Political News- अगर ममता बनर्जी भवानीपुर हारीं तो क्या होगा

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Mamta Banarjee
locationभारत
userसुप्रिया श्रीवास्तव
calendar29 Nov 2025 07:22 PM
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नई दिल्ली। पश्चिम बंगाल में 30 सितंबर को तीन सीटों के लिए हुए उपचुनाव में आज ममता बनर्जी (Mamta Banerjee)  की किस्मत का फैसला हो जाएगा। बंगाल में हुए विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी नंदीग्राम से चुनाव लड़ी थीं जहां उन्हें भारतीय जनता पार्टी के सुवेंदु अधिकारी ने करारी शिकस्त दी थी। उसके बाद ममता बनर्जी ने भवानीपुर (Bhavanipur) से किस्मत आजमाने का फैसला किया था। जिसका परिणाम आज आ जाएगा। भवानीपुर के अलावा, मुर्शिदाबाद जिले की समसेरगंज सीट और जांगीपुर सीट के उपचुनाव के नतीजे भी आज ही घोषित कर दिए जाएंगे। जानकारी के अनुसार मतों की गिनती का काम शुरू हो चुका है। इस दौरान शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए भारी संख्या में पुलिस और अर्द्धसैनिक बल तैनात कर दिए गए हैं।

चुनावी अखाड़े में किस्मत आजमा रहीं राज्य की मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) सुप्रीमो ममता बनर्जी (Mamta banarjee) के लिए यह उपचुनाव बेहद अहम है क्योंकि मुख्यमंत्री पद पर बने रहने के लिए उन्हें यहां से हर हाल में जीतना होगा। टीएमसी के साथ राज्य में मुख्य विपक्षी भाजपा यहां से अपनी-अपनी जीत के दावे कर रही हैं। तृणमूल कांग्रेस ने दावा किया है कि ममता को यहां 50 हजार वोटों से जीत मिलेगी। उधर, भाजपा भी मैदान मारने का दावा कर रही है। भाजपा ने ममता के खिलाफ प्रियंका टिबरेवाल को मैदान में उतारा है। भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने कहा कि भवानीपुर में भाजपा बहुत अच्छी टक्कर देगी। उन्होंने पार्टी की जीत की उम्मीद जताई है।

भवानीपुर (Bhavanipur) हार के बाद ममता बनर्जी का क्या होगा? इसी बीच बंगाल के सियासी हलकों में यह चर्चा भी हो रही है कि अगर ममता बनर्जी भवानीपुर उपचुनाव हार जाती हैं तो क्या होगा? इस बात की भी बहुत अधिक संभावना है कि ममता बनर्जी (Mamta banarjee) उपचुनाव हारने वाली इतिहास की तीसरी मुख्यमंत्री बन सकती हैं। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य में चुनाव के बाद हुई हिंसा को ध्यान में रखते हुए, चीजें उनके पक्ष में नहीं दिख रही हैं। नियम के मुताबिक ममता बनर्जी को सरकार बनने के छह महीने के अंदर विधायक बनना होगा। संविधान के अनुच्छेद 164 के अनुसार, एक मंत्री जो लगातार छह महीने की अवधि के लिए राज्य के विधानमंडल का सदस्य नहीं है, उस अवधि की समाप्ति पर मंत्री नहीं रह सकता है। ऐसे में अगर ममता उपचुनाव हार जाती हैं तो उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना होगा और टीएमसी को सत्ता में बने रहने के लिए विधायक दल का नया नेता चुनना होगा। अगर टीएमसी किसी और को विधायक दल का नेता नहीं चुनती है तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो सकता है।

क्या एक बार फिर बंगाल में दोहराया जाएगा इतिहास? 1970 में, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह उपचुनाव हार गए थे और बाद में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। इसके बाद 2009 में, झारखंड के पूर्व सीएम शिबू सोरेन भी उपचुनाव में हार गए थे। सोरेन की हार के परिणामस्वरूप राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ममता त्रिभुवन नारायण सिंह या शिबू सोरेन की तरह इतिहास दोहराएंगी, जो मुख्यमंत्री रहते हुए उपचुनाव चुनाव हार गए थे।

सुवेंदु अधिकारी से हार गई थीं ममता 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में, ममता बनर्जी (Mamta banarjee) नंदीग्राम सीट से भाजपा के सुवेंदु अधिकारी से हार गई थीं, जिसके परिणाम को कलकत्ता उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है। ममता बनर्जी ने अधिकारी के चुनाव को तीन आधारों पर शून्य घोषित करने की मांग की है- भ्रष्ट आचरण, धर्म के आधार पर वोट मांगना और बूथ पर कब्जा करना। उन्होंने दोबारा मतगणना की उनकी याचिका को खारिज करने के चुनाव आयोग के फैसले पर भी सवाल उठाया है।

