धर्म अध्यात्म: दु:खों के कारण हैं पांच विकार

Spiritual
locationभारत
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calendar22 Sep 2021 03:11 PM
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 विनय संकोची

दु:ख मानव जीवन का अभिन्न अंग हैं और पांच विकारों के कारण मनुष्य के जीवन में आते हैं। मन के पांच विकार हैं - काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार। यदि सप्रयास विकारों से मुक्ति पा ली जाए तो दु:ख मनुष्य के जीवन को छू भी नहीं सकते हैं। लेकिन इन विकारों से मुक्त होना असंभव नहीं तो बेहद कठिन अवश्य है। इन विकारों से मुक्त होने के लिए संसार से नाता तोड़ना होगा जैसा कि अनेक महान विभूतियों ने किया। परंतु आम इंसान के लिए यह संभव इसलिए नहीं है क्योंकि लोग संसार को त्यागना ही नहीं चाहते हैं। दु:ख सहते रहकर भी संसार से विमुख होने के बारे में नहीं सोचना चाहते, दु:ख सहते रहकर संसार में बने रहना लोगों को प्रिय है। इसका सबसे बड़ा कारण है संसार का चुंबकीय आकर्षण जो लोगों को अपनी ओर खींचता है और लोग बरबस ही इसकी ओर खिंचे चले जाते हैं।

आम धारणा है कि पांच विकार छोड़ने से संसार छूट जाएगा, इससे अच्छा है दु:ख सहते रहकर संसार में बने रहना। संसार छूटने का अर्थ है, संसार में बने रहकर निर्लिप्त भाव से जीवन जीना। दु:ख से मुक्ति का उपाय है लेकिन इस उपाय को कोई विरला ही अपनाता है, शेष दु:ख को नियति मानकर जीवन भर कष्ट उठाते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार सारे दु:खों का कारण हैं। पहले काम की बात करते हैं, काम का अर्थ है कामना मनुष्य आए दिन तरह-तरह की कामना करता है - धन, सफलता, मकान, रोजगार, सम्मान, प्रशंसा आदि पाने की कामना। इन कामनाओं की पूर्ति न होने पर दु:ख का अनुभव होता है। यदि कामनाओं पर अंकुश लगा दिया जाए, यदि कामना और वासना में पर्याप्त संतुलन बना लिया जाए तो तमाम दु:खों से बचा जा सकता है।

जब कामनाओं की पूर्ति नहीं होती है तो क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध मनुष्य के बुद्धि विवेक को हर लेता है। यही कारण है कि क्रोध के क्षणों में जो भी निर्णय मनुष्य लेता है, जो भी कर्म करता है, अधिकतर अनुचित होते हैं और भविष्य में दु:ख का कारण बनते हैं। अन्याय के विरुद्ध क्रोध अनुचित नहीं है लेकिन बात बात पर, हर बात पर क्रोध करना दु:ख के बीज ही होता है।

लोभ का अर्थ है - आवश्यकता से अधिक पाने की लालसा, लालच करना। लालच से तमाम तरह की बुराइयों का जन्म होता है और यही बुराइयां दु:खों का कारण बन जाती हैं। लोभ को तिलांजलि देकर संतुष्ट और संतोषी जीवन जीने का सार्थक प्रयास दु:ख से बचाव का श्रेष्ठ उपाय है।

मोह के कारण दु:ख तब महसूस होता है जब कोई प्रिय व्यक्ति अथवा वस्तु हमसे दूर चली जाती है। किसी अपने की मृत्यु का दु:ख, किसी प्रिय की जुदाई का दु:ख धन संपत्ति अथवा मान-सम्मान की हानि का दु:ख मोह के कारण ही पैदा होता है। अहंकार का अर्थ है स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ और बुद्धिमान समझना। यह केवल एक भ्रम होता है और बहुधा टूट जाता है और जब यह भ्रम टूटता है तो अहंकार घायल होता है, तब व्यक्ति दु:खी होता है। यदि इन पांच विकारों पर नियंत्रण पा लिया जाए तो जीवन तमाम तरह के दु:खों से मुक्त हो सकता है और यह असंभव बिल्कुल भी नहीं है।

