गंगा दशहरा पर विशेष: भारतीयों के दिल में भी बहती है 'गंगा'
भारत
चेतना मंच
01 Dec 2025 01:09 AM
विनय संकोची
Ganga Dussehra : गंगा - एक नदी, जो भारत की पावन धरा पर ही नहीं भारतीयों के दिल में भी बहती है... अविरल अनवरत। गंगा का माहात्म्य अतीव उच्च है। गंगा देवगणों की ईश्वरी है। पुराण कहते हैं - 'जो सौ योजन दूर से भी गंगा-गंगा कहता है, वह मनुष्य नर्क में नहीं पड़ता, फिर गंगा जी के समान कौन हो सकता है।...और जो सैंकड़ों योजन दूर से भी गंगा-गंगा कहता है, वह सब पापों से मुक्त हो श्रीविष्णु लोक को प्राप्त होता है।' महाभागवत तो यहां तक कहता है कि जिस दिन गंगा का स्मरण नहीं किया जाता है, वही दिन दुर्दिन है।
श्रीशंकराचार्यकृत 'गंगा स्तुति' कहती है - 'जिसमें तुम्हारा जल पी लिया अवश्य ही उसने परम पद पा लिया। मां गंगे! जो तुम्हारी भक्ति करता है, उसको यमराज नहीं देख सकते अर्थात् तुम्हारे भक्तगण यमपुरी में न जाकर बैकुंठ में जाते हैं।' महाभारत कहता है - 'जगत में जिनका कोई आधार नहीं है तथा जिन्होंने धर्म की शरण नहीं ली है, उनका आधार और उन्हें शरण देने वाली गंगा जी ही हैं। वह उनका कल्याण करने वाली तथा कवच की भांति उन्हें सुरक्षित रखने वाली हैं।'
वेदों में गंगा के अतिरिक्त अन्य नदियों का भी वर्णन है, जैसे-सिंधु सरस्वती आदि, किंतु उन्हें संस्कृति का प्रतीक न मानकर गंगा को ही संस्कृति का प्रतीक माना जाता है। इससे भी गंगा के महत्व का पता चलता है। इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने गंगा को अपना स्वरूप बतलाया है। 'स्त्रोतसास्मि जाहन्वी' (गीता 10-11) अर्थात् नदियों में मैं भागीरथी गंगा जी हूं।
श्रीगंगा जी की भांति गंगाजल का भी महत्व है। शास्त्रों में गंगाजल का माहात्म्य विस्तार से वर्णित है। जिसमें कहा गया है - 'दूसरी नदियों के जल की भांति गंगाजल वर्षा ऋतु में दूषित नहीं होता। प्रवाह में से निकाला हुआ गंगाजल बासी, ठंडा, गरम या स्पर्श आदि से छू जाने पर भी दूषित नहीं होता। घर में लाकर गंगाजल से स्नान करने पर भी अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। वर्षों रखे रहने पर भी गंगाजल में कीड़े नहीं पड़ते हैं।'
धर्मशास्त्र तो गंगा और गंगा जल की महत्ता प्रतिपादित करते ही हैं, इस गए बीते युग में भी गंगाजल की पवित्रता को वैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा जांच परख कर भौतिक विज्ञानवादियों ने भी एक मत से, मुक्त कंठ से स्वीकार किया है। गंगाजल को आयुर्वेद में औषधि के रूप में स्वीकार किया है और अनेक शारीरिक एवं मानसिक विकारों के उपचार का माध्यम बताया है।
सनातन चिंतन की परंपरा के मान्य त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव के साथ गंगा का संबंध है। गंगा इनमें से किसी के कमंडल, किसी के चरण, तो किसी की जटाओं से जुड़ी है और स्वयं शक्ति की प्रतीक भी है। इसीलिए गंगा वैष्णवों, शैवों और शाक्तों में समान रूप से वन्दित है, पूजित है। गंगा में स्नान करने वालों को त्रिदेवों की कृपा और आशीर्वाद साक्षात प्राप्त होता है।
गंगा भारत और भारत वासियों के लिए प्रकृति का वरदान है, जिसमें सार्वभौमिकता, सार्वजनीयता और उपकार का भाव छलका पड़ता है। गंगा बिना किसी भेदभाव के सदियों से अपने तटवासियों के प्राणों को अपने अमृत जल से सींचती चली आ रही है और तटवासी गंगा के उपकार का बदला अपकार से दे रहे हैं।
सन 2008 में गंगा को राष्ट्रीय नदी तो घोषित कर दिया गया है, लेकिन सभी को शुद्ध करने वाली औषधि रूपा गंगा स्वयं भयंकर प्रदूषण का शिकार हो गई है। गंगा में लगातार जहर घोला जा रहा है। गंगा निरंतरता का प्रतीक है, जबकि बांध बना-बना कर गंगा की अविरलता को बाधित किया जा रहा है। यह मानव मात्र के लिए अनिष्ट का सूचक है। मानव समुदाय ने आदिकाल से अनुभव किया है कि यह जब कभी भी प्राकृतिक या मानवीय कारणों से गंगा का प्रवाह बाधित हुआ है, तभी उसका परिणाम अनिष्टकारी ही हुआ है। मानव ने अनुभव तो किया किया, लेकिन सबक नहीं लिया। अगर सबक लिया होता, तो गंगा पर बांधों की संख्या में लगातार वृद्धि नहीं हो रही होती।
