Hindi Kavita – समय का महत्व

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Hindi Kavita
locationभारत
userचेतना मंच
calendar04 Jul 2023 11:52 AM
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Hindi Kavita – समय कहता मैं तुम्हारे साथ हूँ समय की चाल निरन्तर चलती है। यह पल में अनेक रूप बदलता दुख दर्द और सुख का साथी बनता रोज अपने नए रंग, रूप दिखाता सब इसकी मर्जी से चलता अपना हर पल का महत्व बताता ये कभी रुकता नहीं थकता नहीं बस निरतंर ही चलता जाता हूँ इसके महत्व को अगर समझोगे जीवन में अपने लक्ष्य हासिल करोगे सारे काम समय पर ही होते चाहे हम कितने भी उत्सुक हो होगा काम समय पर ही इसलिए समय के महत्व को समझे समय कहता मैं तुम्हारे साथ हूँ। ————————————— यदि आपको भी कहानी, कविता, गीत व गजल लिखने का शौक है तो उठाइए कलम और अपने नाम व पासपोर्ट साइज फोटो के साथ भेज दीजिए। चेतना मंच की इस ईमेल आईडी पर-  chetnamanch.pr@gmail.com हम आपकी रचना को सहर्ष प्रकाशित करेंगे।

Rashifal 4 July 2023- इन 3 राशियों के लिए आज का दिन रह सकता है चुनौती भरा

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Hindi Kahani - एक और फालतू औरत 

Kahani
Hindi Kahani
locationभारत
userचेतना मंच
calendar03 Jul 2023 12:12 PM
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Hindi Kahani -  वह अप्रैल के शुरुआती दिनों की एक उदास शाम थी। थका देने वाली गर्मी और उमस से भरी हुई। हम सड़कों पर भटक रहे थे। कुछ देर हम जनपथ होटल के कॉफी लाउंज में बैठे रहे थे। धीरे-धीरे, बहुत ही धीरे, कॉफी के तीन-तीन प्याले ख़त्म किए थे हमने। न जाने कितना ज़माना उन तीन प्यालों के घूँटों के बीच में से फिसलता, रेंगता हुआ गुज़र गया था। शेष बची थी एक कड़वाहट और ख़ालीपन। दूसरा कप ओमा ने, ओमा यानी ओमप्रकाश ने केतली में से उँडेला था। कॉफी का थोड़ा-सा खाली प्याला भरकर जब वह उसमें दूध डालने लगा तो मैंने कहा, “नहीं, दूध नहीं।” “चीनी ?” “चीनी भी नहीं।” “काली कॉफी ?” “हूँ।” “रूसियों की तरह ?” और ओमा मुस्करा दिया। मुझसे प्रत्युत्तर में मुस्कराया नहीं गया। अजीब हालत थी मन की। ओमा की ज़िन्दगी में अपने फ़ालतू होने का अहसास जिस वक़्त बहुत टीसता था तो मेरा मन करता था, मैं कोई ऐसी नश्तर जैसी तेज़ बात कहूँ कि उसका साबुत और सामान्य खोल कट जाए। ऐसे समय उसके बाहरी साबुतपन से मुझे बड़ी कोफ़्त होती थी। कुछ तो ऐसा हो जो काट दे, बेशक आध इंच ही। उस चिकने खोल को। ग़िलाफ़ को। अन्दर का गूदड़ कहीं से तो नज़र आए! मगर जब मैं कतरन काट देती थी, कतरन भी नहीं, एक तीखी, सीधी लकीर, चमकते तेज़धार वाले चाकू से कटी हुई दरार, तो उसकी तिलमिलाहट देखकर मुझे अफ़सोस होने लगता था, अपने कमीनेपन पर। क्या चाहती थी मैं ? शायद कोई बहुत ही मासूम चीज़। जैसे एक मुहब्बत की गरमाहट से भरा घर, उसके किसी कमरे की प्राइवेसी में और अपनत्व में ओमा की छाती पर सिर रखकर बैठी हुई मैं। और किताबें, म्युज़िक और... शायद कुछ और भी। जो चाहिए था, उसका कुछ पता नहीं था। बस, इतना पता था कि जो चाहिए, वह नहीं है। और यदि वह नहीं