धर्म - अध्यात्म : सुख पाने की लालसा भी दु:ख का कारण बनती है!

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calendar29 Nov 2025 03:50 AM
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विनय संकोची

इस संसार में विरले ही होंगे जो कामना से रहित हों। कामना का अर्थ - 'अपने मन की हो जाना है'। 'मेरे मन की हो जाए' - यही तो कामना है और जहां कामना का आधिपत्य हो वहां भक्ति और भगवान का वास नहीं होता है, क्योंकि कामना करने वाला संसार में मन लगाता है और जिसका मन संसार में लगा हो उससे भगवान दूर हो जाते हैं। शास्त्र कहते हैं कि कामना ही दु:ख का कारण है। इस बात को अधिकांश लोग जानते भी हैं और मानते भी हैं, लेकिन इसका त्याग नहीं कर पाते। कामना का त्याग किए बिना कोई सुखी हो ही नहीं सकता है।

सुख प्राप्ति की चाहना से, सुख प्राप्ति की कामना से व्यक्ति अपने मार्ग से भटक जाता है और उस दिशा की ओर अग्रसर हो जाता है जहां सुख पाने की लालसा उसे दु:खों के दलदल में उतर जाने को विवश कर देती है। एक सुख की कामना अनेकानेक दु:खों का कारण बनती है। इस बात को लोग जानते तो हैं लेकिन मानने को तैयार नहीं होते हैं। इस सत्य को स्वीकार करने में कामना ही तो बाधा बनती है।

संत महापुरुषों का कथन है कि कामना उत्पन्न होते ही मनुष्य अपने कर्तव्य से, अपने स्वरूप से और अपने इष्ट से विमुख हो जाता है और नाशवान संसार के सम्मुख हो जाता है। कामना व्यक्ति को यह तक सोचने समझने का अवसर नहीं देती की कामना मात्र से कोई भी वस्तु अपनी नहीं हो सकती और अगर हो भी जाती है तो सदा साथ नहीं रहती है।

जब-जब व्यक्ति संयोगजन्य सुख की कामना करता है, तब तक उसका जीवन कष्टमय हो जाता है। लोग इस बात को समझने का प्रयास ही नहीं करते हैं कि इच्छा के अनुसार सबको कुछ कभी नहीं मिलता है और जो कुछ मिलना होता है वह बिना कामना के भी प्राप्त हो जाता है। इसका अर्थ यह है कि कामना व्यर्थ है। कामना भटकाव का पर्याय है यदि यह सांसारिक वस्तुओं के लिए है, तो लोग इस बात को क्यों नहीं समझते कि जैसे बिना चाहे तमाम तरह के सांसारिक दु:ख मिलते हैं, ऐसे ही बिना चाहे सुख भी मिलते हैं, फिर कामना से, इच्छा से लाभ ही क्या है?

कामना अशांति की जननी है। कोई कामना की कोई इच्छा की और वह पूरी नहीं हुई तो व्यक्ति बेचैन हो जाता है, उसकी शांति भंग हो जाती है। जो चाहो वह मिल जाए, जैसा सोचा वैसा हो जाए, जब तक यह कामना रहेगी तब तक शांति तो नहीं मिल सकती है। कामना शांति की बैरन जो ठहरी। ऋषियों की वाणी है कि कुछ चाहने से कुछ मिलता है या नहीं मिलता है परंतु कुछ ना चाहने से, कामना रहित रहने से तो सब कुछ मिल जाता है, मिलता है। यह तर्क का नहीं आस्था का विषय है।

व्यक्ति दूसरों से सहयोग की कामना करता है, व्यक्ति दूसरों से अच्छा कहलाने की इच्छा रखता है, लेकिन वह दूसरों की कामना पूर्ति में सहयोग करने की इच्छा नहीं रखता, वह अच्छे कहलाने की इच्छा तो पाल लेता है लेकिन अच्छा बनने की दिशा में कदम बढ़ाने से बचता है। प्रशंसा योग्य न होने के बावजूद, प्रशंसा पाने की इच्छा अवसाद का कारण बनती है। जो प्रशंसा योग्य होता है, वह प्रशंसा पाने की कामना से परे रहता है। तो कामना से कुछ होता नहीं है, उसके लिए सतत प्रयास की आवश्यकता होती है, ऐसे प्रयास की जो कामना रहित हो।

इस अटल सत्य को भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि कामना त्याग से जो सुख प्राप्त होता है, वह सुख कामना की पूर्ति से भी नहीं मिलता है। वैसे भी जिसे हम हमेशा के लिए अपने पास नहीं रख सकते, अपना नहीं बना सकते उसकी इच्छा करने, उसकी कामना करने से क्या लाभ।

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नि:संकोच : लोकतंत्र में लोकनीति क्यों नहीं?

