Article : एक परिचित अपनी बेटी को डॉक्टर (Doctor) बनाने को लेकर इतने दृढ़संकल्प थे कि बेटी की इच्छा न होने के बावजूद उन्होंने पिछले साल उसे कोचिंग के लिए कोटा (Kota) भेज दिया। बमुश्किल छह माह ही वह वहां टिक पायी और जब वापस आयी तो उसका वजन घटकर 30-35 किलो रह गया होगा। डॉक्टर को दिखाया तो उसने बताया कि वह घोर मानसिक तनाव से गुजर रही थी। इसी वजह से वह लगातार कमजोर होती गयी। चार-छह महीने और कोटा में रह जाती तो उसका जीवन खतरे में पड़ सकता था। खैर! वह तो अपनी बेटी को वापस ले आए और बेटी की क्षमता को समझते हुए अब उसे नर्सिंग का कोर्स करा रहे हैं। लेकिन, ऐसे मां-बाप गिनती के ही होंगे, जो या तो बच्चों पर अपनी महत्वाकांक्षी मनमर्जी नहीं थोपते या फिर अपनी गलती को सुधारने में वक्त नहीं लगाते। नतीजतन, कोचिंग संस्थानों और प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों से आए दिन छात्रों के आत्महत्या करने की खबरें आती रहती हैं। अपनी क्षमता से अधिक पढ़ाई का बोझ, एकाकी जीवन और शिक्षण संस्थानों के प्रबंधन की लापरवाही छात्रों पर भारी पड़ रही है। इन सबसे इतर, एक महत्वपूर्ण कारण बेहद असंतुलित खानपान भी हैै लेकिन, इसे अनदेखा ही कर दिया जाता है।
हर साल बोर्ड परीक्षाओं के रिजल्ट के समय छात्रों (Students) के आत्महत्या (Suicide) की खबरें नियति बन चुकी हैै। लेकिन, प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों से इस तरह की खबरें आना न सिर्फ चौंकाता है बल्कि, शिक्षा पद्धति, सामाजिक ढांचे और जीवन शैली को लेकर सवाल भी खड़े करता है। यह आम धारणा है कि मेडिकल कॉलेज और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों जैसी शिक्षण संस्थाओं में पढऩे वाले छात्र मानसिक रूप से काफी मजबूत होते हैं। इसकी वजह यह है कि ऐसी शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिए कड़ी मेहनत के दौर से गुजरना होता है और वे छात्र ही सफल हो पाते हैं जो मानसिक रूप से काफी मजबूत होते हैं। इसके बावजूद, इन शिक्षण संस्थानों से छात्रों की आत्महत्या की खबरें आए दिन मिलती हैं।
बीते 21 अप्रैल को मद्रास आईआईटी में बीटेक के छात्र ने हॉस्टल के कमरे में फांसी लगाकर आत्महत्या की तो, इस प्रशिक्षण संस्थान में छात्रों के आत्महत्या (Suicide) करने का इस साल का यह चौथा मामला था। इससे पहले 14 फरवरी को एक पीएचडी छात्र और बीटेक तृतीय वर्ष के छात्र ने जान दे दी थी तो, वहीं दो अप्रैल को पीएचडी छात्र सचिन ने अपना जीवन समाप्त कर लिया था। इस शिक्षण संस्थान में पिछले पांच साल में 12 छात्र मौत को गले लगा चुके हैं। कुरुक्षेत्र के राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान में भी बीते 15 मई को छात्र भव्य ने हॉस्टल की पांचवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली। देश के सबसे प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थानों में शुमार आईआईटी, एनआईटी और आईआईएम में इस साल अब तक नौ छात्र आत्महत्या का रास्ता अख्तियार कर चुके हैं। साल 2019 से लेकर अब तक 53 छात्र अपनी जान दे चुके हैं। यह हाल तब है, जबकि इन संस्थानों में प्रबंधन की ओर से मेंटल वैलनेस सेंटर बनाए जाने के दावे किए जाते हैं।
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चिकित्सा शिक्षण संस्थानों की भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है। राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने पिछले साल के आखिर में मेडिकल कॉलेजों से जो डाटा एकत्रित किया, वह डराने वाला है। इन कॉलेजों में पिछले पांच सालों में कुल 119 छात्रों ने आत्महत्या की है। इनमें 64 एमबीबीएस और 55 पीजी के छात्र शामिल है। साल 2010 से 2019 तक के दशक की बात करें तो 358 मेडिकल छात्रों, रेजिजेंट्स डॉक्टरों और डॉक्टरों ने मौत को गले लगा लिया। कहने को तो इन कॉलेजों में भी छात्रों को पढ़ाई जनित तनाव से निपटने में सक्षम बनाने के इंतजाम किए गए हैं लेकिन, धरातल पर इनका असर देखने को नहीं मिल रहा है।
