणे हट जा, पुत्तां प्यारिए, बच जा लम्बी वालिए,’ समष्टि में इसका अर्थ है, “तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहियों के नीचे आना चाहती है? बच जा।” ऐसे बम्बू कार्ट वालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की दुकान पर आ मिले. उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं. वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियां। दुकानदार एक परदेशी से गुंथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ों की गड्डी गिने बिना हटता न था। ‘तेरा घर कहां है?’ ‘मगरे में, और तेरा?’ ‘मांझे में, यहां कहां रहती है?’ ‘अतरसिंह की बैठक में, वह मेरे मामा होते हैं।’ ‘मैं भी मामा के आया हूं, उनका घर गुरु बाज़ार में है।’ इतने में दुकानदार निबटा और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जाकर लड़के ने मुसकुरा कर पूछा,‘तेरी कुड़माई हो गई?’ इस पर लड़की कुछ आंखें चढ़ाकर ‘धत्’ कहकर दौड़ गई और लड़का मुंह देखता रह गया। दूसरे, तीसरे दिन सब्ज़ी वाले के यहां, या दूध वाले के यहां अकस्मात् दोनों मिल जाते। महीना भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, तेरे कुड़माई हो गई? और उत्तर में वही ‘धत्’ मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसी ही हंसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली,‘हां, हो गई।’ ‘कब?’ ‘कल, देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।’ लड़की भाग गई। लड़के ने घर की सीध ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले की दिनभर की कमाई खोई, एक कुत्ते को पत्थर मारा और गोभी वाले ठेले में दूध उंडेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अंधे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुंचा। (दो) “राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खन्दकों में बैठे हड्डियां अकड़ गईं। लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बर्फ़ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धंसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं; घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़नेवाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहां दिन में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं”। “लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिए। परसों ‘रिलीफ़’ आ जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग़ में- मखमल की सी हरी घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो, मेरे मुल्क़ को बचाने आए हो’। “चार दिन तक पलक नहीं झपकी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाए। फिर सात जर्मनों को अकेला मार कर न लौटूं तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े, संगीन देखते ही मुंह फाड़ देते हैं और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अंधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था. चार मील तक एक जर्मन नहीं छोड़ा था. पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो..” “नहीं तो सीधे बर्लिन पहुंच जाते! क्यों?’ सूबेदार हजार सिंह ने मुस्कुराकर कहा, “लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाए नहीं चलते। बड़े अफ़सर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?” “सूबेदार जी, सच है,” लहना सिंह बोला, ‘पर करें क्या? हड्डियों-हड्डियों में तो जाड़ा धंस गया है। सूर्य निकलता नहीं और खाई में दोनों तरफ़ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाए, तो गरमी आ जाये”। "उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियां लेकर खाई का पानी बाहर फेंको। महा सिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाज़े का पहरा बदल ले।’ यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे। वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गंदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला, “मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!’ इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए। लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा, “अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा। “हां, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस धुमा ज़मीन यहां मांग लूंगा और फलों के बूटे लगाऊँगा”। “लाड़ी होरा को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलानेवाली फरंगी मेम..” “चुप कर। यहां वालों को शरम नहीं।” “देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओंठों में लगाना चाहती है और मैं पीछे हटता हूं तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क़ के लिए लड़ेगा नहीं।” “अच्छा, अब बोध सिंह कैसा है?” “अच्छा है।” “जैसे मैं जानता ही न होऊं! रात-भर तुम अपने कम्बल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुज़र करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी के तख़्तों पर उसे सुलाते हो। आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न मांदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है, मौत है और 'निमोनिया' से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।” “मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूंगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाए हुए आंगन के आम के पेड़ की छाया होगी।” वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा, “क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक! हां भाइयों, कैसे?” दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए, कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए; कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए (ओय) लाणा चटाका कदुए नुं। क बणाया वे मजेदार गोरिये, हुण लाणा चटाका कदुए नुं। कौन जानता था कि दाढ़ियावाले घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे. पर सारी खन्दक इस गीत से गूंज उठी और सिपाही फिर ताज़े हो गए, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों। (तीन) दोपहर, रात गई है। अन्धेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह ख़ाली बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और लहना सिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है. एक आंख खाई के मुंह पर है और एक बोधा सिंह के दुबले शरीर पर. बोधा सिंह कराहा। “क्यों बोधा भाई, क्या है?” “पानी पिला दो” लहनासिंह ने कटोरा उसके मुंह से लगा कर पूछा, “कहो कैसे हो?” पानी पी कर बोधा बोला, “कंपनी छूट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दांत बज रहे हैं।” “अच्छा, मेरी जरसी पहन लो!” “और तुम?” “मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।” “ना, मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए..” “हां, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें, गुरु उनका भला करें।” यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा। “सच