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सच्चे अर्थों में किसानों के मसीहा थे चौधरी चरण सिंह, जानिए कुछ अनछुए तथ्य

Chaudhary Charan Singh Life

Chaudhary Charan Singh Life

Chaudhary Charan Singh Life : भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देने की घोषणा से दुनिया भर के किसान खुश हुए हैं। चौधरी चरण सिंह सच्चे अर्थों में किसानों तथा मजदूरों के सच्चे मसीहा थे। आज चौधरी चरण सिंह को भारत के सबसे बड़े नागरिक सम्मान से नवाजे जाने पर हम आपको उनके जीवन से जुड़े कुछ मुख्य अंनछुए पहलुओं के विषय में बता रहे हैं।

कार्ल मार्क्स से प्रभावित थे चौधरी चरण सिंह

आपको बता दें कि पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह कार्ल मार्क्स से बहुत प्रभावित थे।

मार्क्स इस विचार का प्रचार करते थे कि राज्य पर जिस वर्ग का नियंत्रण है वो वर्ग हमेशा इसका इस्तेमाल अपने स्वयं के हित में करेगा। हालांकि ये विचार एक मुकम्मल सिद्धांत नहीं है तब भी इसमें बहुत बड़ी मात्रा में सच्चाई है।तार्किक रूप से, क्योंकि “लोकप्रिय सरकार के लिए यह आवश्यक है कि वो केवल ऐसे कार्यकर्ताओं को नौकरी दें जो वफादारी से उनकी इच्छा को लोगों को बताएं। इसलिए इस कृषि प्रबलता वाले प्रांत से ग्रामीण मानसिकता के अफसरों और कर्मचारियों की भर्ती बहुत बड़ी संख्या में करें (अब तक हुई भर्ती से अधिक)। विभिन्न सरकारी विभागों में अधिकतर ग्रामीण लोगों को स्टाफ के रूप में भर्ती करने से सरकारी कामकाज में कुशलता आएगी क्योंकि वे लोग ग्रामीण इलाकों और ग्रामीणों को बहुत अच्छे से जानते हैं।

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लेकिन शहरी व्यक्तियों और ग्रामीणों में चरित्र, आचरण, परवरिश और आधारभूत मूल्यों का भी अंतर है। इन सबके मद्देनजर ग्रामीणों को शहरी व्यक्तियों पर प्राथमिकता मिलेगी। वास्तव में तुलनात्मक रूप में शहरी, ग्रामीणों की अपेक्षा कुछ कमतर नजर आते हैं। इसलिए यदि ग्रामीणों को बड़े स्तर पर नौकरी दी जाए तो सरकारी विभागों की कार्यकुशलता बढ़ेगी। और उनका लहजा बदल जायगा, उनकी चरित्र की हिम्मत बढ़ेगी जो किसी और वजह से नहीं बढ़ सकती। एक किसान का बेटा, उस परिबेश के चलते जिसमें उसकी परवरिश होती है, धैर्यवान व अंदर से मजबूत होता है। स्वभाव में निडर, जल्द हार न मानने वाला और प्रशासनिक क्षमता रखने वाला होता है। जबकि एक गैर कृषक या शहर निवासी के बेटे को इन गुणों को विकसित करने या पैदा करने का अवसर नहीं मिलता। कृषि वो धंधा है जिसमें प्राकृतिक रुकावटों का प्रतिरोध कर एक किसान रोज अपने साथ धैर्य और दृढ़ता का सबक लेकर आता है, उसके अंदर साहस और सहनशीलता पैदा होली है। ये चारित्रिक गुण दूसरे पेशों के लोगों में नहीं होते। इस प्रकार एक कृषक के बेटे में अपने निर्णयों को पूरा कराने की शक्ति और मजबूती होती है जो गैर कृषकों के पास अक्सर नहीं होती। मुसीबत के समय उसके हाथों और हृदय में कंपन नहीं होगा जैसा कि शहर के एक नाजुक व्यक्ति के साथ होने की संभावना है। किसान के बेटे पर न केवल आदेश देने के लिए बल्कि उन आदेशों का ईमानदारी से व सही भावना से पालन करने के लिए भी आसानी से भरोसा कर सकते हैं क्योंकि वह शहरी वर्गों के अपने साथी अफसरों की अपेक्षा बेहद साधारण, और कम जटिल या दुनियादार और सुख-सुविधा के प्रति कम संवेदनशील होता है। वह धोखा देना या कम से कम सफलतापूर्वक धोखा देना नहीं जानेगा। पिता के रूप में (आनुवंशिकता के प्रभाव से भी कुलमिलाकर इंकार नहीं किया जा सकता) और वह स्वयं (चरण सिंह) अपने बचपन में जिनके साथ पले बढ़े थे वो कभी झूठ नहीं बोलते थे जैसे. जमीन, पौधे और जानवर। जबकि गैर कृषक और उसके बेटे को अपनी जीविका के लिए लगभग बड़े स्तर पर साथी व्यक्तियों के साथ बर्ताव करना होता है जो एक दूसरे से चालाकी से आगे बढ़ने के प्रयास में झूठ बोलते हैं, छल-कपट करते हैं। आगे एक खेतिहर का बेटा भ्रष्टाचार के प्रति शायद उतना खुला हुआ नहीं होता जितना एक शहर निवासी का होता है क्योंकि खेतिहर के बेटे का जीवन स्तर तुलनात्मक रूप से निचले स्तर का और औसत के ज्यादा समान होता है जिसके चलते उसे शहर की आरामदायक परवरिश में पलने वाले की अपेक्षा कम धन की आवश्यकता होती है। एक बहस को जीतना कठिन हो सकता है लेकिन ईमानदार आलोचना की आवाज, प्रसिद्ध अमेरिकन “बिजनेसमेन्स कमीशन ऑन एग्रीकल्चर (कृषि पर व्यवसायियों का आयोग)” की ग्रामीण लोगों पर व्यक्त निम्नलिखित राय से बंद हो जानी चाहिए। जिसमें नाम से ही पता चलता है कि एक भी किसान नहीं था –