गंगा को प्रदूषण से मुक्त करने के तमाम प्रयास अभी तक तो विफल ही साबित हुए हैं। कारण यह है कि जिस गति से गंगा में अरबों लीटर सीवेज और कारखानों का विषाक्त जल प्रतिदिन घोला जा रहा है, उस गति से गंगा को निर्मल और अविरल बनाने के सार्थक प्रयास नहीं हो रहे हैं। सरकार बहुत कुछ करने की बात करती है। लेकिन गंगा के लिए कुछ होता दिखाई नहीं पड़ रहा है। अनिच्छा या आधे - अधूरे मन से गंगा को निर्मल बनाने के प्रयास कोई चमत्कार दिखा पाने में सफल होंगे, किसी को भरोसा नहीं हो रहा है।
गंगा का विराट बेसिन 40 करोड़ से ज्यादा लोगों को अपनी गोद में पनाह दिए हुए है। मतलब इतनी बड़ी संख्या में लोग गंगा को प्रदूषित कर रहे हैं। विरले ही हैं जो गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं या इस बारे में सोच भी रहे हैं। इस सत्य को स्वीकार किया जाना चाहिए कि सरकार से लेकर आमजन तक गंगा से लेना ही लेना चाहते हैं, गंगा को कोई देना नहीं चाहता है। प्रदूषण की मार से कराह रही गंगा यदि लुप्त हो गई तो करोड़ों लोगों के जीवन का क्या होगा इस बारे में चिंतन, चिंता और प्रभावी कदम उठाने का थोड़ा समय अभी भी बचा है। यदि इस समय को गवां दिया, तो एक बड़ी भारी विभीषिका का सामना करना पड़ेगा, इसमें किसी को कोई शंका नहीं होनी चाहिए।
गंगा के अस्तित्व को देव भूमि उत्तराखंड के साढ़े चार सौ बांधों से खतरा है, भयंकर प्रदूषण से खतरा है। आज गंगा के अस्तित्व को बचाना एक बेहद गंभीर चुनौती है और इसके लिए केवल सरकार का मुंह ताकते रहने से काम चलने वाला नहीं है, इसके लिए मुख्य रूप से गंगा किनारे बसे शहरों, कस्बों और गांवों के वाशिंदों को भी सोचना होगा, जागना होगा।
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01 Dec 2025 01:09 AM
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Ganga Dussehra : गंगा - एक नदी, जो भारत की पावन धरा पर ही नहीं भारतीयों के दिल में भी बहती है... अविरल अनवरत। गंगा का माहात्म्य अतीव उच्च है। गंगा देवगणों की ईश्वरी है। पुराण कहते हैं - 'जो सौ योजन दूर से भी गंगा-गंगा कहता है, वह मनुष्य नर्क में नहीं पड़ता, फिर गंगा जी के समान कौन हो सकता है।...और जो सैंकड़ों योजन दूर से भी गंगा-गंगा कहता है, वह सब पापों से मुक्त हो श्रीविष्णु लोक को प्राप्त होता है।' महाभागवत तो यहां तक कहता है कि जिस दिन गंगा का स्मरण नहीं किया जाता है, वही दिन दुर्दिन है।
श्रीशंकराचार्यकृत 'गंगा स्तुति' कहती है - 'जिसमें तुम्हारा जल पी लिया अवश्य ही उसने परम पद पा लिया। मां गंगे! जो तुम्हारी भक्ति करता है, उसको यमराज नहीं देख सकते अर्थात् तुम्हारे भक्तगण यमपुरी में न जाकर बैकुंठ में जाते हैं।' महाभारत कहता है - 'जगत में जिनका कोई आधार नहीं है तथा जिन्होंने धर्म की शरण नहीं ली है, उनका आधार और उन्हें शरण देने वाली गंगा जी ही हैं। वह उनका कल्याण करने वाली तथा कवच की भांति उन्हें सुरक्षित रखने वाली हैं।'
वेदों में गंगा के अतिरिक्त अन्य नदियों का भी वर्णन है, जैसे-सिंधु सरस्वती आदि, किंतु उन्हें संस्कृति का प्रतीक न मानकर गंगा को ही संस्कृति का प्रतीक माना जाता है। इससे भी गंगा के महत्व का पता चलता है। इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने गंगा को अपना स्वरूप बतलाया है। 'स्त्रोतसास्मि जाहन्वी' (गीता 10-11) अर्थात् नदियों में मैं भागीरथी गंगा जी हूं।
श्रीगंगा जी की भांति गंगाजल का भी महत्व है। शास्त्रों में गंगाजल का माहात्म्य विस्तार से वर्णित है। जिसमें कहा गया है - 'दूसरी नदियों के जल की भांति गंगाजल वर्षा ऋतु में दूषित नहीं होता। प्रवाह में से निकाला हुआ गंगाजल बासी, ठंडा, गरम या स्पर्श आदि से छू जाने पर भी दूषित नहीं होता। घर में लाकर गंगाजल से स्नान करने पर भी अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। वर्षों रखे रहने पर भी गंगाजल में कीड़े नहीं पड़ते हैं।'
