Article : आखिर कब रुकेगा डोपिंग का खेल ?

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calendar02 Dec 2025 05:13 AM
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-संजीव रघुवंशी  वरिष्ठ पत्रकार

  • रिपोर्ट कहती है कि साल 2019 में 152 भारतीय खिलाडिय़ों (Indian players) को डोपिंग जांच में पॉजिटिव पाया गया। यह संख्या पूरी दुनिया के आरोपी खिलाडिय़ों की 17 फीसदी है। शर्मसार करने वाली बात यह है कि डोपिंग के मामले में हमसे सिर्फ रूस और इटली आगे हैं। इससे भी अधिक चिंता इस पर किए जाने की जरूरत है कि 2018 में देश डोपिंग की सूची में पांचवें स्थान पर था और इससे पहले साल सातवें पायदान पर। यानी, भारतीय खिलाडिय़ों के बीच डोपिंग की जड़ें लगातार गहरी होती जा रही हैं। नेशनल एंटी डोपिंग एजेंसी (नाडा) (National Anti Doping Agency (NADA)की रिपोर्ट भी वाडा की रिपोर्ट को ही सही ठहराती नजर आती है। नाडा ने 2017 में जारी रिपोर्ट में दावा किया था कि 2009 से 2016 तक 687 खिलाडिय़ों को डोप टेस्ट में फेल होने पर प्रतिबंधित किया जा चुका है।