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 विनय संकोची

लोकतंत्र का शाब्दिक अर्थ है- लोगों का शासन जनता का शासन। अमेरिका के राष्ट्रपति एवं विचारक अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र की सर्वमान्य परिभाषा दी जिसके अनुसार - 'लोकतंत्र जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है।' लेकिन क्या हमारे देश में जनता का शासन है? यह प्रश्न इसलिए बनता है क्योंकि यहां राजनीति है, लोकनीति नहीं, जननीति नहीं, राजनेता हैं, जननेता नहीं हैं।

हमारे यहां तो तमाम चेहरे-मोहरे और सोच वाले राजनीतिक दल हैं, लेकिन एक भी जननीतिक दल नहीं है। भारत में राजनेताओं के जंगल उगा हुआ है, कोई जननेता दिखाई नहीं पड़ता है। यहां 'राज' की बात होती है 'लोक' को लेकर कोई गंभीर नहीं है। हमारे अपने संविधान में 'जन' और 'प्रजा' जैसे शब्दों को प्राथमिकता दी गई है, लेकिन राजनीति इन पर हावी है। राजे रजवाड़ों के जमाने में, बादशाहों की सल्तनत में, अंग्रेजों के शासन काल में तो राजनीति शब्द का प्रयोग उचित था, क्योंकि राजा, बादशाह, अंग्रेज राज करना चाहते थे और राजनीति करते थे। देश आजाद हो गया देश में लोकतंत्र स्थापित हो गया लेकिन हो आज भी राजनीति ही रही है। जन नेता होते तो जनता की सेवा को समर्पित रहते लेकिन वह तो राजनेता हैं, इसलिए जनता से अपनी सेवा की अपेक्षा ही नहीं रखते बल्कि सेवा करवाते भी हैं। तथाकथित जनप्रतिनिधि वास्तव में राज्य कहें या सरकार, के प्रतिनिधि की तरह काम करते हैं।

इतिहास गवाह है कि आज तक तमाम सरकारें जो नीतियां बनाती है उनकी नींव में राजनीति का पत्थर अवश्य ही लगा रहता है। नीतियों की घोषणा, योजनाओं की घोषणा, राजनीतिक फायदे का समय देखकर की जाती है। लोक को मात्र वोट समझने वाले अधिकारी नेताओं का व्यवहार राजे रजवाड़ों से अलग नहीं होता है। लोकतंत्र का 'लोक' अपने ही द्वारा चुने गए तथाकथित जनप्रतिनिधियों से मिलने जाता है, तो उसकी बात एहसान के रूप में सुनी जाती है। 'लोक' को अपने ही द्वारा चुने गए प्रतिनिधि से सवाल करने तक का अधिकार जहां न हो, वहां लोकतंत्र की कल्पना ही बेमानी है। हम छद्म लोकतंत्र में जी रहे हैं। हमारे हाथ में केवल वोट डालना है। समझ बूझ कर या बहकावे में आकर अपनी पसंद या ना पसंद का नेता चुनना है। नेता को राजनेता बनाकर अपने ऊपर शासन करने का अधिकार देना है। क्या इसी को लोकतंत्र कहा जा सकता है, जहां सच बोलने का वाले राजद्रोही घोषित कर दिए जाते हैं। जहां आप भगवान को तो बुरा भला कह सकते हैं, भगवान पर तो सुविधाएं उपलब्ध न कराने का आरोप सरे बाजार लगा सकते हैं लेकिन जिस 'राजा' को हमने चुना है, उससे कोई प्रश्न नहीं कर सकते हैं। न उसकी किसी नीति पर उंगली उठा सकते हैं। क्या लोकतंत्र में 'लोक' की यही दुर्गति होती है।

