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Dharma & Spiritual : प्रभु और भक्त के बीच जल और मछली-सा रिश्ता हो!

 विनय संकोची

अधिकांश लोग भगवान को मानते तो हैं लेकिन उस पर विश्वास नहीं करते। हां, विश्वास करने की बात जरूर करते हैं। जो लोग भगवान को मानते भी हैं और उस पर पूरी तरह विश्वास भी करते हैं, उनसे परमात्मा कभी दूर नहीं होता है।

प्रभु से जल और मछली वाला नाता होना चाहिए। मछली जैसा प्रेम, मछली जैसी व्याकुलता होनी चाहिए, इस संदर्भ में जल तो प्रभु हैं और साधक का मन मछली के समान। एक पल भी जल से अलग नहीं होना चाहिए, जल से अलग होते की मछली जैसी तड़प मछली जैसी व्याकुलता होनी चाहिए। जैसे जल के बिना मछली नहीं रह सकती। उसी प्रकार सच्चा साधक एक क्षण भी बिना प्रभु नाम, प्रभु ध्यान के नहीं रह सकता। हर पल भगवान का ध्यान करने वाले से एक क्षण भी भूल हो जाए, तो उसे बड़ा पश्चाताप होता है और वह मामूली सी भूल के लिए भी भगवान से बारंबार क्षमा याचना करता है। दया की भीख मांगता है। सच्चा पश्चाताप होना ही विश्वास का सूचक है। जिस पर विश्वास हो जाए तो उसे भूला नहीं जा सकता है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जिसे तुम नहीं भुलाओगे, वह भी तुम्हें हमेशा याद रखेगा। जिसे तुम मन में बसाओगे, जिससे तुम प्रेम करोगे, जिसकी याद में तुम व्याकुल होवोगे, जिसे देखने की, पाने की लालसा तुम्हारे अंदर हमेशा उफनती रहेगी, वह भी तुम्हें अपने से दूर नहीं करेगा। वह भी प्रत्युत्तर में तुमसे प्रेम ही करेगा, क्योंकि प्रेम का उत्तर प्रेम है।

प्रेम का उत्तर प्रेम है यह बात समझ में आ गई, तो तुम्हारे जीवन खुशियों से भर जाएगा तुम्हारे जीवन से निराशा का भाव सदैव के लिए समाप्त हो जाएगा, तुम्हें विश्वास करना आ जाएगा। जिसे प्रेम करना आ जाता है, जो हृदय से प्रेम करता है, वह बदले में प्रेम ही पाता है। प्रेम में भी, निष्काम प्रेम का सर्वाधिक महत्व है। तुम जब परमात्मा से कुछ नहीं चाहते, बस प्रेम करते हो, तो वह तुमसे प्रेम करते हुए, तुम्हें सब कुछ दे देता है।

चिंतन और प्रेम में कोई अंतर नहीं है। चिंतन से प्रेम होता है और प्रेम में चिंतन होता है। प्रभु के प्रति चिंतन में व्याकुलता का भाव होना चाहिए, जितनी व्याकुलता चिंतन में होगी उतना ही अधिक प्रेम प्रबल होगा। परमात्मा अपने साधक की, अपने भक्तों की व्याकुलता से स्वयं भी व्याकुल होते हैं। व्याकुल भक्त भगवान को सर्वाधिक प्रिय होते हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता का वचन है-

ॐ मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।
ॐ तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।

अर्थात्- ‘वे निरंतर मेरे में मन लगाने वाले और मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन सदा ही मेरी भक्ति की चर्चा द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही संतुष्ट होते हैं। और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं। उन निरंतर मेरे ध्यान में लगे हुए और प्रेम पूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं तत्वज्ञानरूप योग देता हूं, जिससे वे मेरे को ही प्राप्त होते हैं।’

इस श्लोक का सीधा सा अर्थ यह है कि जो निरंतर प्रभु में ध्यान लगाते हैं, उन्हीं की चर्चा करते हैं और प्रेम पूर्वक परमात्मा का मनन करते हैं, वे भगवान में ही लीन हो जाते हैं, अर्थात् अंत समय में परमात्मा को पाते हैं, उसी में समा जाते हैं। इससे अच्छा क्या हो सकता है? इससे आसान उपाय परमात्मा को पाने का और क्या है? प्रेम से विश्वास बढ़ता है और विश्वास से प्रेम पनपता है, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। प्रेम परमात्मा से हो या प्राणी से सच्चा होना चाहिए, क्योंकि सच्चा प्रेम ही फलीभूत होता है। सच्चा प्रेम करके तो देखो, जीवन में आनंद आ जाएगा। जीने का मजा आ जाएगा।

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