धर्मशास्त्र तो गंगा और गंगा जल की महत्ता प्रतिपादित करते ही हैं, इस गए बीते युग में भी गंगाजल की पवित्रता को वैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा जांच परख कर भौतिक विज्ञानवादियों ने भी एक मत से, मुक्त कंठ से स्वीकार किया है। गंगाजल को आयुर्वेद में औषधि के रूप में स्वीकार किया है और अनेक शारीरिक एवं मानसिक विकारों के उपचार का माध्यम बताया है।
सनातन चिंतन की परंपरा के मान्य त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव के साथ गंगा का संबंध है। गंगा इनमें से किसी के कमंडल, किसी के चरण, तो किसी की जटाओं से जुड़ी है और स्वयं शक्ति की प्रतीक भी है। इसीलिए गंगा वैष्णवों, शैवों और शाक्तों में समान रूप से वन्दित है, पूजित है। गंगा में स्नान करने वालों को त्रिदेवों की कृपा और आशीर्वाद साक्षात प्राप्त होता है।
गंगा भारत और भारत वासियों के लिए प्रकृति का वरदान है, जिसमें सार्वभौमिकता, सार्वजनीयता और उपकार का भाव छलका पड़ता है। गंगा बिना किसी भेदभाव के सदियों से अपने तटवासियों के प्राणों को अपने अमृत जल से सींचती चली आ रही है और तटवासी गंगा के उपकार का बदला अपकार से दे रहे हैं।
सन 2008 में गंगा को राष्ट्रीय नदी तो घोषित कर दिया गया है, लेकिन सभी को शुद्ध करने वाली औषधि रूपा गंगा स्वयं भयंकर प्रदूषण का शिकार हो गई है। गंगा में लगातार जहर घोला जा रहा है। गंगा निरंतरता का प्रतीक है, जबकि बांध बना-बना कर गंगा की अविरलता को बाधित किया जा रहा है। यह मानव मात्र के लिए अनिष्ट का सूचक है। मानव समुदाय ने आदिकाल से अनुभव किया है कि यह जब कभी भी प्राकृतिक या मानवीय कारणों से गंगा का प्रवाह बाधित हुआ है, तभी उसका परिणाम अनिष्टकारी ही हुआ है। मानव ने अनुभव तो किया किया, लेकिन सबक नहीं लिया। अगर सबक लिया होता, तो गंगा पर बांधों की संख्या में लगातार वृद्धि नहीं हो रही होती।
गंगा को प्रदूषण से मुक्त करने के तमाम प्रयास अभी तक तो विफल ही साबित हुए हैं। कारण यह है कि जिस गति से गंगा में अरबों लीटर सीवेज और कारखानों का विषाक्त जल प्रतिदिन घोला जा रहा है, उस गति से गंगा को निर्मल और अविरल बनाने के सार्थक प्रयास नहीं हो रहे हैं। सरकार बहुत कुछ करने की बात करती है। लेकिन गंगा के लिए कुछ होता दिखाई नहीं पड़ रहा है। अनिच्छा या आधे - अधूरे मन से गंगा को निर्मल बनाने के प्रयास कोई चमत्कार दिखा पाने में सफल होंगे, किसी को भरोसा नहीं हो रहा है।
गंगा का विराट बेसिन 40 करोड़ से ज्यादा लोगों को अपनी गोद में पनाह दिए हुए है। मतलब इतनी बड़ी संख्या में लोग गंगा को प्रदूषित कर रहे हैं। विरले ही हैं जो गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं या इस बारे में सोच भी रहे हैं। इस सत्य को स्वीकार किया जाना चाहिए कि सरकार से लेकर आमजन तक गंगा से लेना ही लेना चाहते हैं, गंगा को कोई देना नहीं चाहता है। प्रदूषण की मार से कराह रही गंगा यदि लुप्त हो गई तो करोड़ों लोगों के जीवन का क्या होगा इस बारे में चिंतन, चिंता और प्रभावी कदम उठाने का थोड़ा समय अभी भी बचा है। यदि इस समय को गवां दिया, तो एक बड़ी भारी विभीषिका का सामना करना पड़ेगा, इसमें किसी को कोई शंका नहीं होनी चाहिए।
गंगा के अस्तित्व को देव भूमि उत्तराखंड के साढ़े चार सौ बांधों से खतरा है, भयंकर प्रदूषण से खतरा है। आज गंगा के अस्तित्व को बचाना एक बेहद गंभीर चुनौती है और इसके लिए केवल सरकार का मुंह ताकते रहने से काम चलने वाला नहीं है, इसके लिए मुख्य रूप से गंगा किनारे बसे शहरों, कस्बों और गांवों के वाशिंदों को भी सोचना होगा, जागना होगा।
गंगा दशहरा पर विशेष: भारतीयों के दिल में भी बहती है 'गंगा'
भारत
चेतना मंच
01 Dec 2025 01:09 AM
विनय संकोची
Ganga Dussehra : गंगा - एक नदी, जो भारत की पावन धरा पर ही नहीं भारतीयों के दिल में भी बहती है... अविरल अनवरत। गंगा का माहात्म्य अतीव उच्च है। गंगा देवगणों की ईश्वरी है। पुराण कहते हैं - 'जो सौ योजन दूर से भी गंगा-गंगा कहता है, वह मनुष्य नर्क में नहीं पड़ता, फिर गंगा जी के समान कौन हो सकता है।...और जो सैंकड़ों योजन दूर से भी गंगा-गंगा कहता है, वह सब पापों से मुक्त हो श्रीविष्णु लोक को प्राप्त होता है।' महाभागवत तो यहां तक कहता है कि जिस दिन गंगा का स्मरण नहीं किया जाता है, वही दिन दुर्दिन है।
