धर्म - अध्यात्म : अंतरंगता में भी अंतर तलाशते लोग!

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locationभारत
userचेतना मंच
calendar02 Dec 2025 03:04 AM
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विनय संकोची

जो 'अंतर मन' की बात नहीं सुनते वही अंतर (फर्क) की बात करते हैं। जो 'अंतर' में बसते हैं वो कितने भी अंतर पर रहें, लेकिन फिर भी हमेशा पास बने रहते हैं। अंतर करना व्यक्ति को शोभा नहीं देता है। अंतर करना अपना और परमात्मा के प्रति अपराध है। अंतर्यामी परमात्मा को अंतर करना और अंतर करने वाले कभी प्रिय नहीं होते हैं। अंतर मन में बैठा सर्वशक्तिमान भगवान हर 'अंतर' को पहचानता है, उसे धोखा देना संभव नहीं है।

संस्कृत शब्द 'अंतर' का शाब्दिक अर्थ है - भीतरी, निकट, आसन्न, आत्मीय, भीतर का भाव, आशय, मन, हृदय, बीच, अवकाश, काल, अवधि, फर्क, शेष दूरी और फासला आदि। कितने अर्थ रखने वाले की पहचान ज्यादातर फर्क और भेद के अतिरिक्त केवल मन के रूप में प्रकट होती है। अंतर के अर्थ आत्मीय पर हर कोई चर्चा नहीं करना चाहता। अर्थ यह है कि 'अंतर' के नकारात्मक पक्ष का प्रचार और प्रभाव अधिक है और सकारात्मक पक्ष का अपेक्षाकृत बहुत कम।

कितने विचित्र है लोग, जो अंतरंगता में भी अंतर तलाश लेते हैं, अंतर करते हैं। लोग रिश्तों में अंतर करते हैं। व्यवहार में अंतर करते हैं। स्नेह में अंतर करते हैं और तो और प्रेम में अंतर करते हैं। अगर इससे आगे बढ़ कर देखें तो लोग देवी-देवताओं में अंतर करते हैं, भगवान में और भाव में अंतर करते हैं और यह सब करते हैं, स्वार्थ के कारण।

बेटी और बेटे में अंतर आज आम बात है। हालांकि इस मामले में स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ है, परंतु इतना भी सुधार नहीं हुआ है कि उसे उल्लेखनीय मानकर खुश हुआ जाए। कन्या भ्रूण हत्याओं का चलन दर्शाता है कि अंतर का सिलसिला थमा नहीं है। समाज भी मानसिक रूप से इतना विकसित नहीं हुआ है कि स्त्री पुरुष के साथ व्यवहार में अंतर न करे। निर्धन और धनवान के प्रति व्यवहार में अंतर पहले भी किया जाता था, आज भी किया जाता है और संभवत आगे भी किया जाता रहेगा, क्योंकि अंतर अजर अमर अविनाशी है।

कहीं-कहीं तो माता-पिता अपनी सभी संतानों में अंतर करते देखे जाते हैं। एक को अधिक चाहते हैं और दूसरे दो अपेक्षाकृत कम। एक बेटे पर प्रेम लुटाते हैं और दूसरे को अपने व्यवहार से कुंठित कर देते हैं। एक बेटी पर मोहित होते हैं और दूसरी पर कटाक्ष करते हैं। यह अपनी दोनों आंखों के प्रति असमान व्यवहार करने जैसा है। लोग ऐसा करते हैं और बहुत से लोग उनसे प्रेरित होकर अंतर वृद्धि को बढ़ावा देते हैं। मित्रों में भी यह अंतर वाला भाव घर कर गया है। साधन संपन्न मित्र के लिए पलक पांवडे बिछाने वाला, साधनहीन सखा से मिलने से कतराता है। मित्रता के दर्पण में भी अंतर का बाल आ गया है। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि जिसे हम हृदय की गहराइयों से चाहते हैं, पसंद करते हैं वह अपने स्वार्थ में अंधे होकर हमारी भी उपेक्षा अवहेलना कर बैठते हैं। लोगों के व्यवहार में परम प्रिय के लिए भी अंतर आ जाता है।

...और यह सत्य होता इसलिए ही है कि हम अपने अंदर की बात नहीं सुनते हैं। अगर गलती से सुन भी लेते हैं, तो उसकी बात मानते नहीं हैं। यही कारण है कि हम अपनों से दूर होते चले जाते हैं। हमारे और हमारे अपनों के बीच दूरियां बढ़ती चली जाती हैं। प्रेम कम होता चला जाता है। बढ़ते अंतर का अंत कभी अच्छा नहीं होता है। जो संबंध मुश्किल से बने होते हैं, वह संबंध टूट कर बिखर जाते हैं और उसके पीछे होता है, अंतर का होना और उसका निरंतर बढ़ते जाना।

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विनय संकोची

जो 'अंतर मन' की बात नहीं सुनते वही अंतर (फर्क) की बात करते हैं। जो 'अंतर' में बसते हैं वो कितने भी अंतर पर रहें, लेकिन फिर भी हमेशा पास बने रहते हैं। अंतर करना व्यक्ति को शोभा नहीं देता है। अंतर करना अपना और परमात्मा के प्रति अपराध है। अंतर्यामी परमात्मा को अंतर करना और अंतर करने वाले कभी प्रिय नहीं होते हैं। अंतर मन में बैठा सर्वशक्तिमान भगवान हर 'अंतर' को पहचानता है, उसे धोखा देना संभव नहीं है।

