Sanskrit : दा नो अग्ने धिया रयिं सुवीरं स्वपत्यं सहस्य प्रशस्तम्।
न यं यावा तरति यातुमावान्॥ ऋग्वेद ७-१-५॥
Hindi: हे अग्रणी प्रभु! हमें हमारी बुद्धिपूर्वक किए गए कर्मों का सत्य धन प्रदान कीजिए। हमारे शत्रुओं- काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि को पराजित करने वाला धन प्रदान कीजिए। हमें ऐसा धन दीजिए जो वीरता प्रदान करें। "हमें उत्तम संतान उत्पन्न करने वाला धन प्रदान कीजिए" | हमें ऐसा धन दीजिए जिसे शत्रु भी बाधित ना कर सके। (ऋग्वेद ७-१-५)
English : O foremost lord! Grant us the true wealth of our wise deeds. Give us money that defeats our enemies- lust, anger, greed, attachment, etc. Give us such wealth, which gives us valour. Give us the wealth that gets us noble progeny. Give us such wealth which cannot be violated by our enemies. (Rig Veda 7-1-5)
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भारत
चेतना मंच
18 Apr 2022 03:45 PM
Sanskrit : दा नो अग्ने धिया रयिं सुवीरं स्वपत्यं सहस्य प्रशस्तम्।
न यं यावा तरति यातुमावान्॥ ऋग्वेद ७-१-५॥
Hindi: हे अग्रणी प्रभु! हमें हमारी बुद्धिपूर्वक किए गए कर्मों का सत्य धन प्रदान कीजिए। हमारे शत्रुओं- काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि को पराजित करने वाला धन प्रदान कीजिए। हमें ऐसा धन दीजिए जो वीरता प्रदान करें। "हमें उत्तम संतान उत्पन्न करने वाला धन प्रदान कीजिए" | हमें ऐसा धन दीजिए जिसे शत्रु भी बाधित ना कर सके। (ऋग्वेद ७-१-५)
English : O foremost lord! Grant us the true wealth of our wise deeds. Give us money that defeats our enemies- lust, anger, greed, attachment, etc. Give us such wealth, which gives us valour. Give us the wealth that gets us noble progeny. Give us such wealth which cannot be violated by our enemies. (Rig Veda 7-1-5)
Sanskrit : दा नो अग्ने धिया रयिं सुवीरं स्वपत्यं सहस्य प्रशस्तम्।
न यं यावा तरति यातुमावान्॥ ऋग्वेद ७-१-५॥
Hindi: हे अग्रणी प्रभु! हमें हमारी बुद्धिपूर्वक किए गए कर्मों का सत्य धन प्रदान कीजिए। हमारे शत्रुओं- काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि को पराजित करने वाला धन प्रदान कीजिए। हमें ऐसा धन दीजिए जो वीरता प्रदान करें। "हमें उत्तम संतान उत्पन्न करने वाला धन प्रदान कीजिए" | हमें ऐसा धन दीजिए जिसे शत्रु भी बाधित ना कर सके। (ऋग्वेद ७-१-५)
English : O foremost lord! Grant us the true wealth of our wise deeds. Give us money that defeats our enemies- lust, anger, greed, attachment, etc. Give us such wealth, which gives us valour. Give us the wealth that gets us noble progeny. Give us such wealth which cannot be violated by our enemies. (Rig Veda 7-1-5)
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Sanskrit : दा नो अग्ने धिया रयिं सुवीरं स्वपत्यं सहस्य प्रशस्तम्।
न यं यावा तरति यातुमावान्॥ ऋग्वेद ७-१-५॥
Hindi: हे अग्रणी प्रभु! हमें हमारी बुद्धिपूर्वक किए गए कर्मों का सत्य धन प्रदान कीजिए। हमारे शत्रुओं- काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि को पराजित करने वाला धन प्रदान कीजिए। हमें ऐसा धन दीजिए जो वीरता प्रदान करें। "हमें उत्तम संतान उत्पन्न करने वाला धन प्रदान कीजिए" | हमें ऐसा धन दीजिए जिसे शत्रु भी बाधित ना कर सके। (ऋग्वेद ७-१-५)
English : O foremost lord! Grant us the true wealth of our wise deeds. Give us money that defeats our enemies- lust, anger, greed, attachment, etc. Give us such wealth, which gives us valour. Give us the wealth that gets us noble progeny. Give us such wealth which cannot be violated by our enemies. (Rig Veda 7-1-5)
Dharm Karm: भगवान् श्रीराम भी थे हनुमान जी के ऋणी!