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Religious News : श्राद्ध का वास्तविक स्वरूप

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विष्णुमित्र वेदार्थी

श्रद्धावान् मनुष्य जानना चाहता है कि श्राद्ध किसे कहते हैं। इस जिज्ञासा पर शास्त्र के अनुसार विचार किया जाता है - श्रत्सत्यं दधाति यया क्रियया सा श्रद्धा श्रद्धया यत्कर्म क्रियते तच्छ्राद्धम् सत्य को श्रत् कहते हैं, उस श्रत् को जिस क्रिया से ग्रहण किया जाता है उस सत्य क्रिया का नाम श्रद्धा है । इस श्रद्धा की भावना से जो कर्म किया जाता है उस पवित्र कर्म का नाम श्राद्ध है । यह श्राद्ध कर्म विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता है। जब यह श्राद्ध पूजनीयगण पितर के प्रति करते हैं तब उसमें जन्मदाता माता पितादि ही हमारे श्रद्धेय नहीं होते अपितु अपनी-अपनी विशेषताओं से अन्य जीवित महापुरुषों को भी शास्त्रों में सोमसद, अग्निष्वात्त, बर्हिषद, सोमपा, हविर्भुज, आज्यपा, सुकालिन्, न्यायकारी, पिता, पितामह, माता, प्रपितामही आदि नामों से पुकारा गया है।

हम मनुष्यों के पांच नित्य कर्त्तव्य कर्मों में से एक कर्म पितृयज्ञ भी है। इस पितृयज्ञ के दो भाग होते हैं एक श्राद्ध व दूसरा तर्पण। जिस-जिस कर्म से तृप्त करते हैं उस-उस कर्म को तर्पण कहते हैं; अतः तृप्यन्ति तर्पयन्ति येन पितृन् तत्तर्पणम् जिस-जिस कर्म से माता पितादि पितर प्रसन्न हों उनको करना तर्पण है । ये श्राद्ध व तर्पण कर्म जीवितों के लिये विहित हैं मृतकों के लिये नहीं । श्रद्धा से जीवित माता पितादि का उत्तम अन्न, वस्त्र, सुन्दर यान आदि पदार्थों को देकर जिस-जिस कर्म से उनका आत्मा तृप्त और शरीर स्वस्थ रहे उस-उस कर्म से प्रीतिपूर्वक सेवा करनी श्राद्ध और तर्पण कहलाता है । इसके विपरीत जो पोप जी के बहकाने में आकर वर्ष के एक आश्विन मास में मृतक पूर्वजों के श्राद्ध के नाम पर पोप जी व कौओं आदि को भोजन खिलाया जाता है व दान किया जाता है वह सर्वथा अनुचित व अशास्त्रीय है। देखो - पितर नाम मृतकों का नहीं होता अपितु जीवितों का है । जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि में ही आहुति लगती है बुझने पर नहीं उसी प्रकार जीवितों को ही श्राद्ध तर्पण रूप हमारी सेवायें प्राप्त हो सकतीं हैं मृतकों को नहीं । तनिक बुद्धि का उपयोग कर विचार करें कि तथाकथित श्राद्धों में किसी अन्य मनुष्य को खिलाया हुआ मृतकों को कैसे पहुँच सकता है ? श्राद्ध करने वाले मनुष्य के पूर्वज पितर ने अब किस योनि में जन्म पाया है इसके जाने विना उन्हें वहां भोजन कैसे पहुंचाया जा सकता है ? यदि इस प्रकार ही भोजन पहुंचने लगे तो यात्रा पर जाते समय यात्री के लिये भोजन की व्यवस्था ही क्यों की जाये, तब तो पोप जी को खिलाने से ही यात्री का पेट भर जाया करे । अतः सत्य सनातन वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार के लिये अन्धविश्वासों से बचो और सत्य को धारण करो । यदि कोई यह कहे कि अजी! इसी बहाने काक आदि पक्षियों व ब्राह्मणों को भोजन करा दिया जाता है तो उन बन्धुओं को समझाओ कि इन गलत बहानों से सच्चा ब्राह्मण तुम्हारा भोजन कभी ग्रहण नहीं कर सकता क्योंकि अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि करना उसका कर्त्तव्य होता है। इस कर्त्तव्य से बन्धा हुआ वह ब्राह्मण धर्म विरुद्ध परम्पराओं को बढ़ाने में कभी सहयोगी नहीं बनता। इसलिये यदि भोजन कराना है तो अवश्य कराइये और वर्ष के एक महीने के कुछ ही दिनों के भीतर नहीं अपितु प्रतिदिन कराइये । किन्तु यह भोजन अन्धविश्वास से पृथक् होकर वैदिक नित्य कर्त्तव्य के बहाने से बलिवैश्वदेव यज्ञ व अतिथि यज्ञ के रूप में होना चाहिये । भोजन बनाकर खाने से पहले परमात्मा की प्रजा पशु पक्षी आदि प्राणियों को खिलाना बलिवैश्वदेव यज्ञ है और धार्मिक व विद्वान् महापुरुषों को खिलाना व उनसे सदुपदेश ग्रहण करना अतिथि यज्ञ है; इन्हें करने से महान् पुण्य परमात्मा का प्रसाद प्राप्त होता है यह सुनिश्चित जानो और अन्यथा करने से अन्धविश्वास बढ़कर अन्धपरम्परायें चलने से बहुत बड़ी हानि होती है। अतः पोप जी के ऐसे पाखण्डों से बच कर प्रतिदिन जीवित पितरों की सेवा करते हुए ऋषियों के द्वारा निर्दिष्ट पितृयज्ञ करना चाहिये। यही वैदिक धर्म का वास्तविक श्राद्ध है।।

