ओशो की मौत साधारण नहीं बल्कि हत्या है

ओशो को लेकर सबसे बड़ी भ्रान्ति यह है कि ओशो एक sex गुरु थे। बात यहीं पर समाप्त नहीं होती। ओशो की मौत को लेकर भी एक बड़ा रहस्य मौजूद है। ओशो को जानने वाले दवा करते है कि मौत कोई साधारण मौत नहीं थी , बल्कि धीमा जहर देकर ओशो की हत्या की गई थी।

चर्चित धर्मगुरु ओशो
चर्चित धर्मगुरु ओशो
locationभारत
userअभिजीत यादव
calendar29 Dec 2025 04:54 PM
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Osho : ओशो 20 वीं शताब्दी के सबसे चर्चित धर्मगुरु रहे है। ओशो की मौत को 35 वर्ष से अधिक का समय बीत चूका है। कोई व्यक्ति अपनी मौत के 35 वर्ष बाद भी उतनी ही चर्चा में बना रहे जितनी चर्चा में वह जीवित रहते हुए हुई थी,तो इसे उस व्यक्ति का आकर्षण ही कहा जा सकता है। ओशो के भक्तों,ओशो के अनुयायी हो अथवा ओशो के विरोधी हो ओशो के आकर्षण से कोई बच नहीं पाया है। ओशो को लेकर सबसे बड़ी भ्रान्ति यह है कि ओशो एक sex गुरु थे। बात यहीं पर समाप्त नहीं होती। ओशो की मौत को लेकर भी एक बड़ा रहस्य मौजूद है। ओशो को जानने वाले दवा करते है कि मौत कोई साधारण मौत नहीं थी , बल्कि धीमा जहर देकर ओशो की हत्या की गई थी। यहाँ हम आपको ओशो के जीवन के महत्वपूर्ण पक्ष से परिचित कराने का प्रयास कर रहे है।  

ओशो चेतना की क्रांति अथवा विवादों की धुरी

ओशो भारतीय दर्शन और आधुनिक चेतना-विमर्श का ऐसा नाम हैं, जो 35 साल बाद भी उतनी ही तीखी बहस का केंद्र है जितना अपने दौर में थे। उनके समर्थक उन्हें जड़ता तोड़ने वाला निर्भीक विचारक मानते रहे, जबकि आलोचक उनकी जीवनशैली और प्रयोगों को लेकर लगातार सवाल उठाते रहे। ओशो अक्सर कहते थे कि इंसान धरती पर बस मेहमान है। ओशो के अनुसार मनुष्य पृथ्वी पर ठहरने नहीं, गुजरने के लिए आता है। लेकिन उनकी अपनी यात्रा भी उसी कथन की तरह जितनी बेपरवाह दिखती है, उतनी ही परतदार, बहसों से भरी और कई रहस्यों से घिरी रही। 11 दिसंबर 1939 को मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के कुचवाड़ा गांव में जैन परिवार में जन्मे ओशो का देहांत 19 जनवरी 1990 को पुणे में हुआ. मगर कहानी वहीं खत्म नहीं हुई। 

चंद्रमोहन जैन से ओशो तक का सफर 

आचार्य रजनीश जिन्हें दुनिया आज ओशो के नाम से पहचानती है उनके बचपन का नाम चंद्रमोहन जैन था। कहा जाता है कि शुरुआती वर्षों में उनका कुछ समय नानी के घर भी बीता और वहीं से उनके स्वभाव में वह अलग तरह की अकेली आजादी झलकने लगी, जो आगे चलकर उनकी सोच की पहचान भी बनी। समय के साथ साथ आचार्य रजनीश के नाम भी बदले और पहचान भी। 1960 के दशक में वे आचार्य रजनीश कहलाए, फिर उनके अनुयायियों ने उन्हें भगवान रजनीश के रूप में देखना शुरू कर दिया। लेकिन 1989 के आसपास दुनिया ने उन्हें सबसे अधिक ओशो नाम से जाना। ओशो शब्द को लेकर कई व्याख्याएं मिलती हैं कहीं इसे समुद्र में विलीन हो जाने जैसे अर्थ से जोड़ा जाता है, तो कहीं इसे भीतर की गहराई और विस्तार का प्रतीक माना जाता है। यही वजह रही कि उनके आश्रम, ध्यान केंद्र और संस्थान भी धीरे-धीरे इसी एक नाम ओशो के साथ पहचाने जाने लगे।