श्रीशंकराचार्यकृत 'गंगा स्तुति' कहती है - 'जिसमें तुम्हारा जल पी लिया अवश्य ही उसने परम पद पा लिया। मां गंगे! जो तुम्हारी भक्ति करता है, उसको यमराज नहीं देख सकते अर्थात् तुम्हारे भक्तगण यमपुरी में न जाकर बैकुंठ में जाते हैं।' महाभारत कहता है - 'जगत में जिनका कोई आधार नहीं है तथा जिन्होंने धर्म की शरण नहीं ली है, उनका आधार और उन्हें शरण देने वाली गंगा जी ही हैं। वह उनका कल्याण करने वाली तथा कवच की भांति उन्हें सुरक्षित रखने वाली हैं।'
वेदों में गंगा के अतिरिक्त अन्य नदियों का भी वर्णन है, जैसे-सिंधु सरस्वती आदि, किंतु उन्हें संस्कृति का प्रतीक न मानकर गंगा को ही संस्कृति का प्रतीक माना जाता है। इससे भी गंगा के महत्व का पता चलता है। इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने गंगा को अपना स्वरूप बतलाया है। 'स्त्रोतसास्मि जाहन्वी' (गीता 10-11) अर्थात् नदियों में मैं भागीरथी गंगा जी हूं।
श्रीगंगा जी की भांति गंगाजल का भी महत्व है। शास्त्रों में गंगाजल का माहात्म्य विस्तार से वर्णित है। जिसमें कहा गया है - 'दूसरी नदियों के जल की भांति गंगाजल वर्षा ऋतु में दूषित नहीं होता। प्रवाह में से निकाला हुआ गंगाजल बासी, ठंडा, गरम या स्पर्श आदि से छू जाने पर भी दूषित नहीं होता। घर में लाकर गंगाजल से स्नान करने पर भी अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। वर्षों रखे रहने पर भी गंगाजल में कीड़े नहीं पड़ते हैं।'
धर्मशास्त्र तो गंगा और गंगा जल की महत्ता प्रतिपादित करते ही हैं, इस गए बीते युग में भी गंगाजल की पवित्रता को वैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा जांच परख कर भौतिक विज्ञानवादियों ने भी एक मत से, मुक्त कंठ से स्वीकार किया है। गंगाजल को आयुर्वेद में औषधि के रूप में स्वीकार किया है और अनेक शारीरिक एवं मानसिक विकारों के उपचार का माध्यम बताया है।
सनातन चिंतन की परंपरा के मान्य त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव के साथ गंगा का संबंध है। गंगा इनमें से किसी के कमंडल, किसी के चरण, तो किसी की जटाओं से जुड़ी है और स्वयं शक्ति की प्रतीक भी है। इसीलिए गंगा वैष्णवों, शैवों और शाक्तों में समान रूप से वन्दित है, पूजित है। गंगा में स्नान करने वालों को त्रिदेवों की कृपा और आशीर्वाद साक्षात प्राप्त होता है।
गंगा भारत और भारत वासियों के लिए प्रकृति का वरदान है, जिसमें सार्वभौमिकता, सार्वजनीयता और उपकार का भाव छलका पड़ता है। गंगा बिना किसी भेदभाव के सदियों से अपने तटवासियों के प्राणों को अपने अमृत जल से सींचती चली आ रही है और तटवासी गंगा के उपकार का बदला अपकार से दे रहे हैं।
सन 2008 में गंगा को राष्ट्रीय नदी तो घोषित कर दिया गया है, लेकिन सभी को शुद्ध करने वाली औषधि रूपा गंगा स्वयं भयंकर प्रदूषण का शिकार हो गई है। गंगा में लगातार जहर घोला जा रहा है। गंगा निरंतरता का प्रतीक है, जबकि बांध बना-बना कर गंगा की अविरलता को बाधित किया जा रहा है। यह मानव मात्र के लिए अनिष्ट का सूचक है। मानव समुदाय ने आदिकाल से अनुभव किया है कि यह जब कभी भी प्राकृतिक या मानवीय कारणों से गंगा का प्रवाह बाधित हुआ है, तभी उसका परिणाम अनिष्टकारी ही हुआ है। मानव ने अनुभव तो किया किया, लेकिन सबक नहीं लिया। अगर सबक लिया होता, तो गंगा पर बांधों की संख्या में लगातार वृद्धि नहीं हो रही होती।
गंगा को प्रदूषण से मुक्त करने के तमाम प्रयास अभी तक तो विफल ही साबित हुए हैं। कारण यह है कि जिस गति से गंगा में अरबों लीटर सीवेज और कारखानों का विषाक्त जल प्रतिदिन घोला जा रहा है, उस गति से गंगा को निर्मल और अविरल बनाने के सार्थक प्रयास नहीं हो रहे हैं। सरकार बहुत कुछ करने की बात करती है। लेकिन गंगा के लिए कुछ होता दिखाई नहीं पड़ रहा है। अनिच्छा या आधे - अधूरे मन से गंगा को निर्मल बनाने के प्रयास कोई चमत्कार दिखा पाने में सफल होंगे, किसी को भरोसा नहीं हो रहा है।