Article : कुश्ती संघ में चल रहे 'दंगल की पीड़ा के बीच अंडर-19 महिला क्रिकेट टीम ने विश्व कप जीतकर खेल प्रेमियों को कुछ राहत जरूर दी, लेकिन खेलों में डोपिंग की खबरों ने इस राहत पर ग्रहण लगा दिया। गुजरात में पिछले साल सितंबर-अक्टूबर में हुए राष्ट्रीय खेलों में शिरकत करने वाले एक-दो नहीं, बल्कि 10 खिलाड़ी प्रतिबंधित दवाएं लेने के मामले में दोषी पाए गए। हैरत की बात यह है कि इसमें से सात खिलाडिय़ों ने विभिन्न स्पर्धाओं में ब्रोंज से लेकर गोल्ड मेडल तक जीते हैं। सवाल यह नहीं है कि डोपिंग के दोषी खिलाडिय़ों के खिलाफ कितनी सख्त कार्यवाही होगी, बल्कि सवाल है कि खेल जैसी 'साधना को डोपिंग के 'पाप से पूरी तरह मुक्ति कब मिलेगी? Stories : शायद ही कोई भारतीय 2016 में हुए रियो ओलंपिक (Rio Olympics) की उस अप्रत्याशित घटना को याद रखना चाहेगा, जब पदक के प्रबल दावेदार माने जा रहे पहलवान नरसिंह यादव पर डोपिंग का आरोप लगा था। नरसिंह को वल्र्ड एंटी डोपिंग एजेंसी (वाडा) World Anti Doping Agency (WADA) की जांच के आधार पर चार साल के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया। हालांकि, इस मामले में काफी उठापटक चली, मामला 'कोर्ट ऑफ ऑर्बिटेशन फॉर स्पोर्ट तक गया, लेकिन एक खिलाड़ी के तौर पर नरसिंह का करियर बच नहीं सका। साजिश के आरोपों की पड़ताल में सीबीआई कई साल से जुटी है। इस मामले की तरह डोपिंग (doping) का हर मामला 'साजिश और 'हकीकत के बीच झूलता रहा हो, ऐसा नहीं है। हालांकि, जांच में दोषी पाए जाने पर अमूमन हर खिलाड़ी या तो आरोपों को सिरे से खारिज कर देता है या फिर, अनजाने में प्रतिबंधित दवा लिए जाने का रोना रोता है। लेकिन राष्ट्रीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक जिस तरह डोपिंग को लेकर खिलाडिय़ों को सचेत किया जाता है, उसके बाद खिलाडिय़ों की दलीलों में ज्यादा दम नहीं रह जाता। Stories Hindi : देश में खिलाडिय़ों के बीच डोपिंग कितनी गहरी पैठ बना चुकी है, इस कड़वी हकीकत को वाडा की रिपोर्ट से समझा जा सकता है। रिपोर्ट कहती है कि साल 2019 में 152 भारतीय खिलाडिय़ों को डोपिंग (doping) जांच में पॉजिटिव पाया गया। यह संख्या पूरी दुनिया के आरोपी खिलाडिय़ों की 17 फीसदी है। शर्मसार करने वाली बात यह है कि डोपिंग के मामले में हमसे सिर्फ रूस और इटली आगे हैं। इससे भी अधिक चिंता इस पर किए जाने की जरूरत है कि 2018 में देश डोपिंग की सूची में पांचवें स्थान पर था और इससे पहले साल सातवें पायदान पर। यानी, भारतीय खिलाडिय़ों के बीच डोपिंग की जड़ें लगातार गहरी होती जा रही हैं। नेशनल एंटी डोपिंग एजेंसी (नाडा) की रिपोर्ट भी वाडा की रिपोर्ट को ही सही ठहराती नजर आती है। नाडा ने 2017 में जारी रिपोर्ट में दावा किया था कि 2009 से 2016 तक 687 खिलाडिय़ों को डोप टेस्ट में फेल होने पर प्रतिबंधित किया जा चुका है। नाडा के अस्तित्व में आने से पहले राष्ट्रीय स्तर पर कितने खिलाड़ी प्रतिबंधित दवाओं का सेवन करते रहे होंगे, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। Stories : हालिया मामले में राष्ट्रीय स्तर के खिलाडिय़ों ने तो खेल भावना को शर्मसार किया ही है, अंतरराष्ट्रीय स्तर के भारतीय खिलाड़ी भी इस कलंकित कथा के किरदार बनने में पीछे नहीं हैं। राष्ट्रमंडल खेलों की कांस्य पदक विजेता जिम्नास्ट दीपा कर्माकर डोपिंग के चलते 21 माह का प्रतिबंध झेल रही हैं, तो वहीं एशियाई खेलों की सिल्वर