लेक्चरर से आध्यात्मिक मंच तक का सफर 

ओशो ने अपनी पेशेवर यात्रा की शुरुआत दर्शन (फिलॉसफी) के लेक्चरर के रूप में की, लेकिन जल्द ही क्लासरूम की दीवारें उनके लिए छोटी पड़ गईं। उनके प्रवचन तेज, बेबाक और सीधे चोट करने वाले थे। यही कारण था कि ओशो जितनी तेजी से लोगों के बीच चर्चित हुए, उतनी ही तेजी से विवादों के घेरे में भी आ गए। रिपोर्ट्स के मुताबिक 1970 के आसपास वे मुंबई पहुंचे और वहीं से नव-संन्यास की अवधारणा के जरिए अपने शिष्यों का एक नया संसार खड़ा किया जो परंपरा से टकराता भी था और उसे चुनौती भी देता था। फिर 1974 में पुणे के कोरेगांव पार्क में उनका ध्यान-आधारित केंद्र/आश्रम स्थापित हुआ, जिसने देखते ही देखते भारत ही नहीं, विदेशों तक से आने वाले साधकों और जिज्ञासुओं को अपनी ओर खींचना शुरू कर दिया।

लग्जरी लाइफस्टाइल पर भी हुई थी बहस

ओशो की जीवनशैली को लेकर चर्चा हमेशा तेज रही। उनके पहनावे, घड़ियों और लग्जरी पसंद को लेकर समर्थक इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता बताते थे , जबकि आलोचक इसे अध्यात्म के विरुद्ध मानते थे। कई रिपोर्ट्स में यह दावे भी सामने आते रहे कि शिष्यों से मिले उपहारों में रोल्स रॉयस जैसी कारें शामिल थीं हालांकि उनकी संख्या को लेकर अलग-अलग आंकड़े बताए जाते हैं। मगर इतना तय है कि यह प्रसंग ओशो की छवि से लंबे समय तक चिपक गया और विरोधियों के लिए उन्हें घेरने का बड़ा हथियार बनता रहा। इन्ही विवादों और टकरावों के बीच ओशो 1980 के आसपास अमेरिका पहुंचे। ओरेगॉन में उनके अनुयायियों ने विशाल इलाके में एक अनोखा कम्यून बसाया, जिसे रजनीशपुरम के नाम से जाना गया। रिपोर्ट्स के मुताबिक वहां रहने से लेकर सुरक्षा, परिवहन, रेस्टोरेंट और सार्वजनिक सुविधाओं तक एक छोटे शहर जैसी पूरी व्यवस्था खड़ी कर दी गई थी। यही वह दौर था जब ओशो के प्रयोग और बयान बार-बार सुर्खियों में आए और उनके पक्ष-विपक्ष की बहस पहले से भी ज्यादा तेज हो गई।

कैसे हुआ रजनीशपुरम का पतन?

ओरेगॉन का यह कम्यून आगे चलकर अमेरिकी प्रशासन की कड़ी निगरानी में आ गया। रजनीशपुरम से जुड़े एक बहुचर्चित बायोटेरर/फूड फ़ूड पॉइजनिंग  प्रकरण में ओशो की सेक्रेटरी आनंद शीला को सजा मिलने के बाद माहौल और सख्त हो गया। इसके बाद इमिग्रेशन समेत अन्य आरोपों के तहत ओशो की गिरफ्तारी और पूछताछ की खबरें भी सामने आती रहीं। रिपोर्ट्स के मुताबिक कुछ समय जेल में रहने के बाद परिस्थितियां ऐसी बनीं कि ओशो को अमेरिका छोड़ना पड़ा और इसी के साथ रजनीशपुरम की अलग दुनिया भी धीरे-धीरे बिखरने लगी। इसी दौर में कई मीडिया रिपोर्ट्स में यह दावा भी किया गया कि दुनिया के करीब 21 देशों ने ओशो के प्रवेश पर पाबंदी जैसी सख्ती की थी, हालांकि इन दावों के आंकड़ों और समय-सीमा को लेकर समय-समय पर बहस भी होती रही है।

रहस्यमयी क्यों कहलाती है आखिरी यात्रा?