“सामाजिक दृष्टि से ग्रामीण जीवन में क्षमताएं हैं जो कहीं और नहीं मिल सकतीं। यह शायद स्पष्ट तौर पर सिद्ध नहीं है कि ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े इंसान उनसे बेहतर गुणवत्ता के हैं जो शहरों से निकलते हैं। ये संदेह करने के कुछ कारण हैं कि ये सही है”।

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एक पहलू यह भी

चौधरी चरण सिंह के ऊपर सबसे सटीक जानकारी के साथ पुस्तक लिखने वाले अमेरिकी लेखक पॉल आर ब्रास, चौधरी चरण सिंह की जीवनी में लिखते हैं कि चौधरी चरण सिंह को कभी किसी ने उन्हें अपना आपा खोते नहीं देखा, हमेशा बो इंसान देखा जो खिलखिलाता था और धीरे से भी हंसता था। सवाल पूछने आए संवाददाताओं को चुटकुला सुनाता, तो कभी उनको चिढ़ाता था। केवल एक बार मैंने उन्हें शोक करते देखा था जब उनकी अंतिम बड़ी राजनीतिक हार हुई थी। 1980 के चुनावों में उनकी पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा था और उनकी बहुत बड़ी कट्टर दुश्मन, इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हो गई थी। चरण सिंह ने अपने राजनीतिक जीवन में धैर्य और दृढ़ताका दामन कभी नहीं छोड़ा। अपने राजनीतिक जीवन के दौरान यो सत्ता के लिए संघर्ष करते थे. जब उन्हें सत्ता मिली तो अपने विरोधियों के सामने लंबे समय तक सत्ता में रह नहीं सके। सता में रहते हुए उनके सामने कई संकट आए जिनका उन्होंने बखूनी व कठोरता से सामना किया विशेषकर उनसे जो उनकी नजरो में कानून व्यवस्था को चुनौती देते थे।

