मन बड़ा चंचल, बड़ा प्रबल और किसी भी भौतिक अंकुश की पहुंच से बाहर है, निरंकुश है। मात्र विवेक रूपी अंकुश से मन को नियंत्रण में रखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय है ही नहीं। जो मन की शक्ति को पहचानते हैं, वह इस बात को भलीभांति जानते हैं कि मन पांचों ज्ञानेंद्रियों और पांचों कर्मेंद्रियों को वश में कर लेने की अद्भुत क्षमता रखता है। यह ग्यारहवीं इंद्रिय बाकी दस को संचालित करने शक्ति से परिपूर्ण है।
मन शाप और वरदान दोनों का हेतु है, कारण है। मनुष्य आत्मशक्ति के सहारे मन पर नियंत्रण कर श्रेष्ठता के शिखर पर स्थापित होने का वरदान पा सकता है और इसके विपरीत मन के हाथों मजबूर होकर पतन के गर्त में गिरने को शापित भी हो सकता है। मन सत्मार्ग का सहयात्री भी हो सकता है और मन अंधकार में भटक भटका भी सकता है। मन मनुष्य को परमात्मा की चौखट तक ले जा सकता है और यही मन पाप आत्माओं का संगी भी बना सकता है। मन मनुष्य की वह शक्ति है, जिसके सहारे से वह पुरुष से पुरुषोत्तम हो सकता है, नर से नारायण बन सकता है। मन की सहायता से मनुष्य देवत्व को प्राप्त कर सकता है।
मन की चंचलता को मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी कहा गया है और यही कमजोरी बुराइयों का कारण बनती है। मन की चंचलता का सबसे बड़ा कारण मनुष्य का संसार में राग है। संसार को पकड़े रहने से मन स्थिर नहीं रहता और संसार मनुष्य से छूटता नहीं है। मोह माया के जंजाल में मनुष्य इतना उलझ जाता है कि उसकी सोचने समझने की शक्ति क्षीण होते होते लुप्त प्राय: हो जाती है और ऐसी स्थिति में मन पर नियंत्रण करना केवल सपना ही हो सकता है।
मन की चंचलता पर काबू पाना थिरकते पारे को उंगलियों से उठाने जैसा है, मुश्किल और शायद किसी हद तक असंभव। मनुष्य संसार से मुंह मोड़ना चाहता नहीं है, इसलिए मन स्थिर होता नहीं है। इस सत्य को स्वीकार करना ही होगा कि मन को नियंत्रण में रखने वाले इस संसार में विरले ही होंगे। मन के काबू में तो सब है, लेकिन मन किसी के काबू में नहीं है। मन को काबू में रखने का हुनर शायद ही इस कलियुग में किसी के पास हो।
मन को नियंत्रण में रखने का उपदेश और सलाह देने वाले तो असंख्य हैं, परंतु उपाय कोई सुझाता नहीं है और जो उपाय सुझाए जाते हैं मन उनके द्वारा काबू में आता नहीं है। इस बात को सभी जानते और मानते हैं कि मन ही मनुष्य द्वारा की जाने वाली भलाई तथा बुराई का मुख्य कारक है। मनुष्य भलाई या बुराई मन से उपजे भावों के वशीभूत होकर ही तो करता है। स्वार्थ और अहंकार मन से उपजते हैं और स्वभाव को बिगाड़ देते हैं। स्वभाव भलाई बुराई का माध्यम बनता है, जबकि इन दोनों के पीछे होता तो मन ही है।
भलाई बुराई मनुष्य की छवि निर्धारित करती है उसे समाज में भले अथवा बुरे के रूप में स्थापित करती है। अनुभव का विषय है, अनेक बार मनुष्य ऐसे कर्म कर बैठा है, जिसे वह सपने में भी करना नहीं चाहता है। परिस्थिति और मन मनुष्य कठपुतली बना देते हैं और वह नाचता है। यह भी अनुभव का ही विषय है कि जब मन में कुछ बुरा करने का विचार आता है तो मनुष्य उसके लिए तैयार हो जाता है। इसके विपरीत मन में यदि किसी की भलाई का विचार आता है, तो व्यक्ति आजकल, सुबह-शाम करने लगता है। यदि मनुष्य अपने अंदर आत्मबल के द्वारा यह शक्ति उत्पन्न करले कि मन की बुरी बात सुनेगा नहीं और सही बात को मानने में देर करेगा नहीं, तो संसार का, समाज का स्वरूप बदल सकता है।