कहते हो?” “और नहीं झूठ?” यों कह कर नहीं करते बोधा को उसने ज़बरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी। आधा घण्टा बीता। इतने में खाई के मुंह से आवाज़ आई, “सूबेदार हजारा सिंह।” “कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर!” कह कर सूबेदार तन कर फ़ौजी सलाम करके सामने हुआ। “देखो, इसी समय धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से जियादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहां मोड़ है, वहां पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहां दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खन्दक छीन कर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो. हम यहां रहेगा।” “जो हुक्म।” चुपचाप सब तैयार हो गए। बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उंगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें। इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुंह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा, “लो तुम भी पियो।” आँख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला, “लाओ साहब।” हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहां उड़ गए और उनकी जगह क़ैदियों से कटे बाल कहां से आ गए?” शायद साहब शराब पिए हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहना सिंह ने जांचना चाहा। लपटन साहब पांच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे। “क्यों साहब, हम लोग हिन्दुस्तान कब जाएंगे?” “लड़ाई ख़त्म होने पर. क्यों, क्या यह देश पसन्द नहीं?” “नहीं साहब, शिकार के वे मज़े यहां कहां? याद है, पारसाल नक़ली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी ज़िले में शिकार करने गए थे?” हाँ, हाँ-‘वहीं जब आप खोते पर सवार थे और, और आपका ख़ानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था? बेशक़ पाजी कहीं का। सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थी। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्ठे में निकली। ऐसे अफ़सर के साथ शिकार खेलने में मज़ा है। क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगाएंगे।” “हां, पर मैंने वह विलायत भेज दिया।” “ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फ़ुट के तो होंगे?” “हां, लहनासिंह, दो फ़ुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?” “पीता हूं साहब, दियासलाई ले आता हूं,” कह कर लहनासिंह खन्दक में घुसा। अब उसे संदेह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए। अंधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया। “कौन? वजीर सिंह?” “हां, क्यों लहना? क्या क़यामत आ गई? ज़रा तो आंख लगने दी होती?” (चार) “होश में आओ। क़यामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।” “क्या? “लपटन साहब या तो मारे गए हैं या क़ैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुंह नहीं देखा। मैंने देखा है, और बातें की हैं। सौहरा साफ़ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।” “तो अब?” “अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहां खाई पर धावा होगा उधर उन पर खुले में धावा होगा। उठो, एक काम करो. पलटन में पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे। सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आवें। खंदक की बात झूठ है। चले जाओ, खंदक के पीछे से ही निकल जाओ। पत्ता तक न खुड़के। देर मत करो।” “हुकुम तो यह है कि यहीं।” “ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम है.. जमादार लहनासिंह जो इस वक़्त यहां सबसे बड़ा अफ़सर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की ख़बर लेता हूं।” “पर यहां तो तुम आठ ही हो।” “आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।” लौटकर खाई के मुहाने पर लहना सिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खंदक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार-सा बांध दिया। तार के आगे सूत की गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ़ जाकर एक दियासलाई जलाकर गुत्थी रखने.. बिजली की तरह दोनों हाथों से उलटी बन्दूक को उठाकर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तानकर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब ‘आंख! मीन गाट्ट’ कहते हुए चित हो गए। लहनासिंह ने तीनों गोले बीनकर खंदक के बाहर फेंके और साहब को घसीटकर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफ़ाफ़े और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया। साहब की मूर्च्छा हटी। लहना सिंह हंसकर बोला,‘क्यों, लपटन साहब, मिज़ाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के ज़िले में नीलगायें होती हैं और उनके दो फ़ुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान ख़ानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं। और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ़ उर्दू कहां से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बिना 'डैम' के पांच लफ़्ज़ भी नहीं बोला करते थे।” लहनासिंह ने पतलून की जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए दोनों हाथ जेबों में डाले। लहनासिंह कहता गया, “चालाक तो बड़े हो, पर मांझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आंखें चाहिए। तीन महीने हुए एक तुर्की मौलवी मेरे गांव में आया था। औरतों को बच्चे होने का ताबीज बांटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछाकर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं. वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गए हैं। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जाएंगे तो गोहत्या बन्द कर देगे। मंडी के बनियों को बहकाता था कि डाकखाने से रुपए निकाल लो, सरकार का राज्य जाने वाला है। डाक बाबू पोल्हू राम भी डर गया था। मैंने मुल्ला की दाढ़ी मूंड़ दी थी और गांव से बाहर निकालकर कहा था कि जो मेरे गांव में अब पैर रखा तो.” साहब की जेब में से पिस्तौल चली और लहना की जांघ में गोली लगी। इधर लहना की हेनरी मार्टिन के दो फ़ायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी। धड़ाका सुनकर सब दौड़ आए। बोधा चिल्लाया, “क्या है?” लहनासिंह ने उसे तो यह कह कर सुला दिया कि, “एक हड़का कुत्ता आया था, मार दिया” और औरों से सब हाल कह दिया। बंदूकें लेकर सब तैयार हो गए। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ़ पट्टियां कसकर बांधी। घाव मांस में ही था। पट्टियों के कसने से लहू बंद हो गया। इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े. सिखों की बंदूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहां थे आठ (लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था। वह खड़ा था और बाक़ी लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाईयों के शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोड़े मिनटों में वे.. अचानक आवाज आई, “वाहे गुरुजी की फतह! वाहेगुरु दी का खालसा!” और धड़ाधड़ बंदूकों के फ़ायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौक़े पर जर्मन दो चक्कों के पाटों के बीच में आ गए। पीछे से सूबेदार हजारा सिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने से लहना सिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया। एक किलकारी और “अकाल सिक्खां दी फौज आई। वाहे गुरु जी दी फतह! वाहे गुरु जी दी खालसा! सत्त सिरी अकाल पुरुष!” और लड़ाई ख़तम हो गई। तिरसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गए. सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आर पार निकल गई. लहना सिंह की पसली में एक गोली लगी. उसने घाव को खंदक की गीली मिट्टी से पूर लिया। और बाक़ी का साफा कसकर कमर बन्द की तरह लपेट लिया। किसी को ख़बर नहीं हुई कि लहना को दूसरा घाव, भारी घाव लगा है। लड़ाई के समय चांद निकल आया था। ऐसा चांद जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियों का दिया हुआ ‘क्षयी’ नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्ट की भाषा में ‘दंतवीणो पदेशाचार्य’ कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मनभर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहना सिंह से सारा हाल सुन और काग़ज़ात पाकर उसकी तुरंत बुद्धि को सराह रहे थे और कर रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते। इस लड़ाई की आवाज़ तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलीफ़ोन कर दिया था। वहां से झटपट दो डॉक्टर और दो बीमार ढोने की गाड़ियां चलीं, जो कोई डेढ़ घंटे के अंदर-अंदर आ पहुंचीं। फ़ील्ड अस्पताल नज़दीक था। सुबह होते-होते वहां पहुंच जाएंगे, इसलिए मामूली पट्टी बांधकर एक गाड़ी में घायल लिटाए गए और दूसरी में लाशें रखी गईं। सूबेदार ने लहना सिंह की जांघ में पट्टी बंधवानी चाही। बोध सिंह ज्वर से बर्रा रहा था। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सवेरे देखा जाएगा। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा, “तुम्हें बोधा की क़सम है और सूबेदारनी जी की सौगंध है तो इस गाड़ी में न चले जाओ।” “और तुम?” “मेरे लिए वहां पहुंचकर गाड़ी भेज देना। और जर्मन मुर्दों के लिए भी तो गाड़ियां आती होगीं। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं मैं खड़ा हूं? वजीरा सिंह मेरे पास है ही।” “अच्छा, पर...” “बोधा गाड़ी पर लेट गया। भला, आप भी चढ़ आओ। सुनिए तो, सूबेदारनी होरां को चिट्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना।” “और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उन्होंने कहा था, वह मैंने कर दिया।” गाड़ियां चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा, “तूने मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी से तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?” “अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना और कह भी देना।” गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया, “वजीरा, पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।” मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ़ हो जाती है। जन्मभर की घटनाएं एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ़ होते हैं, समय की धुंध बिल्कुल उन पर से हट जाती है। लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहां आया हुआ है। दहीवाले के यहां, सब्ज़ीवाले के यहां, हर कहीं उसे आठ साल की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है कि तेरी कुड़माई हो गई? तब वह ‘धत्’ कहकर भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा, “हां, कल हो गई, देखते नहीं, यह रेशम के फूलों वाला सालू?” यह सुनते ही लहना सिंह को दुख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ? “वजीरा सिंह पानी पिला दे।” पच्चीस वर्ष बीत गए। अब लहना सिंह नंबर 77 राइफ़ल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा, न मालूम वह कभी मिली थी या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर ज़मीन के मुक़दमे की पैरवी करने वह घर गया। वहां रेजीमेंट के अफ़सर की चिट्ठी मिला। फ़ौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारा सिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधा सिंह भी लाम पर जाते हैं, लौटते हुए हमारे घर होते आना। साथ चलेंगे। सूबेदार का घर रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहां पहुंचा। जब चलने लगे तब सूबेदार बेडे़ में निकल कर आया। बोला, “लहना सिंह, सूबेदारनी तुमको जानती है। बुलाती है। जा मिल आ। ” लहनासिंह भीतर पहुंचा। ‘सूबेदारनी मुझे जानती है? कब से? रेजीमेंट के क्वॉर्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। ” दरवाज़े पर जाकर ‘मत्था टेकना’ कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप‍। “मुझे पहचाना?” “नहीं।” “तेरी कुड़माई हो गई? .. धत् .. कल हो गई ...देखते नहीं, रेशमी बूटों वाला सालू-अमृतसर में!” भावों की टकराहट से मूर्च्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला। “वजीरा सिंह, पानी पिला,” उसने कहा था। स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है, “मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूं। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का ख़िताब दिया है, लायलपुर में ज़मीन दी है, आज नमक हलाली का मौक़ा आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पलटन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फ़ौज में भरती हुए उसे एक ही वर्ष हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नही जिया।” सूबेदारनी रोने लगी,‘अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन तांगे वाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे। आप घोड़ों की लातों पर चले गए थे। और मुझे उठाकर दुकान के तख़्त के पास खड़ा कर दिया थ। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे मैं आंचल पसारती हूं। ” रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहनासिंह भी आंसू पोंछता हुआ बाहर आया। “वजीरा सिंह, पानी पिला,” उसने कहा था। लहना का सिर अपनी गोद में रखे वजीरा सिंह बैठा है। जब मांगता है, तब पानी पिला देता है। आधे घंटे तक लहना फिर चुप रहा, फिर बोला, “कौन? कीरतसिंह?” वजीरा ने कुछ समझकर कहा, “हां।” “भइया, मुझे और ऊंचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।”वजीरा ने वैसा ही किया। “हां, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस। अब के हाड़ में यह आम ख़ूब फलेगा। चाचा-भतीजा दोनों यहीं बैठकर आम खाना. जितना बड़ा तेरा भतीजा है उतना ही बड़ा यह आम, जिस महीने उसका जन्म हुआ था उसी महीने मैंने इसे लगाया था।” वजीरासिंह के आंसू टप-टप टपक रहे थे। कुछ दिन पीछे लोगों ने अख़बारों में पढ़ा...फ्रांस और बेल्जियम, 67वीं सूची, मैदान में घावों से मरा, नंबर 77 , सिख राइफ़ल्स जमादार लहना सिंह।Hindi Kahani