भारत
चेतना मंच
02 Dec 2025 02:42 AM
विनय संकोची
Dharm Karm: सदाशिव के अनुग्रह, हिरण्यगर्भ की सत्य संकल्पता, श्री हरि विष्णु की पालनी शक्ति, ब्रह्मा की समता, रुद्र की संहार शक्ति से युक्त श्रीहनुमान की प्रत्येक क्रिया हित भाव से परिपूर्ण है। श्रीहनुमान की सेवा भावना और सेवा परायणता ऐसी थी कि श्रीराम सीता, श्रीलक्ष्मण और भरत जी के साथ समस्त अवध वासी उनके ऋणी बन गए थे। इतना होने पर भी श्रीहनुमान में लेश मात्र भी अभिमान नहीं आया। वे श्रीराम के समक्ष सदैव निरहंकारिता की मूर्ति बनी रहे। श्री हनुमान के प्रत्येक क्रिया कलाप से श्रीराम का ही महत्व प्रकट होता है। वह किसी को अपना भक्त बना कर, श्रीराम का भक्त बनाते हैं।
भगवान की कथा में अनुराग होना भक्ति का एक प्रमुख लक्षण है। महाभागवत श्रीहनुमान में भक्ति का यह लक्षण आश्चर्यजनक रूप से स्पष्ट दिखाई देता है। श्रीहनुमान श्रीरामचंद्र जी को अपना जीवनाधार मानते हैं। श्रीबाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी ने भगवान श्रीराम से एक वरदान मांगा था-
यावद्रामकथा वीर चरिष्यति महीतले।तावच्छरीरे वत्स्यन्तु प्राणा मम न संशय:।।अर्थात्: जब तक जगत का मंगल करने वाली श्रीराम-कथा धरा पर प्रचलित रहे, तभी तक उनके (श्रीहनुमान) के शरीर में प्राण रहें।
इसका सीधा सा अर्थ है कि श्रीहनुमान को रामकथा की शर्त पर ही जीना स्वीकार है। बिना रामकथा के श्रीहनुमान को चिरंजीवी होना भी स्वीकार नहीं है।
बाल्मीकि रामायण में महर्षि अगस्त्य से श्रीहनुमान की प्रशंसा करते हुए भगवान श्रीराम कहते हैं - 'बाली और रावण अतुल बली थे, किंतु यह दोनों भी बल में हनुमानजी के समकक्ष नहीं थे। मैं तो स्पष्ट घोषणा करूंगा कि इन्हीं हनुमान की भुजाओं के बल से मैंने लंका विजय की, सीता को प्राप्त किया। राज्य, लक्ष्मण और मित्रों तथा बान्धवों को पाया।'
जब हनुमान जी श्रीराम के पास आते हैं और बोलते हैं तो श्रीराम लक्ष्मणजी से कहते हैं - ये (हनुमान) मधुर भाषी हैं। इनका उच्चारण शुद्ध है। इनकी बोलने की शैली बहुत उत्तम है। यह न तो अधिक शब्द बोले न कम। यह तीनों वेदों के ज्ञाता मालूम पड़ते हैं।'
श्रीहनुमान संस्कृतज्ञ और वेदपाठी थे। इनका उच्चारण एकदम शुद्ध था। व्याकरण में पारंगत थे। व्याकरण-विद्या श्रीहनुमान ने सूर्य से सीखी थी। सूर्य चलते रहते थे और हनुमान जी को शिक्षा देते रहते थे।
महर्षि वाल्मीकि ने अपनी रामायण में हनुमान जी के चार विशिष्ट गुणों का उल्लेख किया है। प्रथम - श्री हनुमान शौर्य के महासागर और अतुलितबल धाम हैं। द्वित्तीय - इनमें असीम बल के साथ अपार बुद्धि भी थी। जब औषधियों को पहचान ना सके तब पर्वत ही उखाड़ कर ले आए। यह हनुमानजी का बुद्धि वैभव ही था। तृतीय - ये वेष परिवर्तन में अत्यंत दक्ष थे। उनके इस गुण के दर्शन रामायण में अनेक स्थानों पर मिलते हैं। चतुर्थ - श्रीहनुमान बहुत ही सुंदर वक्ता हैं। श्रीराम उनकी बातों से बहुत प्रभावित होते हैं। सीता जी को श्रीरामदूत होने का विश्वास दिलाना आसान नहीं था, लेकिन हनुमानजी ने यह दुष्कर कार्य कर दिखाया।
हनुमानजी भक्त हैं किंतु उससे आगे बढ़कर वे ज्ञानी हैं। वे निर्गुण श्रीराम के ब्रह्मत्व का उपदेश रावण को उसकी सभा में देते हैं। उनका बल ज्ञान पर है, भक्ति पर नहीं। श्रीहनुमान कहते हैं - 'भक्ति बुद्धि का शोधन कर ज्ञान को दृढ़ करती है। ज्ञान प्राप्ति से विशुद्ध तत्व का अनुभव होता है।'