मेडलिस्ट दुती चंद पिछले महीने ही डोपिंग में फंस चुकी हैं। पिछले साल हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में फर्राटा धाविका एस. धनलक्ष्मी, ट्रिपल जंपर ऐश्वर्या बाबू, पैरा चक्का खिलाड़ी अनीश कुमार और पैरा पॉवरलिफ्टर गीता समेत पांच खिलाडिय़ों को प्रतिबंधित कर दिया गया था। जेंटलमैन्स गेम कहे जाने वाला क्रिकेट भी डोपिंग के दाग से अछूता नहीं है। साल 2008 में विश्व विजेता अंडर-19 टीम का हिस्सा रहे कोलकाता नाइट राइडर्स के तेज गेंदबाज प्रदीप सांगवान पर 2013 में 18 माह का प्रतिबंध लगाया गया तो वहीं 2017 में ऑलराउंडर यूसुफ पठान पर पांच माह का बैन लगा। क्रिकेट के लिए डोपिंग के लिहाज से साल 2019 सबसे खराब रहा। तब विदर्भ के क्रिकेटर अक्षय दुलारकर, राजस्थान के दिव्य गजराज के साथ ही नामी क्रिकेटर पृथ्वी शॉ (cricketer prithvi shaw) को प्रतिबंध का सामना करना पड़ा। जून 2021 में महिला क्रिकेटर अंशुला राव का मामला काफी चर्चित रहा है। बीसीसीआई ने राव पर चार साल के प्रतिबंध के साथ ही दो लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया। Stories : आजाद भारत में डोपिंग का मामला संभवत: 1968 में मेक्सिको ओलंपिक के ट्रायल के दौरान सामने आया था। दस किलोमीटर दौड़ के लिए ट्रायल में कृपाल सिंह के बेहोश होने पर डॉक्टरों ने नशीले पदार्थ के सेवन की पुष्टि की। तब से लेकर अब तक खेलों में डोपिंग रोकने के लिए काफी कुछ किया जा चुका है। विश्व स्तर के खेलों में डोपिंग पर अंकुश के लिए नवंबर 1999 में वाडा की स्थापना की गई, तो इसके छह साल बाद राष्ट्रीय स्तर पर निगरानी के लिए नाडा अस्तित्व में आ गई। घरेलू स्तर पर जांच के लिए 2008 में दिल्ली में नेशनल डोप टेस्टिंग लैबोरेट्री ( एनडीटीएल) National Dope Testing Laboratory (NDTL) भी बनाई गई। पिछले साल अगस्त में संसद ने 'द नेशनल एंटी डोपिंग बिल ( The National Anti-Doping Bill) पास किया ताकि डोपिंग पर खिलाडिय़ों से लेकर संबंधित एजेंसियों को और अधिक जवाबदेह बनाया जा सके। भारत इससे पहले संयुक्त राष्ट्र संघ के 'इंटरनेशनल कन्वेंशन अगेंस्ट डोपिंग इन स्पोर्ट्स (International convention against doping in sports) में शिरकत कर डोपिंग रोकने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर कर चुका है। Stories : इसमें कोई दो राय नहीं कि हालिया सालों में सरकार खेलों के प्रति गंभीरता दिखा रही है। एक फरवरी को आए आम बजट में खेलों के लिए आवंटित धनराशि भी यही इशारा करती है। पिछले साल के मुकाबले खेल मंत्रालय को 723 करोड़ रुपए अधिक मिले हैं। इसमें सरकार की महत्वाकांक्षी योजना 'खेलो इंडिया के लिए 1045 करोड़ का बजट आवंटित करना सबसे महत्वपूर्ण कदम है। यह पिछले साल के मुकाबले 72 फीसदी ज्यादा है। इसके साथ ही भारतीय खेल प्राधिकरण (साइ) पर आश्रित रहने वाली नाडा और एनडीटीएल को अलग से 41 करोड़ मिलेंगे। नि:संदेह, इस सारी कवायद का मकसद खेल के स्तर को बढ़ाने के साथ ही खिलाडिय़ों को डोपिंग जैसी 'बीमारी से बचाना है। इस सबके बावजूद अगर डोपिंग के मामले सामने आ रहे हैं, तो जाहिर है कि इस दिशा में कुछ और ठोस एवं सख्त कदम उठाए जाने की जरूरत है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि डोपिंग के चलते ही रूस को 2019 में चार साल के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया था। कोई भी भारतीय ऐसी घोर शर्मनाक स्थिति की कल्पना भी नहीं करना चाहेगा!

