श्रीमद्भगवत गीता में कहा गया है – ‘सत्य के मार्ग पर वही चल सकता है, जो हार से न डरता हो, विजेता बनने की लालसा सत्य में बाधक हो सकती है।’ लेकिन संसार में तो प्रत्येक व्यक्ति विजेता ही बनना चाहता है। कोई भी हार को स्वीकार-अंगीकार करने को तत्पर नहीं रहता। संसार में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो पराजय से भयभीत न होता हो।…तो इसका अर्थ ये निकाला जा सकता है कि लोग सत्य के मार्ग पर चलना नहीं चाहते हैं। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि लोग सत्य पर चलना तो चाहते हैं, लेकिन हार के भय से विचलित होकर मार्ग बदल लेते हैं।
सत्य का मार्ग तलवार की धार के समान है और उस पर चलते समय बहुत ज्यादा सावधानी रखनी पड़ती है, जो सावधान रहते हैं वह सत्याचरण अपनाते हैं। परंतु सावधान तो असत्य भाषण में भी रहना होता है और असत्य बोलने में पोल खुलने का भय अपेक्षाकृत अधिक रहता है। फिर भी लोग झूठ बोलते हैं, शायद इसलिए कि असत्य उनके अहंकार को पुष्ट करता है और यह उन्हें स्वार्थ पूर्ति का शॉर्टकट लगता है। सत्य बोलने वाले से कहीं अधिक झूठ बोलने वाला भयभीत रहता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। शास्त्रों का कथन है कि वीर ही सत्य पर चल सकता है। सत्य पर चलने का नाम ही वीरता है। आज समाज में सत्य मार्ग पर चलने वालों का बहुत अभाव हो चला है। इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि समाज वीर शून्य होता जा रहा है। सवाल यह भी है कि व्यक्ति असत्य को अपनाता ही क्यों है, जबकि वह असत्य की बुराई और सत्य की अच्छाई को जानता – समझता है। इसका एक सबसे बड़ा कारण वह अंधी दौड़ है, जिसमें अधिकांश लोग हिस्सा ले रहे हैं। यह दौड़ है, नाक ऊंची करने की, यह दौड़ है अपने को दूसरों से श्रेष्ठ दिखाने की, यह दौड़ है, आध्यात्मिकता से दूर हो भौतिक साधनों में ही तमाम सुख तलाशने की और यह दौड़ है ऐसा कुछ पाने की जो जीवन के अंतिम पड़ाव तक मिलता नहीं है। सत्य को छोड़कर लोग मृग तृष्णा के पीछे भाग रहे हैं और जीवन को व्यर्थ गवां रहे हैं।
जिन्हें झूठ बोलने का व्यसन है वह दूसरों से ही नहीं अपने से भी झूठ बोलते हैं। दूसरों से झूठ बोलने से पहले उन्हें अपने से झूठ बोलना होता है। वे एक झूठ को जानते बूझते हुए सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं, यह अपने साथ छल ही तो है। व्यक्ति का यह आचरण स्वयं उसके अनर्थ का कारण बन सकता है, बनता है। भगवान बुद्ध कहते हैं – ‘सत्य वाणी ही अमृतवाणी है। सत्य वाणी ही सनातन धर्म है। सत्य, सदर्थ और सधर्म पर संत जन सदैव दृढ़ रहते हैं। लेकिन आज समाज में जो संत दिखाई पड़ते हैं, उनमें से अधिकांश ने संत का चोला तो धारण कर रखा है, परंतु उनके हृदय में संतत्व का उदय नहीं हो पाया है। ये संत भी सत्य से डरते हैं, क्योंकि स्वयं को सही सिद्ध करने के प्रयास में इन्हें पराजित होने से भय लगता है और जो विजेता बनने की लालसा रखता हो, वह सत्य को धारण नहीं कर सकता। भौतिकता की चकाचौंध ने सुविधाओं और अधिक से अधिक शिष्यों की लालसा ने और किसी हद तक विलासिता की चाह ने संतों को भी सत्य से दूर कर दिया है। उनका सत्य प्रवचनों में तो झलकता-छलकता है, आचरण में नहीं। इस संदर्भ में अपवाद की संभावना को भी नकारा नहीं जा सकता है।
शास्त्रों का कथन है कि जो सत्य वचन बोलता है, उसके लिए अग्नि जल बन जाती है, सागर जमीन, शत्रु मित्र, देव सेवक, जंगल नगर, पर्वत घर, सांप फूलों की माला, सिंह हिरण, पाताल दर, अस्त्र कमल, शेर लोमड़ी, जहर अमृत और विषम सम जाते हैं।