गंगा का विराट बेसिन 40 करोड़ से ज्यादा लोगों को अपनी गोद में पनाह दिए हुए है। मतलब इतनी बड़ी संख्या में लोग गंगा को प्रदूषित कर रहे हैं। विरले ही हैं जो गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं या इस बारे में सोच भी रहे हैं। इस सत्य को स्वीकार किया जाना चाहिए कि सरकार से लेकर आमजन तक गंगा से लेना ही लेना चाहते हैं, गंगा को कोई देना नहीं चाहता है। प्रदूषण की मार से कराह रही गंगा यदि लुप्त हो गई तो करोड़ों लोगों के जीवन का क्या होगा इस बारे में चिंतन, चिंता और प्रभावी कदम उठाने का थोड़ा समय अभी भी बचा है। यदि इस समय को गवां दिया, तो एक बड़ी भारी विभीषिका का सामना करना पड़ेगा, इसमें किसी को कोई शंका नहीं होनी चाहिए।
गंगा के अस्तित्व को देव भूमि उत्तराखंड के साढ़े चार सौ बांधों से खतरा है, भयंकर प्रदूषण से खतरा है। आज गंगा के अस्तित्व को बचाना एक बेहद गंभीर चुनौती है और इसके लिए केवल सरकार का मुंह ताकते रहने से काम चलने वाला नहीं है, इसके लिए मुख्य रूप से गंगा किनारे बसे शहरों, कस्बों और गांवों के वाशिंदों को भी सोचना होगा, जागना होगा।
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चेतना मंच
01 Dec 2025 01:09 AM
विनय संकोची
Ganga Dussehra : गंगा - एक नदी, जो भारत की पावन धरा पर ही नहीं भारतीयों के दिल में भी बहती है... अविरल अनवरत। गंगा का माहात्म्य अतीव उच्च है। गंगा देवगणों की ईश्वरी है। पुराण कहते हैं - 'जो सौ योजन दूर से भी गंगा-गंगा कहता है, वह मनुष्य नर्क में नहीं पड़ता, फिर गंगा जी के समान कौन हो सकता है।...और जो सैंकड़ों योजन दूर से भी गंगा-गंगा कहता है, वह सब पापों से मुक्त हो श्रीविष्णु लोक को प्राप्त होता है।' महाभागवत तो यहां तक कहता है कि जिस दिन गंगा का स्मरण नहीं किया जाता है, वही दिन दुर्दिन है।
श्रीशंकराचार्यकृत 'गंगा स्तुति' कहती है - 'जिसमें तुम्हारा जल पी लिया अवश्य ही उसने परम पद पा लिया। मां गंगे! जो तुम्हारी भक्ति करता है, उसको यमराज नहीं देख सकते अर्थात् तुम्हारे भक्तगण यमपुरी में न जाकर बैकुंठ में जाते हैं।' महाभारत कहता है - 'जगत में जिनका कोई आधार नहीं है तथा जिन्होंने धर्म की शरण नहीं ली है, उनका आधार और उन्हें शरण देने वाली गंगा जी ही हैं। वह उनका कल्याण करने वाली तथा कवच की भांति उन्हें सुरक्षित रखने वाली हैं।'
वेदों में गंगा के अतिरिक्त अन्य नदियों का भी वर्णन है, जैसे-सिंधु सरस्वती आदि, किंतु उन्हें संस्कृति का प्रतीक न मानकर गंगा को ही संस्कृति का प्रतीक माना जाता है। इससे भी गंगा के महत्व का पता चलता है। इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने गंगा को अपना स्वरूप बतलाया है। 'स्त्रोतसास्मि जाहन्वी' (गीता 10-11) अर्थात् नदियों में मैं भागीरथी गंगा जी हूं।
श्रीगंगा जी की भांति गंगाजल का भी महत्व है। शास्त्रों में गंगाजल का माहात्म्य विस्तार से वर्णित है। जिसमें कहा गया है - 'दूसरी नदियों के जल की भांति गंगाजल वर्षा ऋतु में दूषित नहीं होता। प्रवाह में से निकाला हुआ गंगाजल बासी, ठंडा, गरम या स्पर्श आदि से छू जाने पर भी दूषित नहीं होता। घर में लाकर गंगाजल से स्नान करने पर भी अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। वर्षों रखे रहने पर भी गंगाजल में कीड़े नहीं पड़ते हैं।'
धर्मशास्त्र तो गंगा और गंगा जल की महत्ता प्रतिपादित करते ही हैं, इस गए बीते युग में भी गंगाजल की पवित्रता को वैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा जांच परख कर भौतिक विज्ञानवादियों ने भी एक मत से, मुक्त कंठ से स्वीकार किया है। गंगाजल को आयुर्वेद में औषधि के रूप में स्वीकार किया है और अनेक शारीरिक एवं मानसिक विकारों के उपचार का माध्यम बताया है।
