सत्य के महत्व को सब समझते हैं। सत्य की शक्ति को सब पहचानते हैं। सत्य की महिमा का चाहे-अनचाहे जाने-अनजाने कभी न कभी हर कोई गुणगान करता है। फिर भी सत्य को स्वीकारने सत्य को अंगीकार करने में लोग हिचकते हैं, यह भी एक सत्य है।
ईश्वर सत्य है, परम सत्य है- इस बात को प्रत्येक व्यक्ति स्वीकार तो करता है, लेकिन जब कोई बड़ा संकट उसके ऊपर आता है तो वह उस परम सत्य ईश्वर को भी नकार देता है, उसके होने पर भी प्रश्नचिन्ह लगा देता है। क्योंकि परमात्मा उसकी इच्छा के अनुरूप ‘आचरण’ नहीं कर रहा होता है। संकट की घड़ी में भाग्य के साथ ईश्वर को कोसने वाला स्वार्थ में लिप्त व्यक्ति यह नहीं सोच पाता कि जो कुछ हुआ उसी में उसकी भलाई है और जो नहीं हुआ वह भी उसके पक्ष में ही था। मनुष्य प्रत्येक बात को स्वार्थ के चश्मे से देखता है और उस चश्मे से सत्य दिखाई नहीं देता है। स्वार्थ का चश्मा तो केवल वही दिखाता है जो कि मनुष्य देखना चाहता है। मनुष्य आंखें मूंदकर सूर्य का उगना स्वीकार नहीं करके अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारता है। अपने ही हित को अहित में परिवर्तित कर दु:खी होता है।
एक सच यह भी है कि व्यक्ति जैसा कर्म करता है, उसी अनुरूप उसे फल मिलता है। परंतु मनुष्य कर्म जैसे भी करे, उसका फल हमेशा अपने पक्ष में चाहता है। नीम का वृक्ष लगाकर भी मनुष्य उस पर निबोली के स्थान पर स्वादिष्ट आम आने की इच्छा रखता है। वह इस सत्य को जानता है कि नीम के वृक्ष पर आम नहीं आ सकता, लेकिन वह चाहता है ऐसा ही है। यदि सत्य की उंगली थाम कर चला जाए तो तमाम बाधाओं को पार किया जा सकता है, परंतु पुरुषार्थ करना होगा हृदय में सत्य को स्थापित कर उसे पूजना होगा और अपने से अधिक सत्य की शक्ति पर भरोसा करना होगा।
इसी के साथ ही इस सत्य को अंगीकार करना होगा कि सत्य कभी हारता नहीं है और न ही उसका उद्देश्य किसी को हराने का होता है और असत्य तो सत्य की आभा में स्वयं अदृश्य हो जाता है, वैसे ही जैसे सूर्य के उज्जवल प्रकाश में रात्रि की कालिमा। असत्य की कालिमा से सत्य का दिव्य प्रकाश कभी धूमिल नहीं होता है।
सत्य को परम धर्म कहा गया है, सत्य को परम पद भी कहा गया है और सत्य को ही परब्रह्म परमात्मा कहकर उसका महत्व दर्शाया गया है। क्या इतने कारण पर्याप्त नहीं है सत्य को अपनाने के लिए, सत्य भाषण के लिए। सत्य बोलने वाले व्यक्ति भय रहित होता है और मिथ्याभाषी सदैव भयभीत रहता है। उसे भय रहता है उसके झूठ के खुल जाने का। सत्यवादी का विवेक जागृत रहता है, बुद्धि प्रखर होती है और चेहरे पर तेज रहता है। इसके विपरीत असत्यवादी का आत्मबल क्षीण हो जाता है, विवेक साथ छोड़ जाता है और उसक चेहरे पर भय की छाया मंडराती रहती है। सत्य से लाभ ही लाभ है, तो क्यों न सत्य को अपनाया जाए, अपने जीवन में उतारा जाए। सत्य को न केवल स्वीकार जाए अंगीकार किया जाए बल्कि उसे पूजा जाए क्योंकि ईश्वर भी तो सत्य ही है। अगर शास्त्रों की मानें तो सत्य ही परम ब्रह्म है, सत्य ही परम तप है, सत्य ही श्रेष्ठ यज्ञ है और सत्य ही शास्त्र ज्ञान है-