भवानीपुर गुजराती बाहुल्य क्षेत्र : भवानीपुर में 70 प्रतिशत से अधिक गैर-बंगाली हैं और यहां गुजराती आबादी की बहुलता है, यही ममता बनर्जी के लिए चिंता की सबसे बड़ी बात है।

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राज्य में विधान परिषद का न होना भी बन सकता है ममता की राह का रोड़ा : यदि राज्य में विधान परिषद होता तो विधान परिषद के सदस्य के रूप में ममता को चुना जा सकता था। जैसे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और यूपी के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ भी शपथ लेने के वक्त किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे। बाद में दोनों विधान परिषद के सदस्य बने। लेकिन पश्चिम बंगाल में विधान परिषद नहीं है जिसकी वजह से ममता की राह कठिन है। इसलिए उनके लिए भवानीपुर उपचुनाव जीतना बेहद जरूरी है। आजादी के बाद 5 जून 1952 को बंगाल में 51 सदस्यों वाली विधान परिषद का गठन किया गया था। बाद में 21 मार्च 1969 को इसे खत्म कर दिया गया था। ऐसे में ममता को मुख्यमंत्री बने रहने के लिए छह महीने के भीतर किसी सीट से विधानसभा चुनाव जीतना अनिवार्य है। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के साथ भी यही समस्या आई थी। चूंकि राज्य में विधानसभा चुनाव होने में एक साल बचा था इसलिए उपचुनाव की संभावना बहुत कम रह गई रही थी और राज्य में विधान परिषद नहीं होने के कारण यहां से भी उनके चुन कर आने का विकल्प नहीं था। लिहाजा उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था। बता दें कि ममता बनर्जी (Mamta banarjee)के लिए टीएमसी पार्टी के विजयी उम्मीदवार शोभंदेब चट्टोपाध्याय ने इस सीट से इस्तीफा दे दिया था ताकि मुख्यमंत्री 30 सितंबर को चुनाव लड़ सकें। यह सीट 21 मई से खाली है।

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बदल चुकी है भारत की राजनीति, ये 9 संकेत कर रहे साफ इशारा

Indian Politics
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locationभारत
userचेतना मंच
calendar02 Oct 2021 10:15 PM
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1. फिलहाल, इन नेताओं के इर्द-गिर्द घूम रही है राजनीति ऐसे कौन से नेता हैं जो फिलहाल भारत की राजनीति में ज्यादा लोकप्रिय हैं या जिनके इर्द-गिर्द भारत की राजनीति घूमती है? इसके जवाब में हर व्यक्ति अपनी पसंद के मुताबिक एक लिस्ट बना सकता है, जिसमें अलग-अलग नेताओं के नाम शामिल हो सकते हैं। लेकिन, शायद ही कोई इन 10 नेताओं को उस लिस्ट में शामिल करने से मना करेगा... 1. अमित शाह (56) 2. योगी आदित्यनाथ (49) 3. अरविंद केजरीवाल (53) 4. राहुल गांधी (51) 5. हिमंता विश्व शर्मा (52) 6. जगनमोहन रेड्डी (48) 7. कन्हैया कुमार (34) 8. जिग्नेश मेवानी (38) 9. हार्दिक पटेल (28) 10. नवजोत सिंह सिद्धू (57) आदि।

2. इस लिस्ट से बाहर हो चुके हैं पीएम मोदी इन नेताओं में प्रधामंत्री नरेंद्र मोदी शामिल नहीं हैं, क्योंकि वह अपने राजनीतिक जीवन के शिखर पर हैं। अब तो बीजेपी और आरएसएस में भी उनके उत्तराधिकारी के बारे में अटकलें लगनी शुरू हो चुकी हैं।

राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के बाद कौन? इस सवाल के जवाब में अमित शाह, योगी आदित्यनाथ, अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी और राहुल गांधी का नाम लिया जाता है।

3. तेजी से उभर रहे हैं ये नेता हालांकि, हिमंता विश्व शर्मा, जगन मोहन रेड्डी, कन्हैया कुमार, जिग्नेश मेवानी और हार्दिक पटेल जैसे नेता भी सुर्खियां बटोरने और लोकप्रियता के मामले में काफी आगे हैं। इन नेताओं का राष्ट्रीय राजनीति में दखल और असर भी साफ तौर पर देखा जा सकता है।

