संस्कृत के शब्द अग्नि को पावक, अनल, आग कहा गया है। वैद्यक मत के अनुसार अग्नि के तीन भेद हैं – एक – भौमग्नि, जो लकड़ी इत्यादि के जलने से उत्पन्न होती है। दो – दिव्याग्नि, जो आकाश में विद्युत के रूप में दीख पड़ती है और तीन – जठराग्नि, जो नाभि के ऊपर और हृदय के नीचे रहकर अन्न को पचाती है। ऋग्वेद की उत्पत्ति अग्नि से मानी जाती है।
इसके अतिरिक्त भी अग्नि के कई रूप होते हैं, जिनमें क्रोधाग्नि, द्वेषाग्नि, घृणाग्नि आदि शामिल है। अग्नि का अपना एक स्वभाव होता है, जो अग्नि के संपर्क में आता है, जो अग्नि को छूता है, वह जलता है उसे ताप का सामना करना ही होता है। एक बात यह भी समझने वाली है कि अग्नि दूसरे को जलाकर प्रदीप्त होती है, जलती है, बढ़ती है। छोटी सी चिंगारी भयंकर अग्निकांड का कारण बन सकती है। लेकिन इसी के साथ ही इस सत्य को स्वीकार करना होगा कि जलती तो अग्नि भी है। अग्नि अपने ताप को स्वयं ही अवश्य महसूस करती होगी। मतलब यह है कि जलाने वाला भी जलता है, अग्नि यह संदेश भी देती है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि अग्नि का सदुपयोग किया जा सकता है। अग्नि से लाभ तो उठाया जा सकता है, लेकिन अग्नि से खेला नहीं जा सकता। अग्नि से खेलना स्वयं को जलाने का इंतजाम खुद ही करने जैसा है। अग्नि का तो स्वभाव ही जलाना है। उसका स्वभाव के बदलता नहीं। अग्नि के इसी स्वभाव को देख-जानकर कहा गया है, ‘स्वभाव हो तो अग्नि जैसा’ जो कभी बदलता नहीं। अग्नि कभी भेद नहीं करती है। जो अग्नि भोजन बनाने में का माध्यम है, वही अग्नि उग्र होने पर सब को जलाकर खाक कर देती है। अग्नि जीवित अथवा में मृत्यु भेद नहीं करती। जड़-चेतन में भेद नहीं करती उसका स्वभाव है जलाना, वह जलाती है बस।
अगर हम द्वेषाग्नि की बात करें तो वह अधिकांश रूप से उन लोगों के हृदय में पलती है, धधकती है जो स्वयं तो आगे बढ़ नहीं पाते हैं और दूसरों को की प्रगति उनसे देखी नहीं जाती है। ऐसे लोग द्वेषाग्नि में जलते हुए दूसरों को क्षति पहुंचाने का प्रयास करते हैं। इस प्रयास में वह दूसरों का कम और अपना नुकसान अधिक करते हैं, क्योंकि उनका ध्यान स्वयं आगे बढ़ने के बदले दूसरों को आगे बढ़ने से रोकने पर केंद्रित रहता है। द्वेषाग्नि में जलते लोग खुद आगे बढ़ने की कोशिश करने के बदले दूसरे को आगे बढ़ने से रोकने में अपनी ऊर्जा नष्ट करते हैं। इन्हीं कारणों से वे पिछड़ते चले जाते हैं। यह पिछड़ना उन्हें कुंठा से भर देता है।
कुंठित व्यक्ति का विवेक निद्रा में चला जाता है और विवेक के बिना कोई निर्णय लेना या सही निर्णय लेना कठिन होता है। निर्णय की स्थिति में गलत कदम उठना स्वाभाविक है और गलत कदम कभी लक्ष्य तक नहीं पहुंचते हैं। यदि व्यक्ति द्वेष करने के बदले दूसरों को आगे बढ़ता देखकर, उनसे आगे निकलने का सकारात्मक प्रयास करें तो वह कमाल कर सकता है। द्वेषाग्नि में जलना अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने और अपने प्रगति के रास्ते में स्वयं खाई खोदने जैसा है।
घृणाग्नि में जलने वाले लोग यह नहीं सोचते कि ऐसा करके वे स्वयं भी किसी या किन्हीं की घृणा का पात्र बन रहे हैं। क्रिया की प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। जो व्यक्ति किसी को घृणा के पात्र के रूप में चुनता है, उसी समय वह स्वयं भी किसी के लिए घृणित हो जाता है। घृणा से क्रोध उत्पन्न होता है और क्रोधाग्नि अनिष्ट का कारण बनती है।
क्रोधाग्नि में जलने वाले व्यक्ति भी दूसरों को कम स्वयं को ज्यादा क्षति पहुंचाते हैं। क्रोध व्यक्ति के विवेक को नष्ट कर देता है और विवेकहीन व्यक्ति न तो सही दिशा पाता है और न ही सही दशा में रहता है। क्रोध उसके व्यवहार को बदल देता है और इसी कारण कभी-कभी वह अपनों के बीच ही अवांछनीय हो जाता है। क्रोधाग्नि मनुष्य के अंतर की स्वाभाविक अच्छाइयों को जलाकर भस्म कर देती है। क्रोधाग्नि की लपटों में मनुष्य का व्यक्तित्व झुलस जाता है। आत्मा तप्त हो जाती है। क्रोध के मारे लोग ऐसे काम भी कर बैठते हैं, जो अपराध और पाप की श्रेणी में आते हैं।
व्यक्ति को क्रोध करना चाहिए। अपने अंदर पनपती बुराइयों पर क्रोध करो, समाज में व्याप्त कुरीतियों पर क्रोध करो, असमानता और विसंगतियों पर क्रोध करो, लोगों को पथभ्रष्ट करने वालों पर क्रोध करो और इतना क्रोध करो कि उसकी प्रचंड अग्नि में तमाम बुराइयों स्वाहा हो जाएं।