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Article : लंबित मुकदमों के बोझ से बेहाल अदालतें

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calendar18 Jan 2023 07:13 PM
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संजीव रघुवंशी (वरिष्ठ पत्रकार)

Article : '' वीएस मलिमथ समिति ने मार्च, 2003 में दी रिपोर्ट में अदालतों में केसों के बढ़ते अंबार पर चिंता जाहिर करते हुए साफ शब्दों में कहा था कि केस जितना पुराना (Old) हो जाता है, उसमें फैसला आने या सही फैसला (Right Decision) आने की उम्मीद भी उतनी ही कम हो जाती है। समिति ने यह भी उल्लेख किया कि मुकदमों के लंबा खिंचने की वजह से ही दोषसिद्धि का प्रतिशत लगातार गिर रहा है। यह साल 2020 में 59.2 फीसदी था जो 2021 में गिरकर 57 फीसदी पर आ गया। गैर इरादतन हत्या और दुष्कर्म के मामले में तो दोषसिद्धि का आंकड़ा इससे भी ज्यादा खराब है। '' 

मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के रतलाम (Ratlam) में एक व्यक्ति ने सरकार से 10006 करोड़ का मुआवजा मांगा है। दरअसल, कांतिलाल भील को सामूहिक दुष्कर्म (Gang Rape) के आरोप में दो साल तक जेल में रहना पड़ा। बाद में कोर्ट (Court) ने सबूतों के अभाव में उसे बरी कर दिया। अब कांतिलाल ने अपने दो साल के हर पल का हिसाब बनाकर सरकार से मुआवजे के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया है। सरकार उसके मुआवजे के दावे पर विचार करेगी या उसे बरी किए जाने के फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत का दरवाजा खटखटाएगी, इस बारे में तो अभी कुछ स्पष्ट नहीं, लेकिन एक बात जरूर साफ है कि अदालतों में लंबित मुकदमों का दंश अंतत: पक्षकारों को ही झेलना पड़ता है। फिर, चाहे वह अप्रैल, 2022 में बिहार (Bihar) की एक कोर्ट द्वारा बरी किए गए बीरबल भगत का मामला हो या फिर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट (High Court)  द्वारा मई, 2022 में रिहा किए गए चंद्रेश का मुकदमा। बीरबल को जब मर्डर के केस में गिरफ्तार किया गया तो उसकी उम्र 28 साल थी और जब बरी हुआ तो 56 साल। वहीं, चंद्रेश ने मर्डर के केस से बरी होने तक 13 साल जेल में गुजारे।

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ये मामले उन अनगिनत मामलों में से हैं, जिनमें पक्षकारों ने भारतीय न्याय व्यवस्था पर बढ़ते बोझ का खामियाजा भुगता है। 'जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड' यानी, देरी से मिला न्याय, न्याय न मिलने के बराबर है। यह सूक्ति हमारी न्याय व्यवस्था पर एकदम फिट बैठती है। वर्ष 2020 में न्यायिक सुधारों के लिए गठित की गई जस्टिस वीएस मलिमथ समिति ने मार्च, 2003 में दी रिपोर्ट में अदालतों में केसों के बढ़ते अंबार पर चिंता जाहिर करते हुए साफ शब्दों में कहा था कि केस जितना पुराना हो जाता है, उसमें फैसला आने या सही फैसला आने की उम्मीद भी उतनी ही कम हो जाती है। समिति ने यह भी उल्लेख किया कि मुकदमों के लंबा खिंचने की वजह से ही दोषसिद्धि का प्रतिशत लगातार गिर रहा है। यह साल 2020 में 59.2 फीसदी था जो 2021 में गिरकर 57 फीसदी पर आ गया। गैर इरादतन हत्या और दुष्कर्म के मामले में तो दोषसिद्धि का आंकड़ा इससे भी ज्यादा खराब है।