केरल में पिन्नाराई विजयन, ओडीशा में नवीन पटनायक या मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान भी ऐसे ही नेताओं में शुमार हैं, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में इनका दखल ना के बराबर है।

4. फिलहाल ऐसी दिखती है भारतीय राजनीति की तस्वीर नेताओं की ये कतार और उनका असर इस बात का साफ संकेत है कि मोदी-अमित शाह और बीजेपी-आरएसएस की बंदिश (combination) कितनी ही मजबूत क्यों न दिखे लेकिन, उसे चुनौती देने वालों की कमी नहीं है।

नेताओं की इस फेहरिस्त में वामपंथी से लेकर दक्षिणपंथी और सेक्युलर से लेकर क्षेत्रवाद, हर तरह की विचारधारा को मानने वाले नेता शामिल हैं। यह इस बात का भी संकेत है कि दिल्ली में सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो लेकिन, भारत में हर विचाराधारा के मानने वाले और उसके समर्थक मौजूद हैं। अलग-अलग राज्यों में इन नेताओं और राजनीतिक दलो की मजबूत उपस्थिति इस बात का सबूत है।

केरल में कम्यूनिस्ट पार्टी, दिल्ली में आम आदमी पार्टी, पंजाब में कांग्रेस, ओडीशा में बीजू जनता दल या पश्चिम बंगाल में टीएमसी की मजबूत उपस्थिति भारतीय राजनीति के संघीय स्वरूप और भारत की वैचारिक विविधता का प्रमाण है।

5. कमजोर जनाधार वालों के पास है यह बहाना भारतीय राजनीति की इस विविधता को स्वीकार न करने वाले यह रोना रोते हैं कि देश हिंदू-मुसलमान में बंट गया है। इसके लिए वह पिछले दो लोकसभा चुनावों में बीजेपी और मोदी की जीत को भारत की विविधता पर संकट बता कर अपना राजनीतिक स्वार्थ साधना चाहते हैं।

वह भूल जाते हैं कि केरल से लेकर दिल्ली विधानसभा के चुनावों में बीजेपी को कितनी बुरी हार का सामना करना पड़ा है। हाल ही में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजे इसका सबसे बड़ा प्रमाण हैं।

राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर काम कर रहे इन नेताओं या राजनीतिक दलों की उपस्थिति ही बीजेपी और मोदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। छोटे से छोटे राज्य के विधानसभा चुनावों में बीजेपी का पूरी ताकत के साथ लड़ना यह बताता है कि वह किसी भी प्रतिद्वंदी को हल्के में नहीं लेते।

6. क्यों राजनीति बन गई टेढ़ी खीर यह इस बात का भी संकेत है कि फिलहाल भारत में राजनीति करना आसान काम नहीं है क्योंकि, कम्पटीशन बहुत तगड़ा है।

किसी भी दल या नेता के लिए खुद को दूसरे से बेहतर साबित करने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ेगी। क्योंकि, सामने वाला भी राजनीति को लेकर उतना ही गंभीर है और 24/7 मेहनत करता है।

7. ब्लेम गेम की पॉलिटिक्स का जमाना गया आज की राजनीति में अपने विरोधी दल, विचारधारा या नेता पर आरोप लगाना या उसे बदनाम करने भर से जनता का विश्वास और वोट नहीं पाया जा सकता।

टीवी पर गरमागरम डिबेट करने, सोशल मीडिया पर पॉपुलर होने और इंटरनेट पर सनसनी खड़े करने वाले व्यू या पेज व्यू तो पा सकते हैं, लेकिन वोट नहीं। यह भारतीय मतदाताओं के परिपक्व होने और दिखावे से प्रभावित न होने का भी प्रमाण है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण नवीन पटनायक हैं जो मीडिया या सोशल मीडिया से दूर रहने के बावजूद लगातार पांच बार मुख्यमंत्री बनने में सफल हुए हैं।

8. जो जितना स्पष्ट उसे उतना वोट आज हर राजनीतिक दल और नेता के सामने दो तरफा प्रतिस्पर्धा है। एक ओर उसके राजनीतिक प्रतिद्वीं हैं, तो दूसरी ओर ऐसा मतदाता है जो ढोंग (Hypocrisy) बिलकुल पसंद नहीं करता। वह ओवैसी और साध्वी प्रज्ञा को तो बर्दास्त कर सकता है, लेकिन टोपी पहनने और मंदिर जाने का दिखावा करने वाले नेता उसे बिलकुल पसंद नहीं आते।