1985 के आसपास ओशो भारत लौट आए और लौटते ही उनकी यात्रा एक बार फिर सुर्खियों सवालों और अटकलों के बीच आ खड़ी हुई। कुछ रिपोर्ट्स में नेपाल जाने-आने की चर्चाएं भी आती हैं, लेकिन कुल मिलाकर भारत वापसी के करीब पाँच साल बाद, 58 वर्ष की उम्र में पुणे में उनका निधन हो गया। यहीं से ओशो की कहानी का सबसे संवेदनशील और विवादित अध्याय शुरू होता है। एक तरफ ऐसे दावे उभरे कि अमेरिका में उन्हें थेलियम जैसे स्लो-पॉइजन दिए जाने की आशंका थी और खुद ओशो ने भी अपने भीतर जहर जैसे लक्षण महसूस होने की बात कही थी। दूसरी ओर, कुछ लोगों ने संस्था, संपत्ति और अंदरूनी खींचतान को भी शक की वजह बताया। सच क्या था यह आज भी साफ नहीं, लेकिन इतना तय है कि ओशो के जाने के बाद भी उनकी मृत्यु पर उठे सवाल उनकी चर्चा को और गहरा कर गए।

‘Who Killed Osho’ और वसीयत विवाद

वरिष्ठ पत्रकार अभय वैद्य की किताब “Who Killed Osho” का जिक्र आते ही ओशो की मृत्यु से जुड़ी बहस फिर तेज़ हो जाती है। इस किताब में मौत के हालात, इलाज की प्रक्रिया, पोस्टमॉर्टम न होने, अंतिम संस्कार जल्दी कर दिए जाने और वसीयत जैसे पहलुओं पर सवाल उठाए गए हैं । कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक ओशो की वसीयत को लेकर विवाद आगे चलकर बॉम्बे हाई कोर्ट तक पहुंचा, जहां दस्तावेज़ की प्रामाणिकता पर अलग-अलग सवाल खड़े होते रहे। परिवार की तरफ से भी इसे पूरी तरह स्वाभाविक मृत्यु मानने पर संदेह जताए जाने की चर्चाएं सामने आती रही हैं।

ओशो आज भी क्यों चर्चा में हैं?

आज सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म के दौर में ओशो के वीडियो-प्रवचन एक बार फिर बड़े पैमाने पर सुने और साझा किए जा रहे हैं। कोई उन्हें जिंदगी की दिशा बदल देने वाली बातें बताता है, तो कोई उनके विचारों को खतरनाक हद तक उलझाने वाला करार देता है। शायद यही ओशो की कहानी का सबसे बड़ा सच भी है जैसे उनके विचार किसी एक निष्कर्ष में नहीं बंधते, वैसे ही उनकी जिंदगी और उनकी मौत भी आज तक किसी फैसले पर नहीं, बल्कि एक लगातार चलती बहस के रूप में मौजूद है। Osho

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खाटू श्याम का वह इतिहास जिसे उनके भक्त नहीं जानते हैं

इसी महासमर की पृष्ठभूमि में एक ऐसा नाम उभरता है, जिसने बिना युद्ध लड़े इतिहास में अमरता पा ली उस योद्धा का नाम था बरबरीक। बरबरीक, घटोत्कच के पुत्र और भीम के पौत्र थे जिनके पास वह शक्ति थी जो युद्ध का परिणाम पलट सकती थी। उनके पास तीन बाणों की सिद्धि थी।

खाटू श्याम
खाटू श्याम
locationभारत
userआरपी रघुवंशी
calendar29 Dec 2025 03:01 PM
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Khatu Shyam : खाटू श्याम की कीर्ति और प्रसिद्धी लगातार बढ़ती जा रही है। वर्तमान में खाटू श्याम की प्रसिद्धी का आलम यह है कि भारत के कोने-कोने से ही नहीं विदेशों से भी खाटू श्याम के दर्शन करने के लिए भक्तगण राजस्थान में स्थापित भगवान खाटू श्याम के दर्शन करने के लिए हर रोज बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। खाटू श्याम की इतनी प्रसिद्धी के बावजूद खाटू श्याम का पूरा इतिहास उनके भक्तगण नहीं जानते हैं। हम यहां भगवान खाटू श्याम का पूरा इतिहास आपको बता रहे हैं।

