Tuesday, 26 November 2024

मै हूं दुपट्टे वाली

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मै हूं दुपट्टे वाली

                                                                                                                         प्रवीणा अग्रवाल

 

आज कुछ खास हो जाए। खास उन सबके लिए जो प्यार करते है। यह प्यार किसी से भी हो सकता है। प्यार तो आखिर प्यार ही होता है ना। अब जरा मेरे प्यार को भा समझ लीजिए और जान भी लीजिए कि प्यार का एक तरीका तो यह भी है। तो शुरु करते है इस खास प्यार की कहानी को।

दुपट्टों का गट्ठर

सर्दियों खत्म हो गई है, गर्मी का मौसम आ गया है। गर्मी आने के साथ ही गर्म कपड़े बेचारे फिर से बक्से में बंद हो गए हैं और बक्से से बाहर निकल आया है दुपट्टों का गट्ठर। कभी-कभी सोचती हूं कि दुपट्टे का बोझ स्त्री पर ही क्यों ? क्या लाज शर्म हया का सारा ठेका उसी ने ले रखा है। एक विचार यह भी आता है कि क्या छुपाने से कुछ छुप जाता है, पर दुपट्टे का गट्ठर खुलते ही सारा अनुताप धुल जाता है। कितनी यादें जुड़ी है इनके साथ ऊपर से इतने रंग, इतनी कशीदाकारी की मन इन रंगों में डूब डूब जाता है और स्मृतियों के सागर में डुबकी लगाने लगता है। यह केवल दुपट्टों का गट्ठर नहीं है। इसमें न जाने कितने शहरों की यादें, उत्सवों की मुलाकातें, मेले और बाराते हैं।

यह जो फिरोजी रंग का दुपट्टा है ना इसे दिल्ली हाट से मेरे मित्र ने अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद समय निकालकर मुझे भेजा था। उसे मालूम था कि दुपट्टे मुझे बहुत पसंद है। यह पीले रंग और लाल किनारी का दुपट्टा पूजा के हर पल का साक्षी है। भाई ने भाई दूज पर उपहार में दिया था। यह गुलाबी रंग का दुपट्टा इसका स्पर्श ऐसा लगता है कि जैसे भाई की कलाई में बांधा गया धागा विस्तृत होकर रक्षा विधान की तरह मेरे ऊपर तन गया है। इसे तन पर डालते ही सुरक्षा का एहसास हृदय को एक निश्चिंतता से भर देता है। यह स्वर्णिम आभा से चमचमाता दुपट्टा देख रही हूं, तो नजरें हट ही नहीं रही है। यह मेरी सहेली ने भेजा था महादेव की नगरी काशी से नवाबों के शहर लखनऊ। इससे मित्रता की भीनी-भीनी खुशबू आती है। यह संगम है सुंदरता का पवित्रता का एवं नेह के बंधनों का। यह जो धानी चुनर है ना, मां की सौगात है। कभी हरियाली तीज पर भेजी थी। इसे ओढ़ कर तो ऐसा लगता है जैसे मां ने आंचल में छुपा लिया है। आज जब यह बहुरंगी संसार मेरे सामने उद्घाटित है, तो ऐसा लग रहा है कि यह केवल दुपट्टे नहीं है। यह होली का हुड़दंग, दिवाली की दीपमाला, सावन की हरियाली, जन्माष्टमी की झांकी, दुर्गा पूजा की आरती, दशहरे की विजयश्री, महाशिवरात्रि की अभ्यर्थना और गंगा मेला की ओम ध्वनियां इनमें समाई हुई है।

इस गट्ठर को खोलते ही यादों का समुद्र उमड़ आता हैं। मित्रों एवं इष्ट जनों के चेहरे विराट रूप में प्रकट हो जाते हैं। होली दीवाली और जन्मदिन के सजीव चित्र घनघोर घटा बन आंखों से बहने लगते हैं। ये यादों के ताने-बाने, उपहार के धागे, स्मृतियों के अमरदीप, इष्टजनों के अपनत्व के साकार प्रतीक है। जिन्होंने समय समय पर मेरी सौंदर्य चेतना को निखारा है, मुझे प्रशंसा का पात्र बनाया है। समय के साथ यह बदरंग जरूर हुए हैं पर जिंदगी में खुशियों के रंग भरे हैं। यह पुराने हुए हैं लेकिन यादों को ताजा किए हुए हैं। इन्होंने बक्से में जगह घेरी है पर दिल में जगह बनाई है। बहुत प्रिय है यह मुझे इसीलिए यादों की इस पिटारीको सलीके से अलमारी में सजा दिया है मैंने।

[इस आलेख की लेखिका प्रवीणा अग्रवाल पूर्व प्रशासनिक अधिकारी तथा प्रसिद्ध चिंतक है]

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