सनातन चिंतन की परंपरा के मान्य त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव के साथ गंगा का संबंध है। गंगा इनमें से किसी के कमंडल, किसी के चरण, तो किसी की जटाओं से जुड़ी है और स्वयं शक्ति की प्रतीक भी है। इसीलिए गंगा वैष्णवों, शैवों और शाक्तों में समान रूप से वन्दित है, पूजित है। गंगा में स्नान करने वालों को त्रिदेवों की कृपा और आशीर्वाद साक्षात प्राप्त होता है।
गंगा भारत और भारत वासियों के लिए प्रकृति का वरदान है, जिसमें सार्वभौमिकता, सार्वजनीयता और उपकार का भाव छलका पड़ता है। गंगा बिना किसी भेदभाव के सदियों से अपने तटवासियों के प्राणों को अपने अमृत जल से सींचती चली आ रही है और तटवासी गंगा के उपकार का बदला अपकार से दे रहे हैं।
सन 2008 में गंगा को राष्ट्रीय नदी तो घोषित कर दिया गया है, लेकिन सभी को शुद्ध करने वाली औषधि रूपा गंगा स्वयं भयंकर प्रदूषण का शिकार हो गई है। गंगा में लगातार जहर घोला जा रहा है। गंगा निरंतरता का प्रतीक है, जबकि बांध बना-बना कर गंगा की अविरलता को बाधित किया जा रहा है। यह मानव मात्र के लिए अनिष्ट का सूचक है। मानव समुदाय ने आदिकाल से अनुभव किया है कि यह जब कभी भी प्राकृतिक या मानवीय कारणों से गंगा का प्रवाह बाधित हुआ है, तभी उसका परिणाम अनिष्टकारी ही हुआ है। मानव ने अनुभव तो किया किया, लेकिन सबक नहीं लिया। अगर सबक लिया होता, तो गंगा पर बांधों की संख्या में लगातार वृद्धि नहीं हो रही होती।
गंगा को प्रदूषण से मुक्त करने के तमाम प्रयास अभी तक तो विफल ही साबित हुए हैं। कारण यह है कि जिस गति से गंगा में अरबों लीटर सीवेज और कारखानों का विषाक्त जल प्रतिदिन घोला जा रहा है, उस गति से गंगा को निर्मल और अविरल बनाने के सार्थक प्रयास नहीं हो रहे हैं। सरकार बहुत कुछ करने की बात करती है। लेकिन गंगा के लिए कुछ होता दिखाई नहीं पड़ रहा है। अनिच्छा या आधे - अधूरे मन से गंगा को निर्मल बनाने के प्रयास कोई चमत्कार दिखा पाने में सफल होंगे, किसी को भरोसा नहीं हो रहा है।
गंगा का विराट बेसिन 40 करोड़ से ज्यादा लोगों को अपनी गोद में पनाह दिए हुए है। मतलब इतनी बड़ी संख्या में लोग गंगा को प्रदूषित कर रहे हैं। विरले ही हैं जो गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं या इस बारे में सोच भी रहे हैं। इस सत्य को स्वीकार किया जाना चाहिए कि सरकार से लेकर आमजन तक गंगा से लेना ही लेना चाहते हैं, गंगा को कोई देना नहीं चाहता है। प्रदूषण की मार से कराह रही गंगा यदि लुप्त हो गई तो करोड़ों लोगों के जीवन का क्या होगा इस बारे में चिंतन, चिंता और प्रभावी कदम उठाने का थोड़ा समय अभी भी बचा है। यदि इस समय को गवां दिया, तो एक बड़ी भारी विभीषिका का सामना करना पड़ेगा, इसमें किसी को कोई शंका नहीं होनी चाहिए।
गंगा के अस्तित्व को देव भूमि उत्तराखंड के साढ़े चार सौ बांधों से खतरा है, भयंकर प्रदूषण से खतरा है। आज गंगा के अस्तित्व को बचाना एक बेहद गंभीर चुनौती है और इसके लिए केवल सरकार का मुंह ताकते रहने से काम चलने वाला नहीं है, इसके लिए मुख्य रूप से गंगा किनारे बसे शहरों, कस्बों और गांवों के वाशिंदों को भी सोचना होगा, जागना होगा।
Ayurveda: औषधीय गुणों का खजाना भी है पवित्र 'रुद्राक्ष'
भारत
चेतना मंच
07 Jun 2022 03:24 PM
विनय संकोची सृष्टि ( Universe) के आरंभ से प्राणी जगत और वनस्पति का अटूट संबंध रहा है। वृक्षों को पुराण आदि प्राचीन ग्रंथों में मनुष्य का गुरु, जीवनदाता और संरक्षक कहा है। मनुष्य तो जीवित ही इसलिए है कि परमात्मा ने उसे उपहार में वृक्ष दिए हैं। एक समय था जब वृक्षारोपण को धर्म की संज्ञा दी जाती थी। इसे धर्म का अभिन्न अंग माना जाता था। वृक्षारोपण के संबंध में महाभारत में उल्लेख मिलता है कि वृक्ष फूलों से देवताओं का, फलों से पितरों का, व छाया से अतिथि का सत्कार करते हैं, इसलिए वृक्ष पूजनीय हैं। इन्हीं पूजनीय वृक्षों में एक अलौकिक वृक्ष है - रुद्राक्ष, जिसका संबंध भगवान शिव से है जिन्हें वेद ने रुद्र कहा है और यह रुद्र का सर्वाधिक प्रिय वृक्ष है।