हारे का सहारा बनने के संकल्प ने बनाया उन्हें भगवान

दरअसल खाटू श्याम का इतिहास महाभारत काल के महान योद्धा तथा पृथ्वी पर मौजूद सबसे बड़े दानवीर बर्बरीक का इतिहास है। जो हारे का सहारा बनने के संकल्प के कारण अमर हो गए हैं। बर्बरीक का इतिहास महाभारत से शुरू होता है। महाभारत का युद्ध केवल अस्त्र-शस्त्रों की टकराहट नहीं था, वह चेतना, अहंकार और समर्पण की भी परीक्षा थी। इसी महासमर की पृष्ठभूमि में एक ऐसा नाम उभरता है, जिसने बिना युद्ध लड़े इतिहास में अमरता पा ली उस योद्धा का नाम था बरबरीक। बरबरीक, घटोत्कच के पुत्र और भीम के पौत्र थे जिनके पास वह शक्ति थी जो युद्ध का परिणाम पलट सकती थी। उनके पास तीन बाणों की सिद्धि थी। एक बाण से शत्रु की पहचान, दूसरे से संहार और तीसरे से बाणों की वापसी। ऐसी शक्ति जिसके सामने बड़े-बड़े महारथी भी ठहर न पाते थे। लेकिन प्रश्न यह नहीं था कि बरबरीक कितने शक्तिशाली थे, प्रश्न यह था कि वे उस शक्ति के साथ क्या करते हैं। जब महाभारत का युद्ध आरंभ होने वाला था, तब बरबरीक केवल दर्शक बनकर कुरुक्षेत्र पहुँचे। उनका संकल्प था - जो पक्ष कमजोर होगा, वे उसी का साथ देंगे। यही संकल्प धर्म के लिए सबसे बड़ा खतरा बन सकता था। श्रीकृष्ण यह भली-भांति समझ चुके थे।

जब भगवान कृष्ण ने ली बर्बरीक की परीक्षा

एक साधारण ब्राह्मण के वेश में श्रीकृष्ण बरबरीक के पास पहुँचे और पूछा— "यदि तुम सबसे बड़ा दान दे सको, तो क्या दोगे?" यह कोई साधारण प्रश्न नहीं था। यह वीरता की नहीं, चेतना की परीक्षा थी। बरबरीक ने न कोई शर्त रखी, न कोई मोह दिखाया। शांत स्वर में बोले— "मेरा सिर।" यही वह क्षण था जब योद्धा से अधिक, एक साधक का जन्म हुआ। "वस्तुओं का त्याग आसान है, पर स्वयं का त्याग सबसे कठिन।" बरबरीक ने केवल अपना सिर नहीं दिया, उन्होंने —अपनी पहचान छोड़ी, अपनी शक्ति छोड़ी, अपने ‘मैं’ को त्याग दिया। यही कारण है कि बर्बरीक का सिर दान इतिहास का सबसे बड़ा दान माना जाता है।

भगवान ने दिया खाटू श्याम यानि बर्बरीक को साक्षी बनने का वरदान

श्रीकृष्ण ने बर्बरीक का सिर काटा नहीं, बल्कि उन्हें अमर बना दिया। र्बबरीक को वरदान मिला कि वे पूरे युद्ध को ऊपर से देखेंगे — न किसी पक्ष के, न किसी विजय के, बल्कि सत्य के साक्षी बनकर। बर्बरीक ने साक्षी बनकर अपने सिर के द्वारा महाभारत का पूरा युद्ध देखा और वें हमेशा के लिए अमर हो गए। बर्बरीक के त्याग, बलिदान, भक्ति और धर्मनिष्ठा से प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि कलियुग में वे "श्याम" नाम से पूजे जाएंगे और हर दुखी, निराश और पीडि़त व्यक्ति के सहारा बनेंगे। तभी से उन्हें "हारे का सहारा श्याम" कहा जाता है। वहीं बर्बरीक राजस्थान के सीकर जिले के खाटू गाँव में स्थापित मंदिर में खाटू श्याम के रूप में पूजे जाते हैं। ऐसा विश्वास है कि खाटू श्याम जी के दरबार में जो भी सच्चे मन से अपनी मनोकामना लेकर आता है, उसकी हर इच्छा पूरी होती है। भक्त मानते हैं कि श्याम बाबा केवल सुखी लोगों की नहीं, बल्कि उन लोगों की सुनते हैं जो कठिनाइयों और दुखों में होते हैं। वे हमेशा हार मानने वालों को नई उम्मीद और शक्ति देते हैं। इसलिए उन्हें ‘हारे का सहारा’ कहा जाता है।