आज का वोटर साफगोई पसंद करता है। वह जानना चाहता है कि आखिर आपकी पॉलिटिक्स क्या है? वह चाहता है कि जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से जुड़ी समस्याओं पर खुलकर बात हो ताकि उसका समाधान हो और आगे की बात हो सके। यही कारण है कि तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले दल आज सबसे ज्यादा कमजोर महसूस कर रहे हैं।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से जुड़ी समस्याएं हैं। शायद यही वजह है कि इन समस्याओं पर परदा डालने की बजाए, खुलकर बात करने और समाधान की ओर बढ़ने वाले नेता ज्यादा पसंद किए जाते हैं।

9. क्या यह बदलाव सही है? ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि राजनीति में इस बदलाव की वजह क्या है? क्या भारतीय समाज बदल रहा है जिसका नतीजा आज की राजनीति है? या इसका उलटा है? यह ठीक वैसे ही है कि पहले अंडा आया या मुर्गी? लेकिन, संकेत साफ है कि राजनीति बदल चुकी है। जो इस बदलाव को स्वीकार करते हैं उन्हें भारत के टूटने या बिखरने का कोई डर नहीं है। जो यह स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं उन्हें लगता है कि यह बदलाव भारत के टुकड़े कर देगा। वह चाहते हैं कि राजनीति उसी ढर्रे पर चलती रहे जैसे तीस, चालीस या पचास साल पहले चलती थी, क्योंकि वही राजनीति उन्हें सूट करती थी।

- संजीव श्रीवास्तव

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जन चेतना न्यूज: चुनाव आयोग का बड़ा फैसला, लोजपा (LJP) का सिंबल किया फ्रीज

locationभारत
userसुप्रिया श्रीवास्तव
calendar02 Oct 2021 05:22 PM
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नई दिल्ली। चाचा-भतीजे की आपसी खींचतान के चलते चुनाव आयोग ने आज बड़ा फैसला करते हुए लोजपा का सिंबल 'बंगला' फ्रीज कर दिया है। चुनाव आयोग के इस फैसले के बाद विवाद सुलझने तक कोई भी गुट इस सिंबल का चुनावों में इस्तेमाल नहीं कर पाएगा। हालांकि चुनाव आयोग ने दोनों ही पक्षों को अपनी ओर से हल निकालने के लिए कहा है। आयोग ने कहा कि चिराग और पारस अपने-अपने पक्ष और चिह्न का चयन कर लें।

आपको बता दें कि लोक जन शक्ति पार्टी (LJP) के संस्थापक और पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के निधन के बाद पार्टी के 5 सांसदों ने बगावत कर दी थी। बागी सांसदों के इस गुट का नेतृत्व चिराग पासवान के चाचा पशुपति कुमार पारस कर रहे थे। उनके नेतृत्व वाले गुट ने खुद को असली लोक जन शक्ति पार्टी बताते हुए स्पीकर से लोक सभा में जगह देने की मांग की, जिसे स्पीकर द्वारा स्वीकार कर लिया गया था। इसके बाद पशुपति कुमार पारस को केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी शामिल कर लिया गया था।

दरअसल दोनों के बीच चल रहे टकराव का ताजा रण बिहार में हो रहे उपचुनाव बन गए हैं। एक ओर रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान अपने नेतृत्व वाली पार्टी को 'असली' बताते हुए बिहार में पदयात्राएं निकाल रहे हैं। तो वहीं दूसरी ओर पशुपति पारस गुट इस घोषणा को असंवैधानिक करार दे रहा है। इसके बाद असली और नकली की लड़ाई ने चुनाव आयोग में दस्तक दे दी थी। हालांकि शुक्रवार को बिहार बीजेपी अध्यक्ष डा. संजय जायसवाल ने साफ कर दिया था कि लोजपा के मालिक पशुपति कुमार पारस हैं। उन्होंने कहा था कि बिहार की दो सीटों पर होने वाले उप चुनाव में केंद्रीय मंत्री पशुपति पारस एनडीए के उम्मीदवार को समर्थन में प्रचार करेंगे।

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सूत्रों के मुताबिक चिराग और पारस, दोनों गुटों को 4 अक्टूबर को 1 बजे तक अपनी पार्टी का नाम और नए सिंबल के लिए आयोग में आवेदन देना होगा। इसके बाद दोनों को अलग-अलग चुनाव चिह्न आवंटित किए जाएंगे। वे चुनाव आयोग द्वारा आवंटित चुनाव चिह्नों का ही उप-चुनाव में इस्तेमाल कर सकेंगे। हालांकि इसके साथ ही दोनों गुटों को 5 नवंबर तक 'बंगला' चुनाव चिह्न पर दावा और सबूत पेश करने के लिए भी कहा गया है। उसके बाद आयोग अपने विवेकानुसार इस मामले पर फैसला लेगा।