श्री हनुमानजी की कीर्ति और मान्यता को सबसे अधिक बढ़ाने वाले गोस्वामी तुलसीदास जी हैं। आज हनुमान जी की जो मान्यता दिखाई पड़ती है, उसके प्रधान आधार स्तंभ तुलसीदास जी ही हैं। भरत, लक्ष्मण, अंगद, जामवंत आदि सभी श्रीराम के दास्य-भाव वाले भक्त हैं, लेकिन इनमें सबसे श्रेष्ठ हैं श्रीहनुमान जी। श्रीराम के बाद यदि किसी की सर्वाधिक स्तुतियां हैं, तो वह हनुमान जी की ही हैं।
श्री हनुमान में अपने आराध्य श्रीराम से याचना भी की तो भक्ति की -
'नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी।।
श्रीराम तो हनुमान जी के ऋणी बन गए थे। यह गौरव पूरी रामकथा के पात्रों में किसी जन - स्वजन अथवा सेवक को नहीं मिला। श्रीराम हनुमान जी से कहते हैं-
सुनि कपि तोहि समान उपकारी।नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।।प्रति उपकार करौं का तोरा।सन्मुख होइ न सकत मन मोरा।।सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं।देखेऊ करि विचार मन माहीं।।
श्री हनुमान के एक - एक क्रियाकलाप से शिक्षा लेकर अपना लोक-परलोक सुधारा जा सकता है, इसमें संदेह का कोई कारण नहीं है।
महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी की श्रीहनुमान को लेकर एक विशेष इच्छा थी - 'श्री महावीर जी मन के समान वेग वाले और शक्तिशाली हैं। मेरी हार्दिक इच्छा है कि इनका दर्शन लोगों को गली - गली में हो, मोहल्ले - मोहल्ले में श्री हनुमान जी की मूर्ति स्थापित करके लोगों को दिखलाई जाएं। जगह - जगह अखाड़े हों, जहां इनकी मूर्ति स्थापित की जाएं।'
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02 Dec 2025 02:42 AM
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Dharm Karm: सदाशिव के अनुग्रह, हिरण्यगर्भ की सत्य संकल्पता, श्री हरि विष्णु की पालनी शक्ति, ब्रह्मा की समता, रुद्र की संहार शक्ति से युक्त श्रीहनुमान की प्रत्येक क्रिया हित भाव से परिपूर्ण है। श्रीहनुमान की सेवा भावना और सेवा परायणता ऐसी थी कि श्रीराम सीता, श्रीलक्ष्मण और भरत जी के साथ समस्त अवध वासी उनके ऋणी बन गए थे। इतना होने पर भी श्रीहनुमान में लेश मात्र भी अभिमान नहीं आया। वे श्रीराम के समक्ष सदैव निरहंकारिता की मूर्ति बनी रहे। श्री हनुमान के प्रत्येक क्रिया कलाप से श्रीराम का ही महत्व प्रकट होता है। वह किसी को अपना भक्त बना कर, श्रीराम का भक्त बनाते हैं।
भगवान की कथा में अनुराग होना भक्ति का एक प्रमुख लक्षण है। महाभागवत श्रीहनुमान में भक्ति का यह लक्षण आश्चर्यजनक रूप से स्पष्ट दिखाई देता है। श्रीहनुमान श्रीरामचंद्र जी को अपना जीवनाधार मानते हैं। श्रीबाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी ने भगवान श्रीराम से एक वरदान मांगा था-
यावद्रामकथा वीर चरिष्यति महीतले।तावच्छरीरे वत्स्यन्तु प्राणा मम न संशय:।।अर्थात्: जब तक जगत का मंगल करने वाली श्रीराम-कथा धरा पर प्रचलित रहे, तभी तक उनके (श्रीहनुमान) के शरीर में प्राण रहें।
इसका सीधा सा अर्थ है कि श्रीहनुमान को रामकथा की शर्त पर ही जीना स्वीकार है। बिना रामकथा के श्रीहनुमान को चिरंजीवी होना भी स्वीकार नहीं है।