खाटू श्याम के मंदिर के आस-पास सब कुछ मौजूद है

खाटू श्याम जी जाने वाले भक्तों के लिए सस्ते और आरामदायक ठहरने के कई विकल्प उपलब्ध हैं। मंदिर के आसपास कई धर्मशालाएं और आश्रम हैं जहां बहुत ही कम दामों में रुकने की सुविधा मिल जाती है। खाटू श्याम मंदिर धर्मशाला, श्री श्याम सेवा समिति धर्मशाला और अग्रवाल धर्मशाला जैसी जगहें साफ-सुथरी और सुविधाजनक हैं। इसके अलावा, खाटू बाजार और मंदिर रोड के पास छोटे होटल और लॉज भी मिल जाते हैं, जहां बजट यात्रियों के लिए बढिय़ा व्यवस्था मौजूद है। खाटू श्याम जी का मंदिर राजस्थान के सीकर जिले में स्थित है। यहां पहुंचने के लिए नजदीकी रेलवे स्टेशन रींगस जंक्शन है, जो लगभग 17 किलोमीटर दूर है। रींगस से आप टैक्सी, जीप या बस से मंदिर तक आसानी से पहुंच सकते हैं। जयपुर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा यहां से करीब 80 किलोमीटर दूर है, जहां से सीकर या रींगस तक बस या टैक्सी उपलब्ध रहती है। सडक़ मार्ग से भी खाटू श्याम आसानी से पहुंचा जा सकता है क्योंकि यह जयपुर, दिल्ली और सीकर से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। Khatu Shyam

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ओशो को Sex गुरू कहने वाले ओशो को नहीं जानते

ओशो तो वास्तव में जीवन के उस सच्चे रहस्य को उद्घाटित करते हैं जिस रहस्य को दुनिया के तमाम महापुरूष पूरी तरह से उद्घाटित नहीं कर पाए थे। ओशो ने आसान भाषा तथा अपने तर्कों के द्वारा जीवन के परम सत्य को प्राप्त करने का मार्ग बताने का बड़ा काम किया है।

ओशो
ओशो दर्शन
locationभारत
userआरपी रघुवंशी
calendar29 Dec 2025 02:15 PM
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Osho : ओशो (Osho) एक Sex गुरू थे। ओशो Sex की बात करके धर्म भ्रष्ट करने का काम करते रहे। ओशो धर्म तथा अध्यात्म में Sex को लाने वाले धर्म गुरू रहे हैं। ऐसे अनेक सवाल ओशो के ऊपर उठाए जाते हैं। क्या वास्तव में ओशो Sex गुरू थे? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमने ओशो के अनेक अनुयायियों के साथ लम्बी बातचीत की है। इस बातचीत तथा रिसर्च के दौरान हमें ओशो के जीवन पर आधारित एक प्रमाणिक वीडियो मिला है। इस वीडियो को सुनकर यह स्पष्ट होता है कि वास्तव में ओशो को Sex गुरू कहने वाले लोग दरअसल ओशो को जानते ही नहीं हैं।

क्या वास्तव में ओशो Sex गुरू थे

हाल ही में Deepcast-5 नामक यूट्यूब चैनल ने ओशो के प्रसिद्ध शिष्य समर्थ गुरू उर्फ सिद्धार्थ औलिया का एक लम्बा इंटरव्यू प्रसारित किया है। ओशो के शिष्य समर्थ गरू उर्फ सिद्धार्थ ओलिया ‘‘समर्थ गुरूधारा’’ (Samarthgurudhara) के नाम से ओशो के द्वारा दिए गए ज्ञान को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं। यूट्यूब पर प्रसारित इस वीडियो में पूरे प्रमाण तथा तथ्यों के साथ यह साबित किया गया है कि ओशो के साथ Sex गुरू का टैग जोडऩा सरासर गलत है। ओशो तो वास्तव में जीवन के उस सच्चे रहस्य को उद्घाटित करते हैं जिस रहस्य को दुनिया के तमाम महापुरूष पूरी तरह से उद्घाटित नहीं कर पाए थे। ओशो ने आसान भाषा तथा अपने तर्कों के द्वारा जीवन के परम सत्य को प्राप्त करने का मार्ग बताने का बड़ा काम किया है।