Maruti Suzuki : खराब Airbag Controler को ठीक करने के लिए वापस मंगाई 17,362 कारें

साल 2023 आते-आते अदालतों में लंबित मुकदमों का आंकड़ा पांच करोड़ को पार कर गया है। इसमें जिला अदालतों के साथ ही अधीनस्थ अदालत, हाईकोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट में लंबित मुकदमे शामिल हैं। यह आलेख लिखे जाने तक, नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड के आंकड़ों के मुताबिक कुल 4 करोड़ 32 लाख 70 हजार 666 मुकदमे जिला और अधीनस्थ अदालतों में लंबित हैं। ताज्जुब की बात यह है कि इनमें से .33 फीसदी मामले 30 साल से भी पुराने हैं। वही, 1.08 फीसदी मुकदमे 20 से 30 साल पुराने, 6.50 फीसदी 10 से 20 साल, 18.94 फीसदी 5 से 10 साल और 20.57 फीसदी मामले 3 से 5 साल पुराने हैं। उच्च न्यायालयों में 59 लाख 75 हजार 604 केस पेंडिंग हैं। इनमें से 1.23 फीसदी केस 30 साल से ज्यादा पुराने, 3.71 फीसदी 20 से 30 साल और 19.07 फीसदी केस 10 से 20 साल पुराने हैं। हाईकोर्ट्स में सबसे अधिक लंबित मामले 5 से 10 साल पुराने हैं। कुल लंबित मामलों में इनकी हिस्सेदारी 24.10 फीसदी है। इसके साथ ही, 18.85 फीसदी 3 से 5 साल पुराने और 15.93 फीसदी लंबित मामले 1 से 3 साल पुराने हैं। तकरीबन 69 हजार मामले सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं। चिंता करने वाली बात यह है कि अदालतों में केस कम होने की बजाय लगातार बढ़ रहे हैं। सरकार की ओर से 25 मार्च, 2020 को जारी आंकड़ों पर गौर करें तो तब जिला और अधीनस्थ अदालतों में चार करोड़ 10 लाख 47 हजार 976 मामले लंबित थे। वहीं, देश के 25 उच्च न्यायालयों में कुल 58 लाख 94 हजार 60 और सुप्रीम कोर्ट में 70 हजार 154 मुकदमे अपने निपटारे की बाट जो रहे थे। ये आंकड़े दो मार्च, 2022 तक के हैं। इसके बाद अब तक तकरीबन 10 माह में 22 लाख 22 हजार 690 मुकदमे जिला अदालतों में बढ़ चुके हैं। यानी, निचली अदालतों में हर रोज तकरीबन 7400 मुकदमे बढ़ रहे हैं। दस माह की यह बढ़ोतरी 5.4 फीसदी की है। इसी अवधि में 1.38 फीसदी के साथ उच्च न्यायालयों में मुकदमों के आंकड़े में 81 हजार 544 का इजाफा हो चुका है। मतलब, हाईकोर्ट्स में लंबित मुकदमों के भार में रोजाना 271 मुकदमे जुड़ रहे हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या 73 हजार पार करने के बाद अब घटकर 69 हजार के नीचे आ गई है। बीते दिसंबर में पांच से 16 तारीख तक सुप्रीम कोर्ट में मुकदमों के निपटारे की रफ्तार 206 फीसदी तक रही। इसका त्वरित असर लंबित मामलों की संख्या में गिरावट के रूप में सामने आया है।

Supreme Court : उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली-केंद्र सेवा विवाद पर फैसला सुरक्षित रखा

अगर सुप्रीम कोर्ट के हालिया प्रदर्शन को छोड़ दिया जाए तो दूर-दूर तक ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता जो न्याय व्यवस्था की बेहतरी की तरफ इशारा करता हो। सबसे खराब स्थिति जिला और अधीनस्थ अदालतों की है। कुल लंबित मामलों में से तकरीबन 85 फीसदी इन्हीं अदालतों में हैं। ये हालात ऐसे में हैं, जब 30 दिसंबर को मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने आंध्र प्रदेश न्यायिक अकादमी के उद्घाटन के मौके पर खुले मंच से जिला अदालतों को न सिर्फ न्याय व्यवस्था की रीढ़ बताया बल्कि लोगों को इन अदालतों को अत्यंत गंभीरता से लेने की नसीहत भी दी। साथ ही, उन्होंने इन अदालतों में मुकदमों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी पर चिंता जाहिर की। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि इससे ऊपर की अदालतों में लंबित मामलों का ढेर कोई मायने नहीं रखता। न्यायिक व्यवस्था की बदहाली के लिए ये अदालतें भी कानूनविदों के निशाने पर रही हैं। चार अगस्त, 2022 को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस संजय किशन कौल ने एक मामले की सुनवाई के दौरान टिप्पणी की थी कि अगर हर मामला उच्चतम न्यायालय की चौखट पर आएगा तो अगले पांच सौ साल में भी लंबित मामलों का निपटारा नहीं होगा। इससे पहले, मई, 2022 में जस्टिस एल. नागेश्वर राव और जस्टिस बीआर गवई की पीठ ने हाईकोर्ट्स में लंबित मामलों पर रिपोर्ट तलब की थी। उन्होंने खासतौर पर इलाहाबाद हाई कोर्ट, राजस्थान, मध्य प्रदेश, पटना, ओडिशा और बॉम्बे हाईकोर्ट में लंबित मुकदमों के अंबार को लेकर चिंता जाहिर की थी।