बाल्मीकि रामायण में महर्षि अगस्त्य से श्रीहनुमान की प्रशंसा करते हुए भगवान श्रीराम कहते हैं - 'बाली और रावण अतुल बली थे, किंतु यह दोनों भी बल में हनुमानजी के समकक्ष नहीं थे। मैं तो स्पष्ट घोषणा करूंगा कि इन्हीं हनुमान की भुजाओं के बल से मैंने लंका विजय की, सीता को प्राप्त किया। राज्य, लक्ष्मण और मित्रों तथा बान्धवों को पाया।'
जब हनुमान जी श्रीराम के पास आते हैं और बोलते हैं तो श्रीराम लक्ष्मणजी से कहते हैं - ये (हनुमान) मधुर भाषी हैं। इनका उच्चारण शुद्ध है। इनकी बोलने की शैली बहुत उत्तम है। यह न तो अधिक शब्द बोले न कम। यह तीनों वेदों के ज्ञाता मालूम पड़ते हैं।'
श्रीहनुमान संस्कृतज्ञ और वेदपाठी थे। इनका उच्चारण एकदम शुद्ध था। व्याकरण में पारंगत थे। व्याकरण-विद्या श्रीहनुमान ने सूर्य से सीखी थी। सूर्य चलते रहते थे और हनुमान जी को शिक्षा देते रहते थे।
महर्षि वाल्मीकि ने अपनी रामायण में हनुमान जी के चार विशिष्ट गुणों का उल्लेख किया है। प्रथम - श्री हनुमान शौर्य के महासागर और अतुलितबल धाम हैं। द्वित्तीय - इनमें असीम बल के साथ अपार बुद्धि भी थी। जब औषधियों को पहचान ना सके तब पर्वत ही उखाड़ कर ले आए। यह हनुमानजी का बुद्धि वैभव ही था। तृतीय - ये वेष परिवर्तन में अत्यंत दक्ष थे। उनके इस गुण के दर्शन रामायण में अनेक स्थानों पर मिलते हैं। चतुर्थ - श्रीहनुमान बहुत ही सुंदर वक्ता हैं। श्रीराम उनकी बातों से बहुत प्रभावित होते हैं। सीता जी को श्रीरामदूत होने का विश्वास दिलाना आसान नहीं था, लेकिन हनुमानजी ने यह दुष्कर कार्य कर दिखाया।
हनुमानजी भक्त हैं किंतु उससे आगे बढ़कर वे ज्ञानी हैं। वे निर्गुण श्रीराम के ब्रह्मत्व का उपदेश रावण को उसकी सभा में देते हैं। उनका बल ज्ञान पर है, भक्ति पर नहीं। श्रीहनुमान कहते हैं - 'भक्ति बुद्धि का शोधन कर ज्ञान को दृढ़ करती है। ज्ञान प्राप्ति से विशुद्ध तत्व का अनुभव होता है।'
श्री हनुमानजी की कीर्ति और मान्यता को सबसे अधिक बढ़ाने वाले गोस्वामी तुलसीदास जी हैं। आज हनुमान जी की जो मान्यता दिखाई पड़ती है, उसके प्रधान आधार स्तंभ तुलसीदास जी ही हैं। भरत, लक्ष्मण, अंगद, जामवंत आदि सभी श्रीराम के दास्य-भाव वाले भक्त हैं, लेकिन इनमें सबसे श्रेष्ठ हैं श्रीहनुमान जी। श्रीराम के बाद यदि किसी की सर्वाधिक स्तुतियां हैं, तो वह हनुमान जी की ही हैं।
श्री हनुमान में अपने आराध्य श्रीराम से याचना भी की तो भक्ति की -
'नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी।।
श्रीराम तो हनुमान जी के ऋणी बन गए थे। यह गौरव पूरी रामकथा के पात्रों में किसी जन - स्वजन अथवा सेवक को नहीं मिला। श्रीराम हनुमान जी से कहते हैं-
सुनि कपि तोहि समान उपकारी।नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।।प्रति उपकार करौं का तोरा।सन्मुख होइ न सकत मन मोरा।।सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं।देखेऊ करि विचार मन माहीं।।
श्री हनुमान के एक - एक क्रियाकलाप से शिक्षा लेकर अपना लोक-परलोक सुधारा जा सकता है, इसमें संदेह का कोई कारण नहीं है।
महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी की श्रीहनुमान को लेकर एक विशेष इच्छा थी - 'श्री महावीर जी मन के समान वेग वाले और शक्तिशाली हैं। मेरी हार्दिक इच्छा है कि इनका दर्शन लोगों को गली - गली में हो, मोहल्ले - मोहल्ले में श्री हनुमान जी की मूर्ति स्थापित करके लोगों को दिखलाई जाएं। जगह - जगह अखाड़े हों, जहां इनकी मूर्ति स्थापित की जाएं।'