भगवान रुद्र(Lord Rudra) को शास्त्रों ने चिकित्सा का संरक्षक संरक्षक भी कहा है। इन्हीं स्वास्थ्य संरक्षक रुद्र ने एक बार 1000 दिव्य वर्षों तक समाधि में रहने के बाद जब दीनहीनों की करुण पुकार सुनकर नेत्र खोले, तो उनके नेत्रों से करुणा जल बिंदु छलक उठे। यह दिव्य जल बिंदु लुढ़क कर पृथ्वी पर जहां-जहां गिरे वहां अलौकिक वृक्ष प्रकट हुआ, जिसे शास्त्रों में नाम दिया 'रुद्राक्ष'।
प्राचीन भारतीय धर्म ग्रंथों और शास्त्रों जैसे शिव पुराण श्रीमद् देवीभागवत पुराण, लिंग पुराण, निर्णय सिंधु, मंत्र महोनिधि, रुद्र संहिता आदि रुद्राक्ष का उल्लेख मिलता है।
पुराणों के अनुसार रुद्राक्ष वृक्ष गोड भूमि में विकसित होता है। वर्तमान में यह क्षेत्र एशिया के दक्षिणी भाग, गंगा के तराई क्षेत्र से लेकर हिमालय की पहाड़ियों और नेपाल के मध्य क्षेत्र तक माना जाता है। मनीला से प्रारंभ होकर मयन्मार के समतल भाग और नीची पहाड़ियों से होता हुआ, रुद्राक्ष वृक्ष बंगाल, असम, उत्तर पूर्वी राज्यों, बांग्लादेश, भूटान तक यह क्षेत्र विस्तारित है। यह दिव्य वृक्ष उत्तर पूर्व एशिया के जावा, कोरिया, मलेशिया, ताइवान, चीन आदि देशों के साथ ऑस्ट्रेलिया, फिलिपिंस, पापुआ न्यूगिनी में भी पल्लवित पुष्पित होता है।
आज भारत का यह वृक्ष भारत में ही दिखाई नहीं पड़ता है। जबकि एक समय में मथुरा, अयोध्या, हरिद्वार, काशी आदि में यह बहुतायत में पाया जाता था। इन धर्म नगरियों में रुद्राक्ष वृक्ष की उपस्थिति की गवाही शिव महापुराण भी देता है। इन क्षेत्रों में रुद्राक्ष वृक्ष स्वतः समाप्त नहीं हुआ बल्कि उसे समाप्त करने के लिए धार्मिक, सामाजिक षड्यंत्र भी संभवत: रचा गया। रुद्राक्ष के लुप्त होने के कारणों पर शोध की आवश्यकता है। वैसे इन धर्म क्षेत्रों में रुद्राक्ष वृक्ष की उपस्थिति के साक्ष्य संबंधी प्रमाण से यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि यह अलौकिक वृक्ष पहाड़ों की शीतलता में ही नहीं बल्कि किसी भी जलवायु में पाला जा सकता है।
रुद्राक्ष वृक्ष आध्यात्मिकता का प्राकृतिक स्वरूप है। रुद्राक्ष को आदिकाल से आध्यात्मिक शक्तियों के जागरण, आत्मविश्वास में अप्रत्याशित वृद्धि और नकारात्मकता ह्रास के गुणों के व्यक्तिगत अनुभव के उपरांत स्वीकारा गया है। रुद्राक्ष आत्मविश्वास व समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है, यह शास्त्रों की घोषणा है।
प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि वृक्ष की पत्तियों, फल, बीज, छाल सभी में औषधीय गुण पाए जाते हैं। वर्तमान विज्ञान मानता है कि रुद्राक्ष वृक्ष अनेक बीमारियों का सफल उपचार करने में सक्षम है, जिसमें उच्च रक्तचाप, अनिद्रा, मानसिक तनाव, हृदय उत्तेजना आदि सामान्य व गंभीर रोग शामिल हैं। फिलीपींस में एक शोध हुआ है जिसके अनुसार रुद्राक्ष वृक्ष की छाल बढ़ी हुई तिल्ली के उपचार का अचूक उपाय है। रुद्राक्ष की पत्तियां एंटीबैक्टीरियल गुणों से भरपूर होती है, जिसके कारण इनके माध्यम से किसी भी घाव को आसानी से ठीक किया जा सकता है। माइग्रेन का उपचार भी पत्तियों से संभव है। शिलांग में हुए वैज्ञानिक शोध में यह सिद्ध हुआ कि रुद्राक्ष की पत्तियां एंटी ऑक्सीडेंट है, अर्थात अधिक प्राणवायु का उत्सर्जन करती हैं।
आयुर्वेद के अनुसार रुद्राक्ष वृक्ष का सर्वांग आयुवर्धक है। इससे रक्त में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा को नियंत्रित किया जा सकता है। रुद्राक्ष का फल रक्त की कमी, बुखार, पीलिया, गठिया, ब्रोंकाइटिस, सर्दी जुकाम आदि में रुद्राक्ष चिकित्सक की भूमिका निभाता है। रुद्राक्ष तनाव विरोधी हैं, जो आज की सबसे बड़ी समस्या है। साथ ही पवित्रता के कारण यह पूजन अर्चन वंदन और साधना में तो काम आते ही हैं।
भारत
चेतना मंच
07 Jun 2022 03:24 PM
विनय संकोची सृष्टि ( Universe) के आरंभ से प्राणी जगत और वनस्पति का अटूट संबंध रहा है। वृक्षों को पुराण आदि प्राचीन ग्रंथों में मनुष्य का गुरु, जीवनदाता और संरक्षक कहा है। मनुष्य तो जीवित ही इसलिए है कि परमात्मा ने उसे उपहार में वृक्ष दिए हैं। एक समय था जब वृक्षारोपण को धर्म की संज्ञा दी जाती थी। इसे धर्म का अभिन्न अंग माना जाता था। वृक्षारोपण के संबंध में महाभारत में उल्लेख मिलता है कि वृक्ष फूलों से देवताओं का, फलों से पितरों का, व छाया से अतिथि का सत्कार करते हैं, इसलिए वृक्ष पूजनीय हैं। इन्हीं पूजनीय वृक्षों में एक अलौकिक वृक्ष है - रुद्राक्ष, जिसका संबंध भगवान शिव से है जिन्हें वेद ने रुद्र कहा है और यह रुद्र का सर्वाधिक प्रिय वृक्ष है।
