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Dharma & Spiritual : कलियुग में सदाचार का घोर अभाव!

विनय संकोची

कलियुग में विशेषत: आजकल के समय में सदाचार की महती आवश्यकता है। सत्ययुग में तो सृष्टि में सत्वगुण का प्राधान्य होने से मानव में त्याग, तप, सत्य, अहिंसा, शम, दम, यम नियम आदि स्वभाव से ही विद्यमान थे। मनुष्य के शरीर स्वस्थ थे। शीतोष्ण आदि द्वंद्वों का कोई भय नहीं था संशय रहित मन पूर्ण रूप से सबल था। अतः मन: संकल्प के पूर्ण होने में किसी बाहरी प्रयास की आवश्यकता ही नहीं थी। मनुष्य में दोष, दुर्गुण न होने से, उन्हें नियमबद्ध करने के लिए विधि निषेध की भी आवश्यकता नहीं थी। शम-दम संपन्न मानव जीवन स्वभाव से भगवान के ध्यान और तप में संलग्न था। त्रेता युग के मानव में सम्मान और स्वर्ग की भावना जाग्रत हुई। रजोगुण का प्राधान्य हुआ। यज्ञ अनुष्ठान होने लगा। यज्ञ तथा दान के लिए मनुष्य में संग्रह की भावना जागी। भोग-लिप्सा संग्रह का कारण नहीं थी। यज्ञ कराने वाले ऋषिगण सत्ययुग के समाज के समान त्यागी वासना हीन और तपस्वी थे और यज्ञ सफल होते थे।

द्वापर में भोग की इच्छा के कारण संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ी। संग्रह के चलते वस्तुएं कम होने लगीं। परंतु लोग तब तक धर्मभीरू थे। अन्याय से उपार्जन करना नहीं चाहते थे। न्याय पूर्वक धर्माचरण से जो कुछ अर्जित करते, उसका ही उपयोग करते। यज्ञ के संबंध में उनका मन इतना संदिग्ध हो गया कि यज्ञानुष्ठान और त्याग के कार्य बंद से हो गए। भोग की इच्छा बहुत बढ़ गई, जिसे नियंत्रित करने के लिए शास्त्रों का कठोर नियम आवश्यक हुआ। परंतु इस समय में भी ईश्वर में श्रद्धा थी, जिससे द्वापर युग के लोग भगवान विष्णु की आराधना करते थे। वे वासुदेव संकर्षण प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध चतुर्व्युहात्मक रूपों की आराधना में संलग्न रहते थे।

कलियुग के मनुष्यों में सत्वगुण के ह्रास और रजोगुण, तमोगुण की प्रधानता होने से छल, कपट, प्रमाद, दंभ, ईर्ष्या, क्रोध आदि दुर्गुणों का आधिक्य हो जाता है। श्रद्धा-विश्वास के अभाव हो जाने से मन में कुतर्क का वास होने लगता है। शारीरिक शक्ति के ह्रास हो जाने से व्रत-उपवास आदि करने को मन नहीं चाहता है। सत्ययुग का ध्यान, त्रेता का यजन और द्वापर का आराधन, इस युग में विलुप्त हो जाते हैं। श्रद्धा-विश्वास और सच्ची भावना के अभाव में भगवान का प्राकट्य भी कलिकाल में पूर्व की भांति नहीं होता है। विषय भोग इच्छा की वृद्धि से विचारहीन प्रवृत्ति बहुत बढ़ जाती है। मनोबल के अभाव में आचारहीन प्रवृत्ति को रोकना कठिन हो जाता है। आचार, व्यवहार की अशुद्धता से आधि-व्याधि का आधिक्य हो जाता है और शारीरिक दुर्बलता बढ़ जाती है। अतः इस घोर कलिकाल में सदाचार की और अधिक आवश्यकता है। जिस प्रकार भयंकर रोग हो जाने पर बहुत बड़े संयम की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार सांसारिक विविध रोगों से पीड़ित मनुष्य के लिए आज सदाचार की अधिक आवश्यकता है।

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