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फिलहाल लंबित मुकदमों के मामले में भारत पहले स्थान पर है। दुनिया में अपनी धाक जमाने की जद्दोजहद के इस दौर में हमारी न्याय व्यवस्था की यह हालत नि:संदेह एक बुरे सपने सरीखी है। समय-समय पर कानून विशेषज्ञ इसके लिए चेताते भी रहे हैं। अपने कार्यकाल के अंतिम दिन, 26 अगस्त, 2022 को चीफ जस्टिस एनवी रमण ने कहा था- लंबित केस भारत के लिए बड़ी चुनौती हैं। वहीं, नीति आयोग ने 2018 में अपनी रिपोर्ट में कहा था- इसी रफ्तार से केस निपटाए गए तो 324 साल लग जाएंगे। नीति आयोग की इस टिप्पणी के समय लंबित केसों की संख्या 2.9 करोड़ थी। ऐसे में समझा जा सकता है कि पांच करोड़ लंबित मुकदमों को निपटाने में कितनी सदियां लगेगीं। ऐसा नहीं है कि कार्यकारी संस्थाएं इस समस्या के कारणों से वाकिफ नहीं हैं। अदालतों, जजों और वकीलों की कमी से लेकर विवेचना में देरी, पक्षकारों की ढिलाई और अदालतों का डिजिटलीकरण न होने के साथ ही अन्य तमाम कारण हैं, जो मुकदमों की सुनवाई में देरी की वजह बनते हैं। विधि मंत्रालय के आंकड़ों की मानें तो वर्तमान में देश में 10 लाख की आबादी पर 19 न्यायाधीश हैं, जो न्याय व्यवस्था की खस्ता हालत का ही नमूना है। निचली अदालतों में जजों के लिए कुल स्वीकृत पद 25042 में से 5850 खाली हैं। वहीं 19 दिसंबर, 2022 तक उच्च न्यायालय में जजों के लिए स्वीकृत 1108 पदों के मुकाबले 775 पर ही नियुक्ति थी। ये आंकड़े बताते हैं कि निचली और उच्च न्याय व्यवस्था का बोझ स्वीकृत पदों के मुकाबले दो तिहाई जज ही अपने कंधों पर उठाए हुए हैं। पिछले दिनों वर्तमान मुख्य न्यायाधीश यह कह चुके हैं कि 63 लाख मुकदमे वकीलों की कमी और 14 लाख से अधिक मुकदमे दस्तावेजों की कमी से अटके पड़े हैं।

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बेहतर न्याय व्यवस्था के लिहाज से तमाम नकारात्मक आंकड़ों के बीच एक खबर थोड़ा सुकून देने वाली भी है। जजों की नियुक्ति की बाबत कॉलेजियम के साथ लंबी खींचतान के बाद आखिरकार सरकार के रुख में नरमी आई है। कॉलेजियम की सिफारिश पर जजों की नियुक्ति पर सकारात्मक रवैये के साथ ही सरकार ने न्यायिक नियुक्तियों को लेकर निर्धारित समय सीमा का पालन करने का भी भरोसा दिया है। अगर सरकार अपने वादे पर खरी उतरी तो इसमें कोई दोराय नहीं कि इससे सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट्स में लंबित मुकदमों को निपटाने में मदद मिलेगी। जिला और अधीनस्थ अदालतों की बेहतरी की बाबत सरकार की ओर से इससे कहीं अधिक गंभीरता दिखाए जाने की जरूरत है। आखिर, ये अदालतें न्याय व्यवस्था की रीढ़ हैं। देशदुनिया की लेटेस्ट खबरों से अपडेट रहने के लिए हमेंफेसबुकपर लाइक करें याट्विटरपर फॉलो करें। News uploaded from Noida  
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Ayodhya Dispute : अयोध्या विवाद का पूरा सच पढ़िए सुप्रसिद्ध कवि व मशहूर समाजवादी चिन्तक उदय प्रताप सिंह की कलम से