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श्रद्धावान् मनुष्य जानना चाहता है कि श्राद्ध किसे कहते हैं। इस जिज्ञासा पर शास्त्र के अनुसार विचार किया जाता है - श्रत्सत्यं दधाति यया क्रियया सा श्रद्धा श्रद्धया यत्कर्म क्रियते तच्छ्राद्धम् सत्य को श्रत् कहते हैं, उस श्रत् को जिस क्रिया से ग्रहण किया जाता है उस सत्य क्रिया का नाम श्रद्धा है । इस श्रद्धा की भावना से जो कर्म किया जाता है उस पवित्र कर्म का नाम श्राद्ध है । यह श्राद्ध कर्म विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता है। जब यह श्राद्ध पूजनीयगण पितर के प्रति करते हैं तब उसमें जन्मदाता माता पितादि ही हमारे श्रद्धेय नहीं होते अपितु अपनी-अपनी विशेषताओं से अन्य जीवित महापुरुषों को भी शास्त्रों में सोमसद, अग्निष्वात्त, बर्हिषद, सोमपा, हविर्भुज, आज्यपा, सुकालिन्, न्यायकारी, पिता, पितामह, माता, प्रपितामही आदि नामों से पुकारा गया है।

हम मनुष्यों के पांच नित्य कर्त्तव्य कर्मों में से एक कर्म पितृयज्ञ भी है। इस पितृयज्ञ के दो भाग होते हैं एक श्राद्ध व दूसरा तर्पण। जिस-जिस कर्म से तृप्त करते हैं उस-उस कर्म को तर्पण कहते हैं; अतः तृप्यन्ति तर्पयन्ति येन पितृन् तत्तर्पणम् जिस-जिस कर्म से माता पितादि पितर प्रसन्न हों उनको करना तर्पण है । ये श्राद्ध व तर्पण कर्म जीवितों के लिये विहित हैं मृतकों के लिये नहीं । श्रद्धा से जीवित माता पितादि का उत्तम अन्न, वस्त्र, सुन्दर यान आदि पदार्थों को देकर जिस-जिस कर्म से उनका आत्मा तृप्त और शरीर स्वस्थ रहे उस-उस कर्म से प्रीतिपूर्वक सेवा करनी श्राद्ध और तर्पण कहलाता है । इसके विपरीत जो पोप जी के बहकाने में आकर वर्ष के एक आश्विन मास में मृतक पूर्वजों के श्राद्ध के नाम पर पोप जी व कौओं आदि को भोजन खिलाया जाता है व दान किया जाता है वह सर्वथा अनुचित व अशास्त्रीय है। देखो - पितर नाम मृतकों का नहीं होता अपितु जीवितों का है । जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि में ही आहुति लगती है बुझने पर नहीं उसी प्रकार जीवितों को ही श्राद्ध तर्पण रूप हमारी सेवायें प्राप्त हो सकतीं हैं मृतकों को नहीं । तनिक बुद्धि का उपयोग कर विचार करें कि तथाकथित श्राद्धों में किसी अन्य मनुष्य को खिलाया हुआ मृतकों को कैसे पहुँच सकता है ? श्राद्ध करने वाले मनुष्य के पूर्वज पितर ने अब किस योनि में जन्म पाया है इसके जाने विना उन्हें वहां भोजन कैसे पहुंचाया जा सकता है ? यदि इस प्रकार ही भोजन पहुंचने लगे तो यात्रा पर जाते समय यात्री के लिये भोजन की व्यवस्था ही क्यों की जाये, तब तो पोप जी को खिलाने से ही यात्री का पेट भर जाया करे । अतः सत्य सनातन वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार के लिये अन्धविश्वासों से बचो और सत्य को धारण करो । यदि कोई यह कहे कि अजी! इसी बहाने काक आदि पक्षियों व ब्राह्मणों को भोजन करा दिया जाता है तो उन बन्धुओं को समझाओ कि इन गलत बहानों से सच्चा ब्राह्मण तुम्हारा भोजन कभी ग्रहण नहीं कर सकता क्योंकि अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि करना उसका कर्त्तव्य होता है। इस कर्त्तव्य से बन्धा हुआ वह ब्राह्मण धर्म विरुद्ध परम्पराओं को बढ़ाने में कभी सहयोगी नहीं बनता। इसलिये यदि भोजन कराना है तो अवश्य कराइये और वर्ष के एक महीने के कुछ ही दिनों के भीतर नहीं अपितु प्रतिदिन कराइये । किन्तु यह भोजन अन्धविश्वास से पृथक् होकर वैदिक नित्य कर्त्तव्य के बहाने से बलिवैश्वदेव यज्ञ व अतिथि यज्ञ के रूप में होना चाहिये । भोजन बनाकर खाने से पहले परमात्मा की प्रजा पशु पक्षी आदि प्राणियों को खिलाना बलिवैश्वदेव यज्ञ है और धार्मिक व विद्वान् महापुरुषों को खिलाना व उनसे सदुपदेश ग्रहण करना अतिथि यज्ञ है; इन्हें करने से महान् पुण्य परमात्मा का प्रसाद प्राप्त होता है यह सुनिश्चित जानो और अन्यथा करने से अन्धविश्वास बढ़कर अन्धपरम्परायें चलने से बहुत बड़ी हानि होती है। अतः पोप जी के ऐसे पाखण्डों से बच कर प्रतिदिन जीवित पितरों की सेवा करते हुए ऋषियों के द्वारा निर्दिष्ट पितृयज्ञ करना चाहिये। यही वैदिक धर्म का वास्तविक श्राद्ध है।।