था तो इसकी सरासर जिम्मेदारी ओमा की थी, क्योंकि सभी अहम फ़ैसले ओमा के हाथ में ही थे। कॉफी के तीन प्याले ख़त्म होते होते साढ़े सात बज गए थे। ओमा ने घड़ी देखी। जब भी ओमा की नाक के ऐन ऊपर माथे के बीचोबीच, तीन लकीरें पड़ जातीं, तब वह एक ऐसी घड़ी होती थी जिसमें कोई बात वह समझ नहीं पा रहा होता था। परंतु, ऐसी घड़ी कभी-कभी ही आया करती थी। अक्सर हर बात हर समय उसकी समझ में पूरी तरह आ जाती थी। लगता था जैसे आसपास की हर वस्तु पर, इर्द-गिर्द भटक रही हवा पर भी उसकी पूरी और कड़ी पकड़ हो। माथे के बीचीबीच पड़ने वाली इन तीन लकीरों को देखकर अक्सर उस पर मुझे बेहद दया आ जाती थी। दया और लाड़। मन पिघलकर बेवजह उसकी ओर बहने लगता था। “क्यों, क्या सोच रहे हो ?” “कुछ नहीं।” “कोई अपायेंटमेंट तो याद नहीं आ गई ?” मैं मुस्कराई। (कमबख़्त औरत भी माँ के पेट से एक्टिंग सीखकर आती है। अपने मर्द को खुश करने के लिए एक्टिंग, अपने लिए छोटी से छोटी रियायत लेने की खातिर एक्टिंग। अड़ोस-पड़ोस, नाते-रिश्तेदारों के दुःख-सुख की भाई-बंदगी के वक़्त एक्टिंग। इसी को ‘त्रिया चरित्र’ कहते हैं ? ताने में। निंदा में। पर क्यों ? इसमें जो मेहनत खर्च होती है, उसकी मज़दूरी का हिसाब क्यों नहीं किया जाता।) “नहीं, नहीं।” वह तुरंत बोला। “फिर ?” “तुम नजूमी को कैसे पता चल जाता है ?” वह भी सहज हो गया और मुस्करा दिया। ओमा मुस्कराता था तो उसके सामने के दो दांतों के कोनों पर कुछ चमकता था। जैसे खिली हुई धूप में रेत में पड़ी सीपियाँ चमक रही हों।... बाकी दांत निरी पीली रेत के रंग की तरह... बिलकुल साधारण-से, बल्कि थोड़े-थोड़े भद्दे भी। लेकिन आगे के दोनों दांतों के कोने चांदी के रंगे-से। जैसे सीपियों के भीतरी पेट का रंग। ओमा की मणियाँ उसके मस्तक में नहीं, आगे के दोनों दांतों में थीं। मुझे रिझाने के लिए ओमा को मोर की भाँति नाचने की ज़रूरत नहीं थी। बस, एक मुस्कराहट में अगले दोनों दांतों की मणियाँ को चमकाने की देर होती थी कि मेरा सारा जिस्म मोमबत्ती की तरह पिघलने लग जाता था। “नजूमी नहीं, अंतर्यामी।” “हाँ बाबा, अंतर्यामी।” “फिर बताओ, क्या सोच रहे थे ? इस अंतर्यामी बाबा से कुछ न छिपाना।” “यही कि साढ़े सात बजे गए हैं। पिक्चरें भी शुरू हो गईं हैं और प्ले भी। अब कहाँ चला जाए ?” एक काला बादल सुदूर आकाश पर दिखाई दिया। एकबार बिजली भी कौंधती हुई चमकी। गुस्से की, इल्ज़ाम की, बेसहारेपन की। इस मर्द ने मेरे साथ मिलकर एक घर बनाने की बजाय मुझे जिप्सी बना दिया था। ख़ानाबदोश ! लेकिन, फिर अन्दर बैठी एक शाश्वत औरत ने, जो शाश्वत एक्ट्रेस भी होती है, मानो चेतावनी दी, “देखना ! होशियार !” एक मुस्कराहट को मैंने लिपिस्टिक की तरह आहिस्ता से होंठों पर मला। “जगह तो है एक शंहशाहे आलम ! जान की ख़ैर पाऊँ तो अर्ज़ करूँ ?” “बोलो जी।” वह हँसा। “जहन्नुम में जाया जाए तो कैसा रहे ?” “ठीक है, चलते हैं।” करीब से गुज़र रहे वेटर से उसने बिल मंगवाया, पैसे दिए। जैसा कि उसकी आदत है, बिल वापस लिया और हम उठकर बाहर आ गए। साथ ही एक सवाल भी हमारे साथ उठकर बाहर आ गया कि शेष बची शाम कहाँ गुज़ारी जाए ? टैक्सी के पास रुककर उसने पूछा, “राणों के घर चलें ?” “तुमने तो बताया था कि एम.