संस्कृत शब्द 'अंतर' का शाब्दिक अर्थ है - भीतरी, निकट, आसन्न, आत्मीय, भीतर का भाव, आशय, मन, हृदय, बीच, अवकाश, काल, अवधि, फर्क, शेष दूरी और फासला आदि। कितने अर्थ रखने वाले की पहचान ज्यादातर फर्क और भेद के अतिरिक्त केवल मन के रूप में प्रकट होती है। अंतर के अर्थ आत्मीय पर हर कोई चर्चा नहीं करना चाहता। अर्थ यह है कि 'अंतर' के नकारात्मक पक्ष का प्रचार और प्रभाव अधिक है और सकारात्मक पक्ष का अपेक्षाकृत बहुत कम।

कितने विचित्र है लोग, जो अंतरंगता में भी अंतर तलाश लेते हैं, अंतर करते हैं। लोग रिश्तों में अंतर करते हैं। व्यवहार में अंतर करते हैं। स्नेह में अंतर करते हैं और तो और प्रेम में अंतर करते हैं। अगर इससे आगे बढ़ कर देखें तो लोग देवी-देवताओं में अंतर करते हैं, भगवान में और भाव में अंतर करते हैं और यह सब करते हैं, स्वार्थ के कारण।

बेटी और बेटे में अंतर आज आम बात है। हालांकि इस मामले में स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ है, परंतु इतना भी सुधार नहीं हुआ है कि उसे उल्लेखनीय मानकर खुश हुआ जाए। कन्या भ्रूण हत्याओं का चलन दर्शाता है कि अंतर का सिलसिला थमा नहीं है। समाज भी मानसिक रूप से इतना विकसित नहीं हुआ है कि स्त्री पुरुष के साथ व्यवहार में अंतर न करे। निर्धन और धनवान के प्रति व्यवहार में अंतर पहले भी किया जाता था, आज भी किया जाता है और संभवत आगे भी किया जाता रहेगा, क्योंकि अंतर अजर अमर अविनाशी है।

कहीं-कहीं तो माता-पिता अपनी सभी संतानों में अंतर करते देखे जाते हैं। एक को अधिक चाहते हैं और दूसरे दो अपेक्षाकृत कम। एक बेटे पर प्रेम लुटाते हैं और दूसरे को अपने व्यवहार से कुंठित कर देते हैं। एक बेटी पर मोहित होते हैं और दूसरी पर कटाक्ष करते हैं। यह अपनी दोनों आंखों के प्रति असमान व्यवहार करने जैसा है। लोग ऐसा करते हैं और बहुत से लोग उनसे प्रेरित होकर अंतर वृद्धि को बढ़ावा देते हैं। मित्रों में भी यह अंतर वाला भाव घर कर गया है। साधन संपन्न मित्र के लिए पलक पांवडे बिछाने वाला, साधनहीन सखा से मिलने से कतराता है। मित्रता के दर्पण में भी अंतर का बाल आ गया है। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि जिसे हम हृदय की गहराइयों से चाहते हैं, पसंद करते हैं वह अपने स्वार्थ में अंधे होकर हमारी भी उपेक्षा अवहेलना कर बैठते हैं। लोगों के व्यवहार में परम प्रिय के लिए भी अंतर आ जाता है।

...और यह सत्य होता इसलिए ही है कि हम अपने अंदर की बात नहीं सुनते हैं। अगर गलती से सुन भी लेते हैं, तो उसकी बात मानते नहीं हैं। यही कारण है कि हम अपनों से दूर होते चले जाते हैं। हमारे और हमारे अपनों के बीच दूरियां बढ़ती चली जाती हैं। प्रेम कम होता चला जाता है। बढ़ते अंतर का अंत कभी अच्छा नहीं होता है। जो संबंध मुश्किल से बने होते हैं, वह संबंध टूट कर बिखर जाते हैं और उसके पीछे होता है, अंतर का होना और उसका निरंतर बढ़ते जाना।

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Dharam Karma : वेद वाणी

Rigveda
locationभारत
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calendar24 Nov 2021 05:03 AM
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Sanskrit : वि यो रजांस्यमिमीत सुक्रतुर्वैश्वानरो वि दिवो रोचना कविः। परि यो विश्वा भुवनानि पप्रथेऽदब्धो गोपा अमृतस्य रक्षिता॥ ऋग्वेद ६-७-७॥

Hindi : परमेश्वर ही सभी लोकों का निर्माता है। उसी ने सभी लोकों को आकाश में फैलाया है। वह मृत लोकों का रक्षक है और मुक्त आत्मा भी उसी के रक्षण में रहती हैं। (ऋग्वेद ६-७-७) #vedgsawana

English : God is the creator of all the worlds. He has spread all the worlds in the sky. He is the protector of the mortal worlds and the liberated souls also remain under His protection. (Rig Veda 6-7-7) #vedgsawana