भगवान रुद्र(Lord Rudra) को शास्त्रों ने चिकित्सा का संरक्षक संरक्षक भी कहा है। इन्हीं स्वास्थ्य संरक्षक रुद्र ने एक बार 1000 दिव्य वर्षों तक समाधि में रहने के बाद जब दीनहीनों की करुण पुकार सुनकर नेत्र खोले, तो उनके नेत्रों से करुणा जल बिंदु छलक उठे। यह दिव्य जल बिंदु लुढ़क कर पृथ्वी पर जहां-जहां गिरे वहां अलौकिक वृक्ष प्रकट हुआ, जिसे शास्त्रों में नाम दिया 'रुद्राक्ष'।
प्राचीन भारतीय धर्म ग्रंथों और शास्त्रों जैसे शिव पुराण श्रीमद् देवीभागवत पुराण, लिंग पुराण, निर्णय सिंधु, मंत्र महोनिधि, रुद्र संहिता आदि रुद्राक्ष का उल्लेख मिलता है।
पुराणों के अनुसार रुद्राक्ष वृक्ष गोड भूमि में विकसित होता है। वर्तमान में यह क्षेत्र एशिया के दक्षिणी भाग, गंगा के तराई क्षेत्र से लेकर हिमालय की पहाड़ियों और नेपाल के मध्य क्षेत्र तक माना जाता है। मनीला से प्रारंभ होकर मयन्मार के समतल भाग और नीची पहाड़ियों से होता हुआ, रुद्राक्ष वृक्ष बंगाल, असम, उत्तर पूर्वी राज्यों, बांग्लादेश, भूटान तक यह क्षेत्र विस्तारित है। यह दिव्य वृक्ष उत्तर पूर्व एशिया के जावा, कोरिया, मलेशिया, ताइवान, चीन आदि देशों के साथ ऑस्ट्रेलिया, फिलिपिंस, पापुआ न्यूगिनी में भी पल्लवित पुष्पित होता है।
आज भारत का यह वृक्ष भारत में ही दिखाई नहीं पड़ता है। जबकि एक समय में मथुरा, अयोध्या, हरिद्वार, काशी आदि में यह बहुतायत में पाया जाता था। इन धर्म नगरियों में रुद्राक्ष वृक्ष की उपस्थिति की गवाही शिव महापुराण भी देता है। इन क्षेत्रों में रुद्राक्ष वृक्ष स्वतः समाप्त नहीं हुआ बल्कि उसे समाप्त करने के लिए धार्मिक, सामाजिक षड्यंत्र भी संभवत: रचा गया। रुद्राक्ष के लुप्त होने के कारणों पर शोध की आवश्यकता है। वैसे इन धर्म क्षेत्रों में रुद्राक्ष वृक्ष की उपस्थिति के साक्ष्य संबंधी प्रमाण से यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि यह अलौकिक वृक्ष पहाड़ों की शीतलता में ही नहीं बल्कि किसी भी जलवायु में पाला जा सकता है।
रुद्राक्ष वृक्ष आध्यात्मिकता का प्राकृतिक स्वरूप है। रुद्राक्ष को आदिकाल से आध्यात्मिक शक्तियों के जागरण, आत्मविश्वास में अप्रत्याशित वृद्धि और नकारात्मकता ह्रास के गुणों के व्यक्तिगत अनुभव के उपरांत स्वीकारा गया है। रुद्राक्ष आत्मविश्वास व समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है, यह शास्त्रों की घोषणा है।
प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि वृक्ष की पत्तियों, फल, बीज, छाल सभी में औषधीय गुण पाए जाते हैं। वर्तमान विज्ञान मानता है कि रुद्राक्ष वृक्ष अनेक बीमारियों का सफल उपचार करने में सक्षम है, जिसमें उच्च रक्तचाप, अनिद्रा, मानसिक तनाव, हृदय उत्तेजना आदि सामान्य व गंभीर रोग शामिल हैं। फिलीपींस में एक शोध हुआ है जिसके अनुसार रुद्राक्ष वृक्ष की छाल बढ़ी हुई तिल्ली के उपचार का अचूक उपाय है। रुद्राक्ष की पत्तियां एंटीबैक्टीरियल गुणों से भरपूर होती है, जिसके कारण इनके माध्यम से किसी भी घाव को आसानी से ठीक किया जा सकता है। माइग्रेन का उपचार भी पत्तियों से संभव है। शिलांग में हुए वैज्ञानिक शोध में यह सिद्ध हुआ कि रुद्राक्ष की पत्तियां एंटी ऑक्सीडेंट है, अर्थात अधिक प्राणवायु का उत्सर्जन करती हैं।
आयुर्वेद के अनुसार रुद्राक्ष वृक्ष का सर्वांग आयुवर्धक है। इससे रक्त में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा को नियंत्रित किया जा सकता है। रुद्राक्ष का फल रक्त की कमी, बुखार, पीलिया, गठिया, ब्रोंकाइटिस, सर्दी जुकाम आदि में रुद्राक्ष चिकित्सक की भूमिका निभाता है। रुद्राक्ष तनाव विरोधी हैं, जो आज की सबसे बड़ी समस्या है। साथ ही पवित्रता के कारण यह पूजन अर्चन वंदन और साधना में तो काम आते ही हैं।