पी. वाली कोठी वे छोड़ रहे हैं।” “हाँ, कालू विलायत प्रस्थान करने से पहले उसे नए मकान में शिफ्ट कर गया था। मेरे पास पता है।” कालू यानी ओमा का दोस्त। वैसे नाम तो कुछ और था, जैसा कि दादियाँ, नानियाँ अपनी आत्मा के कल्याण के लिए प्रायः रख दिया करती हैं। सभी दोस्त उसको कालू ही कहकर पुकारते थे। “ठीक है, चलो।” मैंने कहा। जानती थी कि इस शाम की किस्मत में क़त्ल होना ही लिखा है, फिर बहस से भी क्या फ़ायदा। एक बड़े-से बंगले के आगे टैक्सी रुक गई। कोई सरकारी बंगला ही था यह भी। गेट के अन्दर घुसकर हम बंगले की बगल से होते हुए पिछवाड़े पहुँच गए। एक बेहद वीरान-सा लॉन था जिसकी घास समय से पहले ही बूढ़ी हो गई थी। लॉन के दूसरी तरफ़ एक कोने में एक बहुत बड़ा पेड़ था जिसकी टहनियों में घना अँधेरा छुपकर बैठा प्रतीत होता था। बड़ा मनहूस लग रहा था वह पेड़ और उजाड़-सा लॉन। पिछवाड़े के एक दरवाज़े पर दस्तक दी। दरवाज़ा राणो ने खोला। “आइए... आज कैसे रास्ता भूल गए इधर ?” “नहीं, रास्ता तो नहीं भूले, ख़ास तौर पर आए हैं, तुम्हारा हाल-चाल जानने।” एक छोटी-सी सीढ़ी चढ़कर कमरे के अन्दर जाते हुए ओमा ने कहा। पीछे पीछे मैं भी। राणो के बालों में भी बाहर लॉन में खड़े पेड़ की टहनियों जैसा अँधेरा छिपा हुआ था। बेहद उदास और बदहवास-सी लग रही थी वह। यह कमरा शायद उस बड़े बंगले की कोठरी रहा होगा जहाँ पहले लकड़ी-कोयला रखा जाता होगा। या फिर ख़ानसामे अर्थात चौका-बर्तन करने वाले मुंडू की खोली। बहुत छोटा-सा कमरा। एक कोने में चारपाई थी जिसने आधा कमरा घेरा हुआ था। दूसरे कोने में बिजली का छोटा-सा चूल्हा रखा था। पास में ही लावारिस से लुढ़के हुए दो-तीन कप- प्लेंटें। अजीब बदहवासी में। करीब ही पाँच-सात जैम की ख़ाली शीशियाँ और कॉफी के खाली डिब्बे पड़े हुए थे। शायद उनमें नमक-मिर्च-मसाले भरे हुए थे। मैले ढक्कन जिनके रंगों से ही मालूम हो रहा था कि इन डिब्बों में क्या है। चूल्हा भी जब जल न रहा हो, बुझा हुआ ठंडा चूल्हा, तो क्या बहुत अफ़सुर्दा नहीं लगता ? फटेहाल, उदास ? कमरे में अगर कोई पुराने ज़माने की चीज़ थी तो वह थी वही रेशमी रज़ाई जिसका रंग अब आतिशज़दा नहीं रहा था। परंतु, बुझते हुए चूल्हे के अंगारों की तरह अभी भी उस रज़ाई में पुरानी गरमाहट और पुरानी शोखी थोड़ी-बहुत बची हुई थी। दूसरी चीज़ थी- ट्रांजिस्टर। वही ट्रांजिस्टर जिसे कालू ने राणो को पहले तोहफ़े के रूप् में दिया था जब वह उसे उसके मित्रों के अनुसार, चंडीगढ़ से उड़ा लाया था। साधारण-से घर में पली और चंडीगढ़ सेक्रेटेरिएट में टाइपराइटर कूटने वाली राणो कालू की दौलत की चकाचौंध और मुहब्बत के रटे हुए फार्मूलों से दिगभ्रमित हो गई। होश लौटा तो वह लकड़ी-कोयले वाली एक कोठरी में थी, अकेली। कालू अपनी बीवी को विलायत की सैर कराने ले गया था, रिश्वत के तौर पर। एक औरत जिसका नाम बीवी होता है, जब उसका मर्द उससे कुछ चुराता है तो उसे रिश्वत देता है। जितनी बड़ी चोरी, उतनी ही बड़ी रिश्वत। लेकिन दूसरी औरत जो फालतू होती है - रखैल, उसे सिर्फ़ रोटी और कपड़े-गहने देकर बहलाया जा