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Exclusive : रामचरितमानस पर छिड़ी बहस का एक विश्वसनीय विश्लेषण , केवल चेतना मंच पर

Exclusive : A reliable analysis of the debate on Ramcharitmanas, only on Chetna Manch

Ramcharitmanas

Exclusive :  नई दिल्ली / लखनऊ । इन दिनों रामचरितमानस को लेकर विधानसभाओं से सड़कों तथा गली कूचों और गोष्ठियों तक बहस चल रही है । यह बहस कई रूपों में सामने आ रही है रामचरितमानस स्वयं ही  इस बहस का जवाब देने के लिए पर्याप्त है  । आज हम आपके साथ मानस मर्मज्ञ डॉक्टर भगवानदास पटैरिया की ज़बानी मानस का एक विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं आशा है आपको यह विश्लेषण अवश्य पसंद आएगा  ।

Exclusive :

 

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पूजिअ बिप्र सील गुन हीना
डॉ. भगवान दास पटैरया, महासचिव, श्रीरामचरितमानस राष्ट्रीय समिति
गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा ईश्वरीय प्रेरणा से लिखित श्रीरामचरितमानस सम्पूर्ण मानव समाज के लिए पथ प्रदर्शक के रूप में जानी जाती है, किंतु वर्तमान समय में कुछ लोग कुछ चौपाइयों का सही संदर्भ न समझ पाने के कारण ऐसी भ्रांतियाँ फैला रहे हैं, जो समाज के लिए घातक हैं। श्रीरामचरितमानस राष्ट्रीय समिति के माध्यम से हम ऐसी भ्रांतियों को दूर करने का प्रयास करते रहे हैं। हाल ही में “ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी ।” के संदर्भ में एक लेख के माध्यम से वस्तुस्थिति को स्पष्ट किया गया था। इसी क्रम में “पूजिअ बिप्र सील गुन हीना सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना ।।” पर कुछ लोगों की भ्रांति के संदर्भ में उत्पन्न शंकाओं के निराकरणार्थ यह आलेख प्रस्तुत है।
उपयुक्त चौपाई पर चर्चा करने के पूर्व उल्लेखनीय है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अखिल ब्रह्माण्ड नायक निर्गुण ब्रह्म के अवतार हैं। उन्होंने समाज में मर्यादा स्थापित करने के उद्देश्य से सामान्य मानव के समान लीलाएँ करके एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया है, जिसका अनुसरण करने से सभी सुखी रह सकते हैं। दूसरा तथ्य यह है कि जब कभी हमें किसी प्रसंग में वर्णित किसी चौपाई, दोहा, सोरठा छंद आदि का शाब्दिक अर्थ भ्राँति उत्पन्न कर दे, तब हमें किसी विद्वान से उसका रहस्य समझ लेना चाहिए और जब तक यह संभव न हो तब तक अपने मन से कल्पित दुर्भावना से बचना चाहिए। किसी तथ्य को समझने में हमारी स्वयं की भावना बहुत महत्व रखती है। हम जैसा सोचते हैं, हमें वह तथ्य अपनी भावना के अनुरूप दिखाई देता है। इसका स्पष्ट उदाहरण श्रीरामचरितमानस में धनुष यज्ञ के प्रसंग में मिलता है। श्रीरामजी जब धनुष यज्ञ आयोजन स्थल में प्रवेश करते हैं, तब सभी लोग अपनी-अपनी भावना के अनुसार उनका दर्शन करते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं-
जिन्ह कें रही भावना जैसी प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ।। (1/241 /4)
स्कंद पुराण के नागर खण्ड के अनुसार सभी लोग जन्म से शूद्र ही होते हैं, पर संस्कारों से ब्राह्मण कहलाते हैं. इसीलिए ब्राह्मण को द्विज कहा गया है, यथा- जन्मना जायते सूद्रः संस्कारात् द्विज उच्चयते ।

संस्कारों से द्विज हो जाने पर भी यदि ब्राह्मण वेद-शास्त्र का ज्ञाता और सदाचरण वाला नहीं है, तो वह सोचनीय है। इस तथ्य का अयोध्याकाण्ड के 172वें दोहे की तीसरी चौपाई में इस प्रकार से वर्णन किया गया है –
सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना तजि निज धरमु विषय लयलीना ।। (2/172/3)