कोचिंग संस्थानों में पढऩे वाले छात्रों में पनप रहा तनाव इससे कहीं अधिक खतरनाक साबित हो रहा है। कोचिंग हब कहे जाने वाले कोटा के आंकड़े डराने वाले हैं। यहां इस साल अब तक 11 छात्रों ने आत्महत्या की है। अकेले मई माह में ही पांच युवाओं ने जान दे दी। पिछले साल भी कोटा में 15 छात्रों ने खुदकुशी की थी। इस साल पांच महीनों में ही आत्महत्या का आंकड़ा 11 पर पहुंच जाना कई सवाल खड़े करता है। क्या कोचिंग संस्थान के मालिकों को सिर्फ अपनी कमाई से ही मतलब रह गया है? क्या अभिभावक अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए पागलपन की इस हद तक आ गए हैं कि छात्रों की कब्रगाह बनते इन कोचिंग संस्थानों में अपने बच्चों को धकेल रहे हैं? क्या सरकार को इस सबसे कोई सरोकार नहीं है? और सबसे अहम सवाल यह कि आखिर छात्रों की आत्महत्या का सिलसिला आखिर कब थमेगा? हाल यह है कि इतने डरावने आंकड़ों के बावजूद कोटा में तकरीबन सवा दो लाख छात्र कोचिंग ले रहे हैं। हजारों करोड़ के इस कोचिंग कारोबार में छात्रों के जीवन की कीमत भेड़-बकरियों से भी बदतर हो गयी है।
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यह साफ है कि छात्रों के जीवन पर अभिभावकों की महत्वाकांक्षा, शिक्षण संस्थानों के प्रबंधन की लापरवाही और सरकारी तंत्र की अनदेखी भारी पड़ रही है लेकिन, खराब खानपान की भी इसमें बड़ी भूमिका है। दरअसल, ऑस्ट्रेलिया के डेकिन विश्वविद्यालय ने शोध के बाद एक रिपोर्ट तैयार की है। यह रिपोर्ट हाल ही में प्रतिष्ठित शोध पत्रिका ‘जर्नल ऑफ अफेक्टिव डिसऑर्डर’ में छपी है। रिपोर्ट कहती है कि दैनिक आहार में 30 फीसदी तक अत्यधिक प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ (अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड) लेने से अवसाद का खतरा काफी हद तक बढ़ जाता है। ऐसे खाद्य पदार्थों की श्रेणी में खाने-पीने की वे चीजें शामिल हैं जो, रेडी-टू-ईट और रेडी-टू-हीट-एंड-ईट के सिद्धांत पर इस्तेमाल की जाती है। इनमें कोल्ड ड्रिंक, बोतलबंद फलों का रस, चिप्स, फ्रेंच फ्राइज, कुकीज, जेली, आइसक्रीम, पिज्जा, बर्गर, पेस्ट्री, पास्ता जैसे खाद्य पदार्थ शामिल हैं। खासकर, पढ़ाई के लिए घर से दूर अकेले रह रहे युवा अपना समय और मेहनत बचाने के लिए इन खाद्य पदार्थों का अंधाधुंध इस्तेमाल करते हैं। खानपान की यही जीवन शैली उन्हें चुपके से अवसाद की ओर धकेल रही है, जिसके नतीजे कोचिंग और शिक्षण संस्थाओं में आत्महत्या के बढ़ते मामलों के रूप में सामने आ रहे हैं। यह कतई नहीं कहा जा सकता कि ये खाद्य पदार्थ ही छात्रों की आत्महत्या का प्रमुख या एकमात्र कारण है लेकिन, यह तय है कि एक कारण यह भी है।
हाल के दिनों में शिक्षा मंत्रालय छात्रों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति को लेकर संजीदा तो नजर आया है लेकिन, इस संजीदगी के परिणाम कब तक आएंगे, यह कहना मुश्किल है। केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने मार्च में अधिकारियों को मेंटल हेल्थ फ्रेमवर्क बनाने को कहा है। इसका मकसद शिक्षण संस्थानों में छात्रों को तनाव से बचाने के लिए एक प्रभावशाली तंत्र बनाना है। नई शिक्षा नीति का एक मकसद छात्रों को पढ़ाई जनित तनाव से बचाना भी है। इन सब कवायदों का असर दिखने में पता नहीं कितना वक्त लगे, तब तक अभिभावकों को ही सबसे अधिक सचेत रहना होगा।
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