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Famous Poet Uday Pratap Singh
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calendar28 Nov 2025 03:26 PM
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    Ayodhya Dispute : अयोध्या विवाद का सच :  अयोध्या विवाद जैसे मामले से मुलायम सिंह को काफी नुकसान हुआ, पर इस घटना की सच्चाई आज मैं बताता हूं। पूरी घटना के विषय में मुझे लगता है सभी सत्य नहीं जानते हैं... अयोध्या में हुआ गोली कांड दुखदाई जरूर था: उसका दुःख सबको है। यूपी सरकार को सुप्रीम कोर्ट का आदेश था कि किसी को भी उस विवादित ढांचे को नुकसान करने न दिया जाए और अयोध्या में यथास्थिति बनाए रखी जाए। इसीलिए यूपी सरकार के निर्देश यूपी पुलिस को थे कि वहां पर किसी को जाने न दिया जाए, पर जब बड़ी संख्या में लोगों ने वहां अफरा-तफरी जैसा माहौल बना दिया और जबरदस्ती अंदर घुसने लगे, पुलिस वालों के संग हाथपाई पर उतर आए, तब पुलिस यथास्थित बनाने के लिए और सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करते हुए ही गोली चलाई, जिसमें 17 लोगों की जान गई थी। लेकिन, बीजेपी ने इसको बढ़ा-चढ़ाकर बहुत झूठा प्रचार किया।  

Ayodhya Dispute :

इस घटना से कुछ दिन पूर्व मुलायम सिंह ने कुछ साधुओं को गिरफ्तार कर लिया था। उन्हें छोड़ने के लिए बीपी सिंह ने उप-गृहमंत्री राम लाल राही को लखनऊ भेजा। यदि मुलायम सिंह उन्हें छोड़ दें तो साधुआंे से बातचीत के माध्यम से अयोध्या समस्या का हल निकाल लें, लेकिन मुलायम सिंह ने उनकी कोई बात नहीं मानी। उसके बाद में बीपी सिंह ने मुझे, सांसद संतोष भारती के माध्यम से बुलवाया और मुलायम सिंह से उन साधुओं को छोड़ने के लिए मुझे लखनऊ भेजा। मैं गया और मुलायम सिंह से सारा घटनाक्रम बताया तो मुलायम सिंह ने हमसे कहा कि वे साधु अगर मैंने छोड़ दिये तो वो सब अंडरग्राउंड हो जायेंगे और मेरे लिए समस्या खड़ी कर देंगे। लेकिन, जब मैंने उनसे बातचीत की और कहा कि आप प्रधानमंत्री की बात मानिये वर्ना इतिहास में लिखा जाएगा कि मुलायम सिंह की हठ के कारण बातचीत का रास्ता नहीं खुल पाया। कुछ देर के बाद उन्होंने मेरी बात मान ली और साधुओं को छोड़ दिया। इस बात की सूचना टेलीफोन पर प्रधानमंत्री जी को स्वयं दे दी, लेकिन मुलायम सिंह का अंदेशा सही निकला। सब साधु अंडरग्राउंड हो गए और गोलीकांड की भूमिका तैयार कर दी। समाजवाद का मानना है कि धर्म को राजनीति से दूर रखना चाहिए और ये बात सिर्फ मुलायम सिंह ही नहीं, लोहिया जी, गांधी जी स्वयं कहा करते थे। (इन पंक्तियों के लेखक उदय प्रताप सिंह जाने माने साहित्यकार, पूर्व सांसद व देश के प्रसिद्ध समाजवादी नेता हैं।)