सकता है। अगर फ़ालतू औरत उस मर्द की मुहब्बत में गिरफ़्तार हो जाए तो उसे खुदा भी नहीं बचा सकता। हमारे अन्दर आ जाने से या तो कमरा सिकुड़ गया था, या फिर उसके अन्दर की हवा तीन व्यक्तियों के लिए पर्याप्त नहीं थी। कुछ था जो घुटन पैदा कर रहा था। कुछ था जो साँस को भारी कर रहा था। भारी और खुरदरा। “सुनाओ फिर, क्या हालचाल हैं ?” ओमा चारपाई की बीचोबीच फैलकर बैठ गया, बांहों से पीछे की तरफ़ सहारा लेकर। एक पाये पर मैं भी अपने आप को टिका लिया, पायताने की तरफ़। राणो चूल्हे के पास रखी पीढ़ी पर बैठ गई। “देख ही रहे हो...“ उसने अजीब उदासी-भरा जवाब दिया। “कोई चिट्ठी पत्री आई ?” “आई थी, कोई दस दिन हुए।” पिछले दस दिनों का खालीपन, ख़त का इंतज़ार और मायूसी, ये सब राणो की आवाज़ का हिस्सा थे। “राज़ी-खुशी ?” “हाँ, राज़ी-खुशी।” “और तुम ?” “मैं ?” उसने एकाएक चौंकते हुए ओमा की तरफ़ देखा। “तुम ठीक हो ?” “ठीक हूँ।” वह जैसे कुएँ में से बोली, रुआँसी आवाज़ में। कुछ देर तक पूरे कमरे में ख़ामोशी पसरी रही। ऐसी ख़ामोशी जो स्याह रात में चीखते हुए सायरन की आवाज़ के बाद फिज़ा में लटक जाती है, और हर वक़्त एक ख़तरा भी हवा में लटका रहता है उसके साथ। और कान अगली आवाज़ सुनने के लिए अँधेरे में एंटिना उठाकर खड़े रहते हैं - शायद फटते हुए बम की आवाज़ सुनने की खातिर। “कालू की चिट्ठी आई थी। लिखा था, प्लेटफार्म पर जो सामान छोड़ आया हूँ, उसका ख़याल रखना।” ओमा छोटी-सी हँसी हँसा। “अच्छा।” एक बेहद गहरा अँधेरा था जो राणो की आवाज़ से झर रहा था, राख जैसा, भुरभरा-सा। मैंने ओमा की ओर देखा। ऐसा कभी कभार ही होता था कि वह हड़बड़ाकर बात का उत्तर तलाश करे। राणो एक अज्ञात-सा चैलेंज, एक चुनौती-सी आँखों में भरकर उसकी तरफ़ देख रही थी। “कोई खातिर नहीं करोगी हमारी ? तुम्हारे मेहमान आए हैं।” ओमा ने चैलेंज को टाला और पैंतरा बदला। “दूध नहीं है, नहीं तो चाय...।” “कम पिया करो न दूध, चाय के लिए बचाकर रखा करो।” “नहीं, आज सवेरे लाई ही नहीं थी।” “क्यों ?” “रात में गर्मी लगती है, नींद नहीं आती। बड़ी उमस होती है कमरे में। तड़के जाकर आँख लगती है। तब तक दूध का डिपो बंद हो जाता है।” मैंने कमरे में चारों तरफ़ निगाहें दौड़ाईं। चार अंगुल जगह के गिर्द खड़ी हुई दीवारों से टकराकर मेरी नज़र वापस लौट आई। कोई खिड़की नहीं थी। रोशनदान का तो वैसे ही आजकल रिवाज़ नहीं रहा है। पिछली दीवार में एक दरवाज़ा था जो स्थायी तौर पर बंद लग रहा था। शायद, दूसरी तरफ़ से मकान-मालिक ने बंद किया होगा। जब राणो चंडीगढ़ से कालू के संग भागकर आई थी, तब शायद वह नहीं जानती थी कि कालू की दौलत उसे घर नहीं दे सकती थी। “कोई व्हिस्की-शिस्की निकालो।” “व्हिस्कियों वाले तो विलायत चले गए। यहाँ तो बस खाली बोतलें हैं।” राणों ने गहरी साँस ली। “अच्छा !” ओमा झेंपते हुए हँसा। कुछ देर चुप्पी रही। “दिन भर क्या करती रही हो ?” “सड़कें नापा करती हूँ।” “कौन कौन सी नाप ली ?” “नाम याद नहीं रखती।” “सड़कें भी अधिक न नापा करो। सड़कों पर चलने वाली अकेली औरतों को जानती हो, विलायत में क्या कहते हैं ?” “क्या ?” “स्ट्रीट वाकर।” ओमा हँसा। मैंने काँपकर