बीपीएससी 68वीं का रिजल्ट जारी, प्रियांगी मेहता बनी टॉपर, देखें टॉप 10 की लिस्ट

ग्रेटर नोएडा - नोएडा की खबरों से अपडेट रहने के लिए चेतना मंच से जुड़े रहें। देश-दुनिया की लेटेस्ट खबरों से अपडेट रहने के लिए हमें  फेसबुकपर लाइक करें या  ट्विटरपर फॉलो करें।
अगली खबर पढ़ें

आए रामलला निज धाम

आए रामलला निज धाम
locationभारत
userचेतना मंच
calendar10 Jan 2024 01:51 PM
bookmark

Ramlala in Ayodhya

दीप जले मन मंदिर चहकें तीन लोक आलोकित दहकें पुष्प गंध से से तन मन महके हर घट-घट में गूंजे नाम आए रामलला निज धाम

धन्य धन्य यह नगरी अयोध्या धन्य राम मंदिर के योद्धा धन्य धन्य प्रभु सौ-सौ वंदन तुमको अर्पित तुलसी चंदन अविरल नयन नीर से सिंचित तुम्हे पुकारें हम निष्काम आए राम लला निज धाम

अब तक थे कुटिया में ऐसे प्रभु हो इक वनवासी जैसे मिला आज नयनों को यह पल अगणित वर्षों का अर्जित फल शंखनाद है यह नवयुग का बोल रहा जग जय श्रीराम आए रामलला निज धाम

शबरी के मेहमान राम है हनुमत के भगवान राम हैं कौशल्या के प्राण राम हैं रघुनन्दन गुणग्राम राम हैं तुलसी की चौपाई में हैं प्रनतपाल रघुनायक राम आए रामलला निज धाम

पुण्य पर्व अभिनव प्रकाश है सदियों की बुझ रही प्यास है दिव्य अयोध्या धन्य भरत भू राम भजन हर श्वास श्वास है मर्यादा की शिखर शिला पर हुए विराजित प्रभु श्री राम आए राम लला निज धाम

डॉ. अरुण मित्तल

आज का समाचार 10 जनवरी 2024 : ग्रेटर नोएडा से दिल्ली के लिए सीधी मेट्रो सेवा

ग्रेटर नोएडा - नोएडा की खबरों से अपडेट रहने के लिए चेतना मंच से जुड़े रहें। देश-दुनिया की लेटेस्ट खबरों से अपडेट रहने के लिए हमें  फेसबुकपर लाइक करें या  ट्विटरपर फॉलो करें।