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गुर्जर समाज में बढ़ रही है बेचैनी!

उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव 2022 का चुनावी समर शुरू हो चुका है। सभी राजनीतिक दल वोटर्स को लुभाने के लिए अपनी-अपनी तरह से जातीय समीकरण साधने के प्रयास में जुट गए हैं। कोई पिछड़ी जातियों को साधने में जुटा हुआ है, तो कोई मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए प्रयास करता नजर आ रहा है। कोई ब्राह्मण समाज को संतुष्ट करने पर लगा हुआ है, तो कोई अनुसूचित जातियों के बिखराव को इक_ा करने पर लग गया है। कोई किसान आंदोलन के कारण जाट समाज में फैले असंतोष को साधने में लगा है तो कोई प्रदेश में निवास करने वाली जातियों को जोडऩे के लिए सामाजिक सम्मेलनों में जुट गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी राजनीतिक दल अपने अपने तरीके से विभिन्न जातियों को साधने में जुट गए हैं। क्योंकि उत्तर प्रदेश में जातिगत राजनीति ही सत्ता पर पहुंचाने का काम करती रही है। ऐसे में सभी जातियों के नेताओं को मोर्चा बंदी पर लगा दिया गया है।
लेकिन इस सबके बीच पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कई दर्जन सीटों पर चुनावी परिणाम देने और परिणाम बदलने की क्षमता रखने वाले गुर्जर समाज में असंतोष और बेचैनी का माहौल इसलिए नजर आ रहा है क्योंकि अभी तक कोई भी दल इस समाज को अपने साथ जोडऩे के लिए लालायित नजर नहीं आ रहा है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अधिकतर सीटों पर चुनावी परिणाम बदलने की हैसियत रखने वाले इस गुर्जर समाज को राजनीति हाशिये पर पहुंचाने का जिम्मेदार कौन है? यह तो बहस का लंबा विषय है। लेकिन मेरी निजी राय के मुताबिक गुर्जर समाज के अग्रणीय लोगों अथवा राजनेताओं को इसके लिए दोषी ठहराया जा सकता हैं।  जिन्हें समाज ने किसी न किसी रूप में आगे बढ़ाने का काम किया है लेकिन उन्होंने मौका पाने के बाद भी इस समाज को संगठित करने पर फोकस नहीं किया। यहां मेरा तात्पर्य किसी को दोषारोपित करने का नहीं बल्कि गुर्जर समाज में बढ़ती राजनीतिक बेचैनी और असंतोष को बयां करना है। नि:संदेह दिल्ली और दिल्ली के आसपास के राज्यों में आर्थिक रूप से समृद्ध माने जाने वाला गुर्जर समाज राजनीतिक रूप से पूरी तरह से हाशिए पर पहुंच गया है। ऐसा भी नहीं की किसी राजनीतिक दल ने इस समाज के लोगों को आगे बढऩे का मौका न दिया हो असलियत यह है कि जिन लोगों को सत्तासीन राजनीतिक दलों ने आगे बढऩे का मौका दिया, गुर्जर समाज के प्रति उनकी सोच और मानसिकता विस्तृत नहीं रही। बल्कि देश और प्रदेश स्तर पर बदले राजनीतिक परिवेश और बदली सत्ता के साथ गुर्जर समाज के इन अग्रणीय लोगों ने भी अपनी राजनीतिक आस्थायें बदलीं, लेकिन यह आस्थायें गुर्जर समाज के हित में नहीं बल्कि निजी हित में लाभ अर्जित करने के लिए परिवर्तित की गई नजर आती हैं। शायद यह भी गुर्जर समाज के राजनीतिक हाशिए पर पहुंचने का एक कारण रहा है। क्योंकि इससे गुर्जर समाज के प्रति राजनीतिक दलों का विश्वास डगमगाया है। हालांकि अगर अन्य समाज और जातियों पर नजर डाली जाए तो उनके नेता भी अलग-अलग दलों में रहकर राजनीति कर रहे हैं। लेकिन उन सब का फोकस सामाजिक संगठन पर और अपने समाज को राजनीतिक ताकत देने का रहता है। सतपाल मलिक राज्यपाल का ताजा तरीन उदाहरण आप सबके समक्ष है।
लेकिन यह भी कटु सत्य है कि राजेश पायलट की समालखा में आयोजित रैली के बाद, राजस्थान में गुर्जर आरक्षण आंदोलन के अतिरिक्त, गुर्जर समाज अपनी ताकत और संगठन का सत्ता और सरकारों को एहसास नहीं करा पाया है। यह बात कोई नई नहीं है बल्कि हम सब जानते हैं लेकिन लाख टके की बात यह है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे”। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं इस काम को करने का बीड़ा और जिम्मेदारी केवल वह लोग उठा सकते हैं जिन्हें गुर्जर समाज ने आज तक अपनी वोट रूपी ताकत से सींचा है। जिस दिन गुर्जर समाज अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास करा देगा उस दिन सभी राजनीतिक दल इस समाज के प्रति लालायित नजर आएंगे। हालांकि गुर्जर समाज के राजनीतिक हाशिए पर आने का यह भी एक बड़ा कारण रहा है कि विभिन्न राजनीतिक दलों ने जिन लोगों को राजनीतिक ताकत देकर आगे बढ़ाने का काम किया उनमें से प्राय: अधिकतर विचार शून्य रहे हैं। इसीलिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गुर्जर समाज के लिए आगामी विधानसभा चुनाव एक बड़ी राजनीतिक चुनौती की परीक्षा है । देखना यह है कि राजनीतिक हाशिए पर पहुंची गुर्जर समाज की राजनीति को इस समाज के अग्रणीय नेता क्या दिशा और दशा देने का काम करेंगे?

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