राणो के चेहरे की तरफ़ देखा। उसका चेहरा वीरान सड़क-सा सपाट था। जैसे बात उसकी समझ में न आई हो। “अच्छा, कहते होंगे।” वह शायद कुछ और ही सोच रही थी। मैंने ओमा की तरफ़ देखा। एक अजीब-सा अहसास हुआ कि यह आदमी खूँखार होने की हद तक ज़ालिम हो सकता है - क्रुअल ! कायदे से तो उस समय मुझे ओमा से भिड़ जाना चाहिए था, राणो की हिमायत में, क्योंकि वह भी मेरे कबीले की ही औरत थी - फ़ालतू औरतों के क़बीले की। और फ़ालतू औरतें लड़ा नहीं करती। लड़ने का अधिकार केवल बीवियों के पास होता है। फ़ालतू औरत के लिए अपने मर्द से लड़ना जानते-बूझते कुएँ में कूदने जैसी बात होती है। और तब मेरे भीतर दुबके बैठे कमीनेपन ने निर्णय लिया कि मेरा इरादा अभी आत्मघात करने का नहीं है। फिर बहुत देर तक सब शांत बैठे रहे। “चलें अब ?” ओमा ने मेरी ओर देखा। “हूँ...।” मैं उठकर खड़ी हो गई। राणो भी उठ खड़ी हुई। “अगली बार चिट्ठी लिखे तो लिख देना कि साहनी चौथे-पाँचवे दिन आकर बीस रुपये दे जाता है। और मैं भूखी मर रही हूँ।” “साहनी आता है ?” ओमा सावधान हुआ। “वो ही उसे कहकर गए थे।” राणो ने बाहर का भिड़ा हुआ दरवाज़ा खोल दिया। भीतर की उमस के बाद उस अँधेरे उजाड़-से लॉन में घूमती हवा बड़ी भली लगी। सुखमय। आसानी से साँस आया। चुपचाप, छोटे छोटे कदमों से बंगले की बग़ल से होते हुए हम तीनों गेट पर पहुँच गए। बाहर सड़क रोशनी में चमक रही थी। हल्की हवा और रोशनी। “अच्छा,” कहकर हम विदा लेने लगे। राणो ने धीरे स्वर में कहा, “फिर जल्दी फेरा लगाना।” सड़क ख़ामोश थी। आवाज़ाही बहुत कम थी इस तरफ शायद। सड़क के दोनों ओर बड़े घेर वाले पेड़ खड़े थे। गहरे अँधेरे की चादर ओढ़े हुए। मुँह-सिर लपेटे। शायद जामुन के पेड़े थे। हवा उस वक़्त भी धीमी धीमी चल रही थी, जब हम एक पेड़ के नीचे से हल्के कदमों से चलते हुए गुज़र रहे थे। पेड़ में से आहिस्ता आहिस्ता सुबकने की आवाज़ आई। “यह क्या है ?” मैं ठिठककर खड़ी हो गई। चौंककर और डरकर भी शायद। “क्या है ?” “कोई सिसक रहा है।” “कहाँ ?” ओमा ने पूछा। “कहीं नहीं।” मैं चल पड़ी।
  • अजीत कौर
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Hindi Kavita – कहीं तो आशियाना होगा

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locationभारत
userचेतना मंच
calendar03 Jul 2023 12:04 PM
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Hindi Kavita – कोई जगह होगी, जहाँ से न जाना होगा, इस परिंदे का कहीं तो आशियाना होगा। न जाने किस शय का मुन्तज़िर है अब, न जाने किस ओर अब ठिकाना होगा। कई चेहरों सा दिखने लगा है अब चेहरा, शायद इसलिए उसने न पहचाना होगा। देख कर मुझे भी उतनी ही हैरत होती है, आईना भी मेरी तरह बहोत पुराना होगा। अब तू ही कुछ बोल बेचैन दिल मेरे, क्या फिर से मुझे सब कुछ बताना होगा? ————————————— यदि आपको भी कहानी, कविता, गीत व गजल लिखने का शौक है तो उठाइए कलम और अपने नाम व पासपोर्ट साइज फोटो के साथ भेज दीजिए। चेतना मंच की इस ईमेल आईडी पर-  chetnamanch.pr@gmail.com हम आपकी रचना को सहर्ष प्रकाशित करेंगे।

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