अयोध्या। अक्षय तृतीया के पावन अवसर पर अयोध्या में एक ऐतिहासिक क्षण सामने आया, जब हनुमानगढ़ी के गद्दीनशीन महंत प्रेमदास पहली बार श्रीराम जन्मभूमि मंदिर पहुंचे और रामलला के दर्शन किए। इस घटना ने 121 वर्षों से चली आ रही परंपरा को विराम दिया और संत समाज के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा।
संतों की सहमति से टूटी सदियों से चली आ रही परंपरा
हनुमानगढ़ी की परंपरा के अनुसार, वहां का गद्दीनशीन महंत अपने जीवनभर मंदिर परिसर की 52 बीघे की सीमा से बाहर नहीं निकलता। यह परंपरा 1904 से चली आ रही थी। राम मंदिर निर्माण के बाद भी महंत प्रेमदास केवल इस मर्यादा के चलते दर्शन से वंचित थे। लेकिन हाल ही में निर्वाणी अखाड़ा के पंचों की बैठक में सर्वसम्मति से इस परंपरा को विशेष अवसर पर बदलने की सहमति दी गई।
शोभायात्रा से मंदिर तक भावनाओं का प्रवाह
बुधवार सुबह 6 बजे महंत प्रेमदास की भव्य शोभायात्रा हनुमानगढ़ी से गाजे-बाजे के साथ निकली। यात्रा सरयू तट तक गई जहां मां सरयू की पूजा और साधुओं का स्नान हुआ। फिर शोभायात्रा राम मंदिर की ओर बढ़ी। इस दौरान हजारों श्रद्धालु और नागा संन्यासी साथ थे।
रामलला के दर्शन और भाव विभोर महंत
राम मंदिर में प्रवेश कर महंत प्रेमदास रामलला के दर्शन करते ही भाव-विभोर हो गए। वहां मौजूद संतों के साथ उन्होंने रामरक्षा स्तोत्र का पाठ किया और रामलला को 56 भोग अर्पित किए गए। राम मंदिर के गर्भगृह की परिक्रमा की शुरुआत भी इसी मौके पर हुई, जिसे संतों के लिए पहली बार खोला गया।
6 किलोमीटर की यात्रा, 7 घंटे का आयोजन
हालांकि हनुमानगढ़ी से राम मंदिर की दूरी केवल 1 किलोमीटर है, लेकिन शोभायात्रा सरयू तट होते हुए कुल लगभग 6 किलोमीटर तक चली और दोपहर 1 बजे समापन हुआ। इस दौरान पूरे नगर में उत्सव जैसा माहौल रहा।
न्यायालय भी करता रहा है परंपरा का सम्मान
गद्दीनशीन महंत के 52 बीघे की सीमा न लांघने की परंपरा का पालन सिविल न्यायालय भी करता रहा है। किसी कानूनी मामले में महंत की बजाय अखाड़े के प्रतिनिधि कोर्ट में उपस्थित होते हैं, और आवश्यकता होने पर कोर्ट स्वयं हनुमानगढ़ी जाकर बयान दर्ज करता है।