ओशो का असली नाम चंद्र मोहन जैन था

आपको बता दें कि भगवान रजनीश के नाम से चर्चित रहे ओशो का असली नाम चंद्र मोहन जैन था, ओशो 20वीं सदी के सबसे चर्चित आध्यात्मिक गुरुओं में से एक रहे हैं। उनके बारे में आज भी यह धारणा फैली हुई है कि वह “Sex Guru” थे — यानी ऐसा गुरु जिन्होंने Sex को ही आध्यात्मिकता का केंद्र माना। Samarthgurudhara ने इंटरव्यू में स्पष्ट किया कि यह धारणा गलतफहमी और घटित मिथकों पर आधारित है, न कि उनके वास्तविक विचारों पर वीडियो के अनुसार, Osho ने सेक्स को कभी सतही इच्छाओं के रूप में प्रस्तुत नहीं किया। बल्कि उन्होंने इसे मानव ऊर्जा का एक रूप बताया — जिसे समझकर और उसे नियंत्रित करके व्यक्ति गहरे ध्यान और समाधि की ओर बढ़ सकता है। उनके अनुसार, “संभोग से समाधि की ओर” (Sexual Energy से Spiritual Awareness तक) का मार्ग है, न कि केवल यौन सुख का प्रचार। उनकी यह सोच पारंपरिक धार्मिक दृष्टिकोणों से बिलकुल अलग थी, क्योंकि उन्होंने सेक्स के विषय को एक ऊर्जा रूप में देखा, न कि केवल सामाजिक या नैतिक सीमा में बांधा गए व्यवहार के रूप में। 

Osho की आध्यात्मिक शिक्षाएँ और जीवन दर्शन

Osho वास्तविकता में ध्यान (Meditation), जागरूकता (Awareness) और व्यक्ति की आंतरिक स्वतंत्रता पर जोर देते थे। वे मानते थे कि व्यक्ति की इच्छाओं को दबाने से हम वास्तविकता से पीछे हटते हैं; बल्कि उन्हें समझकर उनसे ऊपर उठना चाहिए। उनकी शिक्षाओं में ध्यान के विभिन्न रूप थे, जिनका उद्देश्य था व्यक्ति की मानसिक सीमाओं को तोड़ना और उसे असली आत्म-अनुभूति तक पहुंचाना। ओशो की मीडिया में प्रस्तुत की गई छवियाँ — खासकर उनकी बोल्ड टिप्पणियाँ और शारीरिक मानव स्वाभाव पर खुले विचारों ने वर्षों तक लोगों में यह भ्रम फैलाया कि वे व्यक्ति को मात्र यौन क्रिया तक सीमित मानते थे। इस इंटरव्यू ने इस झूठे आरोप को तोड़ते हुए बताया कि यह उनके सिखाए आध्यात्मिक संदेश का विकृत रूप है।

Osho की सच्ची पहचान को जानना जरूरी है

यूटयूब पर प्रसारित इंटरव्यू से यह स्पष्ट होता है कि: ओशो कभी केवल ‘Sex Guru’ नहीं थे; वे एक विचारक, आध्यात्मिक चिंतक और ध्यान के प्रसिद्ध गुरु थे। उनका लक्ष्य लोगों को मन की सीमाओं से परे ले जाना था न कि सिर्फ यौन विचारधारा पर ध्यान केंद्रित करना। जो लोग आज “Sex Guru” का लेबल लगाते हैं, वे ओशो के पूरे दर्शन को नहीं समझ पाए हैं। इस रिसर्च के आधार पर स्पष्ट कहा जा सकता है कि Osho जैसे व्यक्तित्व और उनकी शिक्षाएँ आज भी विवादों और विमर्शों का केंद्र बनी हुई हैं। इस इंटरव्यू ने उन मिथकों और गलत धारणाओं को चुनौती दी है, जिन पर सालों से आधारित सोच कायम थी। चेतना मंच के पाठकों के लिए यह कहानी यह याद दिलाती है कि किसी भी महान व्यक्तित्व को केवल एक पहलू से परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए — बल्कि उनके जीवन के व्यापक संदर्भ, दर्शन और सूक्ष्म विचारों को समझना महत्वपूर्ण है।

संभोग से समाधि की ओर तो बस ओशो का एक इशारा है

यूटयूब पर प्रसारित ओशो के शिष्य समर्थ गुरू उर्फ सिद्धार्थ ओलिया के इंटरव्यू में बताया गया है कि ओशो के प्रवचनों का संकलन करके 600 से भी अधिक पुस्तकें प्रका​शित की गई हैं। उन्होंने बताया कि ओशो ने 9 हजार से अधिक प्रवचन दिए हैं। संभोग से समाधि की ओर तो ओशो की छोटी सी प्रवचन माला का हिस्सा है। इंटरव्यू में समर्थ गुरू ने बताया कि काम यानि Sex की उर्जा ही जीवन का आधार है। Sex की उर्जा को अधोगामी बनाने की बजाय उधो गामी बनाकर मानव जीवन का सम्पूर्ण रूपांतरण करके परम सत्य को प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने बताया कि ओशो की संभोग से समाधि की ओर पुस्तक में इसी विषय पर पूरी बातचीत की गई है। Osho

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