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Dharma & Spiritual : तृष्णा ही है तमाम कष्टों की जननी!

 विनय संकोची

हमारे समस्त दु:खों की जड़ तृष्णा ही है और तृष्णा का यह स्वभाव है कि जितना इसके समीप पहुंचते जाओगे, वह सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जाएगी। शरीर के लिए आवश्यक वस्तुओं का भोग तृष्णा नहीं है लेकिन वस्तुओं की लालसा बढ़ते जाना तृष्णा है।

दो मित्र थे। एक साधन संपन्न और दूसरा निर्धन। दोनों में घनिष्ठ मित्रता थी। जब मित्रता हुई थी, तब धनी इतना धनवान नहीं था, उसे धन कमाने की तीव्र इच्छा थी। धनी येन केन प्रकारेण में धन कमाने में लगा रहता था और निरंतर धनवान बनता जा रहा था। इसी प्रयास में वह दु:खी रहता था। मित्र को आगे बढ़ता देखकर, निर्धन के मन में भी वैसा ही धनी बनने की इच्छा जागृत हुई और वह भी धन कमाने के प्रयास में लग गया। लेकिन उसके प्रयास सफल नहीं हो सके। धीरे-धीरे दोनों के दिलों में परस्पर वेमनस्य पनपने लगा। निर्धन व्यक्ति, अपने धनी मित्र से ईर्ष्या करने लगा और धन न कमा पाने के कारण दु:खी रहने लगा। दोनों दु:खी और एक दूसरे से दूर होने लगे। एक दिन ऐसा भी आया जब दोनों के बीच मित्रता ही खत्म हो गई। तृष्णा ने दोनों के बीच दुश्मनी पैदा कर दी।

श्रीरामचरितमानस में तृष्णा के संबंध में भगवान श्रीराम कहते हैं – ‘संसार में जितने भी दु:ख हैं, उन सब में सबसे ज्यादा दु:ख देने वाली यही तृष्णा है। जीवन में सारे क्लेश की जड़ तृष्णा ही है। यह संतोष की कट्टर दुश्मन है। जहां यह कदम रखती है, वहां से संतोष को भगा देती है। तृष्णा की एक और विशेषता है, यह मनुष्य के जन्म के साथ ही उससे जुड़ जाती है। जैसे-जैसे मनुष्य बूढा होता जाता है, वैसे-वैसे तृष्णा उम्र के साथ और भी ज्यादा बढ़ती जाती है। मनुष्य घर परिवार छोड़ दे, धन चला जाए, परंतु तृष्णा पीछा नहीं छोड़ती है।
तृष्णा को संयम से जीता जा सकता है। संयम जीवन का सबसे बड़ा गुण है और इन तीन अक्षर के शब्द का बड़ा व्यापक अर्थ है। मन का संयम, वाणी का संयम, शारीरिक संयम, खाने-पीने का संयम, स्वभाव का संयम, संयम अर्थात नियंत्रण, यदि आप में संयम की शक्ति है, तो समझो आपने इस जीवन रूपी युद्ध में विजयश्री प्राप्त कर ली। संयम, नियंत्रण, विनम्रता, सहनशीलता ये सभी गुण मानवता के पोषक हैं और जिनमें ये मानवीय गुण होते हैं, वो प्रभु को भी अत्यंत प्रिय होते हैं। सुख के साथ-साथ दु:ख-दर्द को भी वही सह सकता है, जिसमें संयम की शक्ति होती है। जैसा कि कहा जाता है कि संयम के व्यापक अर्थ होते हैं, मन का संयम अर्थात मन पर नियंत्रण। मनुष्य का मन बड़ा चंचल होता है। चारों ओर विषय में भटकता रहता है। इस भटकाव पर नियंत्रण है मन का संयम है। इसके लिए साधु का रूप धारण करके टाट-कमंडल लेकर कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। संयम तो वही है जो सामने हो और उसके प्रति आसक्ति न हो। कोई लोभ या आकर्षण न हो। यही मन का संयम है।

वाणी का संयम। हमारी वाणी ही है, जो हमें एक पल में किसी का मित्र है या किसी का शत्रु बनाती है। वाणी पर सरस्वती का वास कहा गया है। जो वाणी दूसरे को अपना बना ले, उसे सुख पहुंचाए, उसके कानों में रस घोल दे, उसी वाणी की सत्यता है, सार्थकता है। कबीरदास जी कहते हैं – ‘ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय। औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय।।’ संसार में आज जो हिंसक प्रवृत्ति फैल रही है। चारों और हिंसा मची हुई है, उसके पीछे अधिकांशत: वाणी ही है। शारीरिक संयम आपको दीर्घायु प्रदान करता है। आपको स्वस्थ और बलवान बनाए रखता है। स्वभाव का संयम आपको और आपके जीवन को नियंत्रित रखता है। तृष्णा को गहरी नींद सुला देता है।

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