UP News : उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातिगत समीकरणों का खेल एक बार फिर तेज हो गया है और इस बार केंद्र में हैं समाजवादी पार्टी (सपा) प्रमुख अखिलेश यादव। कभी दलित बनाम ठाकुर, तो कभी यादव बनाम ब्राह्मण और अब खुद को PDA वादी बताकर अखिलेश यादव सियासी संतुलन साधने की कोशिश कर रहे हैं। मगर सवाल यह है कि क्या वे जातीय राजनीति के दांवपेंच में खुद उलझते जा रहे हैं?
इटावा विवाद से ‘यादव बनाम ब्राह्मण’ का नया मोर्चा
इटावा में कथावाचक के साथ हुई बदसलूकी ने राजनीतिक रंग तब ले लिया, जब सपा ने इसे यादव बनाम ब्राह्मण के रूप में पेश करना शुरू किया। इससे सपा का कोर यादव वोट बैंक तो संतुष्ट हुआ, लेकिन दूसरी ओर ब्राह्मण समाज की नाराजगी भी बढ़ गई। यही नहीं, बीजेपी ने इसे हथियार बनाकर सपा पर ‘जातिवाद की राजनीति’ करने का आरोप जड़ दिया। अखिलेश यादव लंबे समय से PDA (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) की राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं, लेकिन उनके हालिया बयानों में वह A का मतलब कभी अल्पसंख्यक, तो कभी अगड़ा वर्ग (ब्राह्मण/ठाकुर) बताने लगते हैं। इससे यह भ्रम और दुविधा पैदा हो गई है कि अखिलेश किस वोट बैंक को साधना चाहते हैं।
राजनीतिक पोस्टर वार
अखिलेश यादव के 52वें जन्मदिन पर लखनऊ में लगाए गए पोस्टर में लिखा गया, “हम जातिवादी नहीं, PDA वादी हैं।” इस पर पलटवार करते हुए बीजेपी युवा मोर्चा के महामंत्री अमित त्रिपाठी ने पोस्टर लगवाया, जिसमें सपा प्रमुख पर आरोप लगाया गया, “दलितों से लाभ लेने वाले, ब्राह्मणों के नाम पर वोट लेने वाले, पिछड़ों को वोट बैंक समझने वाले, गुंडों और माफियाओं का साथ देने वाले अखिलेश यादव को जन्मदिन की शुभकामनाएं।”
पिछली घटनाओं से बना जातीय ग्राफ
- राणा सांगा विवाद और रामजीलाल सुमन के घर करणी सेना का हमला। इन दोनों मामलों में सपा ने दलित बनाम ठाकुर लाइन ली।
- अब इटावा केस को ‘यादव बनाम ब्राह्मण’ बनाकर कोर वोटर को साधा जा रहा है।
मगर यह रणनीति सवर्ण और नॉन-ओबीसी वोटर्स को और दूर कर सकती है, जिससे 2027 के चुनाव में मुश्किल खड़ी हो सकती है।
बीजेपी को क्यों मिल रहा है फायदा?
बीजेपी 2017 और 2022 की तरह अब भी सपा को सिर्फ मुस्लिम-यादवों की पार्टी बताकर, ब्राह्मण, ठाकुर और अन्य सवर्ण व नॉन-ओबीसी को साधने की रणनीति पर चल रही है। इस बार भी अगर अखिलेश जातीय बैलेंस साधने में असफल रहे, तो बीजेपी को राजनीतिक एडवांटेज मिलना तय माना जा रहा है। क्या अखिलेश यादव जातीय संतुलन साधने के फेर में अपने कोर वोटबेस और संभावित नए वोटर्स दोनों को खो देंगे? PDA की परिभाषा में फंसी राजनीति क्या उन्हें 2027 में फायदा देगी या नुकसान? इन सवालों के जवाब तो वक्त देगा, मगर अभी के हालात यह जरूर बताते हैं कि अखिलेश यादव की सियासत एक बड़ी दुविधा के दोराहे पर खड़ी है।
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