सबसे बड़ा संकट यह है कि 'लोक' से ही 'लोक' को भिड़वा कर लोकतंत्र की दुहाई देने वाले राजनेता, जननेता होना ही नहीं चाहते हैं। विडंबना यह है कि गांधारी की तरह अपनी आंखों पर जानबूझकर पट्टी बांधकर घूमने वाला 'लोक' का एक हिस्सा 'तंत्र' के शोषण, दुराभाव तथा भेदभाव को महिमामंडित करने का काम कर रहा है। राजनेता, राजनीति, राजनीतिक दल जिन्हें 'राज' प्रिय है, कभी भी सच्चे लोकतंत्र को मन से स्वीकार नहीं कर सकते हैं। लोकतंत्र जनता के द्वारा जनता के लिए जनता का शासन है, यह बात किताबी है, व्यवहारिक नहीं। बाकी सोच सबका अपना-अपना।

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जयंती : शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान है मौलाना आज़ाद का

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calendar29 Nov 2025 12:15 PM
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 विनय संकोची

मानव सभ्यता के उदय काल से भारत अपनी शिक्षा और दर्शन के लिए प्रसिद्ध रहा है। यह भारतीय शिक्षा का ही कमाल है कि भारत की संस्कृति ने सदैव संसार का पथ प्रदर्शन किया। आज भी दार्शनिक और शिक्षा शास्त्री इस बात का प्रयास कर ही रहे हैं कि भारतीय शिक्षा का स्तर प्राचीन भारत की तरह समुन्नत रहे। 'दिल से दी गई शिक्षा समाज में क्रांति ला सकती है'- यह शब्द हैं भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद के जिनकी आज जयंती है और इस दिन को 'राष्ट्रीय शिक्षा दिवस' के रूप में मनाया जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि शिक्षा के क्षेत्र में भारत ने काफी प्रगति की है लेकिन सच यह भी है कि आज भी भारत की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा अनपढ़-अशिक्षित है। निरक्षर को साक्षर बनाने के लिए योजनाएं तो तमाम बनी हैं और बन रही है लेकिन निरक्षरों की संख्या में बहुत ज्यादा कमी नहीं आई है। सच कहा जाए तो शिक्षा का स्तर विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में गिरा ही है। कहीं विद्यालयों की कमी है और कहीं विद्यालय हैं तो अध्यापकों का अभाव है। जो विद्यालय हैं भी तो उनमें से बहुत तो बुरी अवस्था में हैं। हां कागजों पर शिक्षा को लेकर सब कुछ ठीक चल रहा है। शिक्षा की बुनियाद को मजबूत करने की आवश्यकता पर कोई खास काम नहीं हो रहा और जो हो रहा है उसके सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आ रहे।

देश के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद ने न केवल देश की आजादी की लड़ाई में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया, हिंदू-मुस्लिम एकता की नींव रखी अपितु उन्होंने ही देश में आईआईटी, आईआईएम और यूजीसी जैसे संस्थानों की नींव रखी। मौलाना आजाद ने धर्म के आधार पर पाकिस्तान के गठन का खुलकर विरोध किया था।

मौलाना आजाद का जन्म 11 नवंबर 1888 को मक्का, सऊदी अरब में हुआ था और उनका असल नाम अबुल कलाम गुलाम मोहिउद्दीन अहमद था लेकिन वह मशहूर हुए मौलाना आजाद के नाम से। साल 1890 में उनका परिवार मक्का से कोलकाता आ गया था। मौलाना आजाद ने 1912 में 'अल हिलाल' नाम से साप्ताहिक पत्रिका निकालकर सांप्रदायिक सौहार्द और हिंदू मुस्लिम एकता को बढ़ावा देना शुरू किया और साथ ही ब्रिटिश शासन पर प्रहार किया। अंग्रेज सरकार ने जब पत्रिका को प्रतिबंधित कर दिया तो मौलाना आजाद ने एक नई पत्रिका 'अल-बलाग' निकालनी शुरू कर दी। मौलाना आजाद ने कई किताबें लिखीं जिसमें उन्होंने ब्रिटिश राज का विरोध किया और भारत के स्वशासन की वकालत की।

मौलाना आजाद महात्मा गांधी के पक्के समर्थक थे और गांधीजी उन्हें 'ज्ञान सम्राट' कहा करते थे। पंडित जवाहरलाल नेहरु की कैबिनेट में 1947 से 1958 तक मौलाना आजाद शिक्षा मंत्री रहे। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया उन्होंने आईआईटी, आईआईएम और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जैसे संस्थानों की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके योगदान का सम्मान करते हुए उन्हें 1992 में 'भारत रत्न' पुरस्कार से विभूषित किया गया और उनके जन्मदिन को 'राष्ट्रीय शिक्षा दिवस' के रूप में मनाए जाने का निर्णय लिया गया। ~~~