छवि पर कभी कोई धब्बा नहीं लगा

उनकी जनमानस कि या व्यक्तिगत छवि पर कभी कोई धब्बा नहीं लगा जिससे उनकी अंत्यंत व्यक्तिगत ईमानदारी का पता चलता है। केवल चालाकी दिखाने से संबंधित प्रश्न के मामले में चरण सिंष्ट गलद हो सकते थे क्योंकि उन्होंने भी कभी-कभी अपने राजनीतिक विरोधियों को धोखा दिया है। हालांकि यहां पर भी अर्थात् धोखा देने के मामले में चरण सिंह अपनी सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी इंदिरा गांधी के सामने कहीं नहीं टिकते थे। लोग उनकी सहज-सरल जीवनशैली को अच्छे से जानते थे। फिर भी ये कोई अव्यवहारिक किसान नहीं था। अपने अधिकांश राजनीतिक सहयोगियों और विरोधियों (स्वतंत्रता बाद के शुरुआती सालों में इनमें से कई अपने आप में बहुत पढ़े लिखे भी थे) के मुकाबले चरण सिंह बौद्धिक रूप से बहुत बेहतर थे। यद्यपि कृषकों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिलाने की अपनी लड़ाई चरण सिंह हार गए थे लेकिन ये तो केवल किसानों (जिनके हित उनके राजनीतिक कार्यक्रमों में सबसे आगे रहे हैं) के कल्याण और उनकी उन्नति को जीवनभर समर्थन करने की केवल शुरुआत भर थी। जिस समय उन्होंने आरक्षण के लिए ये दलील लिखी उस वक्त कृषि हर तरह से अर्थव्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण भाग था। आरक्षण के लिए अपनी दलीलों में उन्होंने लिखा कि “ये जमीन जोतने वाले ही हैं जिन पर करों की मार पड़ती है”। हालांकि आज ऐसी बात नहीं है। यद्यपि वे सरकारी खजाना भरते थे लेकिन बदले में उन्हें कुछ नहीं दिया जाता था। उन्हें (खेतिहर) शैक्षिक रूप से पिछड़ा हुआ समझा जाता है लेकिन ये स्वयं में (चरण सिंह के मुताबिक) “राज्य या समाज” की नीतियों का दुष्परिणाम था क्योंकि सारी माध्यमिक और उच्च शैक्षिक सुविधाएं केवल शहरों में ही उपलब्ध थी जहां फीस और दूसरे खर्चे इतने अधिक थे कि कृषक परिवार चाहकर भी अपने बच्चों को पढ़ा नहीं सकते थे।

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कृषकों को आरक्षण के मुद्दे पर अपने इस अंतिम प्रस्ताव में, पहले की तरह ही उन्होंने जोर देकर कहा कि इसका जाति से कोई लेना देना नहीं था। इसके अतिरिक्त उन्होंने तर्क दिया कि जाति के “दिन लद गए” हैं और इसे अब “अवश्य खत्म कर देना चाहिए”। वास्तव में, चरण सिंह ने बहस की कि उनके प्रस्ताव का इसिलए समर्थन होना चाहिए क्योंकि ये भारतीय समाज में सामाजिक भेदभाव का आधार “जन्म से उपजीविका” में बदल देगा। लेकिन उन्होंने 60 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान की मांग की जो कि उनकी अपनी पार्टी व सरकार अर्थात् 1937-1939 उ.प्र. कांग्रेस सरकार के प्रावधान से अलग था जिसने “सैद्धांतिक रूप से विभिन्न विभागों में कुछ नौकिरयां (10 में से 1) “पट्टेदारों” के बेटों के लिए आरक्षित की थी”। चरण सिंह के विचार में ये आरक्षण अत्यंत ही कम था, और इससे काम नहीं चला था (कारणों का ब्यौरा नहीं दिया) लेकिन चरण सिंह के प्रस्ताव के समान इसका विस्तार किया जाना चाहिए।

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अपने प्रस्ताव के पक्ष में पहले मार्क्स का नाम ले चुके चरण सिंह अब इस संबंध में सोवियत यूनियन का उदाहरण देने से भी नहीं हिचकिचाए, जैसा कि वो लिखते हैं कि “प्रबुद्ध वर्ग -इंजीनियरों, चिकित्सकों, कॉलेज प्रोफेसरों, स्कूल अध्यापकों (यद्यपि इनके माता-पिता सरकारी नौकरी में थे) के बच्चों को विश्वविद्यालयों में, किसानों और फैक्टरी कर्मचारियों के बच्चों का कोटा भरने के बाद ही, प्रवेश दिया जाता है। चरण सिंह ने यहां स्टालिन के समय में जमींदारों के संहार का उल्लेख नहीं किया जिसके बारे में उस वक्त ज्यादा जानकारी नहीं थी।अपने लंबे दस्तावेज क अंत में चरण सिंह ने उन तकों में से ज्यादातर का पूर्वाअनुमान भी लगाया जो किसी तरह के आरक्षण (अनुसूचित जाति के आरक्षण को छोड़कर) के खिलाफ हैं, जिन्हें बाद में अगली आधी सदी तक उनके विरोधियों द्वारा आरक्षण के मुद्दे पर बहस दर बहस सामने लाया गया, एक ऐसी बहस जो आज तक (2010) जारी है।

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