इस भूमिका के बाद अब उपर्युक्त चौपाई के भावार्थ पर विचार करते हैं। किसी भी चौपाई, दोहा आदि के शाब्दिक अर्थ पर ध्यान देने से पूर्व उसके ऊपर और नीचे की चौपाइयों / दोहों को पढ़कर पूरा प्रसंग समझकर ही विचार करना चाहिए। किस परिप्रेक्ष्य में किससे कौन किस परिस्थिति में कह रहा है, यह जानना आवश्यक है। इस संदर्भ में एक कथा इस प्रकार से है। एक बार इन्द्र की सभा में ऋषि दुर्वासा (बिप्र ) आते हैं। उस समय वहाँ संगीत सभा का आयोजन था। उनके सम्मान में सभी उठकर उनको प्रणाम करने लगे, किंतु एक गन्धर्व अपने आसन पर ही आसीन रहा। उसे इस बात का अभिमान था कि वह गायन विद्या में पारंगत है और इन बिप्र को तो गायन विद्या का कुछ भी ज्ञान नहीं है और इस प्रकार उनसे श्रेष्ठ होने के कारण उनके सम्मान में उसे अपने आसन से उठने की आवश्यकता नहीं है। इस तथ्य को उन बिप्र ने ताड़ लिया और तुरंत उसे राक्षस हो जाने का श्राप दे डाला। अब वह गन्धर्व घबरा कर ऋषि के चरणों में गिर पड़ा और श्राप विमोचन हेतु प्रार्थना करने लगा। दयालु ऋषि दुर्वासा ने कहा कि जब अखिल ब्रह्माण्ड नायक निर्गुण ब्रह्म अवतार लेकर श्रीरामजी के रूप में अपनी भार्या को खोजते हुए अपने भाई लक्ष्मणजी के साथ आएँगे और तुम्हारी भुजा को काटकर तुम्हारा दाह संस्कार कर देंगे, तब तुम पुनः गन्धर्व रूप को प्राप्त करोगे। वह गन्धर्व राक्षस योनि में चला गया। बहुत बलशाली था। उसे यह ज्ञान था कि श्रीरामजी के अलावा वह किसी से भी नहीं मारा जा सकता, अतः उसने भयंकर आतंक फैलाया। ऋषि-मुनियों को सताने लगा। उसके इस आतंक को समाप्त करने के लिए इन्द्र ने अपने बज्र के प्रहार से उसे कबंध बना दिया अर्थात् उसके पैर और सिर धड़ में समा गए, तब वह एक स्थान पर स्थिर हो गया और अपनी लम्बी-लम्बी भुजाओं से वन के जीव-जन्तुओं को पकड़कर अपनी भूख शान्त करता रहा। विधि-विधानानुसार जब श्रीरामजी ने उसका उद्धार किया, तब वह गन्धर्व रूप में आकर कहता है-
दुरबासा मोहि दीन्ही सापा प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा ।। (3/33/7)

उसने अपने कथन में अभी भी ऋषि दुर्वासा के प्रति सम्मानसूचक शब्द का प्रयोग नहीं किया, अतः श्रीरामजी समझ गए कि इसकी अकड़ अभी भी बरकरार है। अभी भी इसका अभिमान शून्य नहीं हुआ है और तब वे उसे समझाते हैं कि चाहे श्राप दे रहा हो, ताड़ना दे रहा हो या कडुवे वचन बोल रहा हो, तपोनिष्ठ विप्र चाहे वह शीलगुण से रहित ही हो पूज्यनीय है, पर तुम्हारे जैसा संगीत में पारंगत गुणवान अभिमानी सूद्र पूज्यनीय नहीं है। श्रीरामचरितमानस के अनुसार

सापत ताड़त परुष कहंता बिप्र पूज्य अस गावहिं संता ।।

पूजिअ बिप्र सील गुन होना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना ।। (3/34 / 1-2)

कुछ लोग सील गुन हीना’ को ‘सकल गुन हीना कहते सुने गए हैं। रामायण की चौपाई को इस तरह तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करना अत्यंत अनुचित एवं निदंनीय है। इस प्रसंग में विचारणीय तथ्य यह है कि उस गन्धर्व ने अभिमानवश तपोनिष्ठ ऋषि (विप्र ) का अपमान करके श्राप भोगी और श्रापमुक्त होने पर अभी भी वह अपने गुणों के अभिमानवश ऋषि के लिए सम्मानसूचक शब्दों का प्रयोग नहीं कर रहा है। भविष्य में वह यह भूल न करे, अतः श्रीरामजी उसे सावधान करते हुए समझाते हैं। इस प्रकार से यह एक व्यक्तिगत मामला है जिसे सर्वमान्य करके व्याख्या की जा रही है, इसी कारण यह भ्राँति उत्पन्न हुई है। श्रीरामजी सभी पर समान रूप से कृपा करते हैं, पर सुपात्र और कुपात्र के अनुसार भेद हो जाना स्वभाविक है, ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार एक पिता अपनी संतानों के प्रति भेदभाव न रखते हुए भी, जो संतान उसकी सेवा में तत्पर रहती है, उस पर उसका विशेष अनुग्रह रहता है।

इस प्रकार से प्रसंग विशेष और व्यक्ति विशेष के परिप्रेक्ष्य में भावार्थ समझकर श्रीरामचरितमानस की किसी भी चौपाई, दोहा आदि के संदर्भ में कोई भ्रांति नहीं फैलानी चाहिए।

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