Caste Census : भारत में जातिगत जनगणना की चर्चा फिर से होने लगी है। आखिर हो भी क्यों न , कल केंद्र सरकार ने पूरे देश में जातिगत जनगणना कराने का ऐलान किया है। भारतीय समाज में जाति का क्या महत्त्व है , यह बताने की जरूरत नहीं है। लंबे समय से विपक्ष द्वारा इसकी मांग की जा रही थी , जिसके ऊपर कल केंद्र सरकार ने मुहर लगा दी है।
देश की मौजूदा केंद्र सरकार ने आगामी जनगणना के साथ-साथ जाति जनगणना कराने का ऐलान किया है। इसके तहत जनगणना द्वारा एकत्र किए गए डेटा से निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं, निर्वाचित निकायों में महिलाओं के लिए तय किय गए आरक्षण पर भी असर पड़ेगा और अधिक कोटा और उनके उप-वर्गीकरण जैसे मांगों को भी बढ़ावा मिलेगा।
आखिर क्या है जातिगत जनगणना ?
जाति जनगणना का अर्थ है जनसंख्या के भीतर ही जातियों के आधार पर आंकड़े को एकत्र करना। यह प्रक्रिया विभिन्न सामाजिक समूहों की स्थिति, शिक्षा, रोज़गार, और जीवन स्तर को भी समझने में मदद करती है। इससे सरकार को देश के लोगों के लिए कल्याणकारी योजनाओं, आरक्षण और नीति-निर्माण में मदद मिलती है।
कैसा रहा है जातिगत जनगणना का इतिहास ?
ब्रिटिश काल (1881-1931): सबसे पहले ब्रिटिश सरकार द्वारा जाति आधारित जनगणना की शुरुआत 1881 में की थी। इसका मुख्य उद्देश्य भारत की बहुत ही जटिल जातीय और सामाजिक संरचना को समझना था। इस जनगणना में मुख्य रूप से धर्म एवं जाति के आधार पर जनसांख्यिकीय आंकड़े जुटाए गए थे। आखिरी बार 1931 में जाति की पूरी गणना की गई थी।
स्वतंत्र भारत (1951) : देश की आज़ादी के बाद, उस समय की नेहरू सरकार ने केवल अनुसूचित जाति (SC) और जनजाति (ST) की गणना जारी रखी। इसका मुख्य तर्क था कि जाति की पहचान को बढ़ावा देना सामाजिक एकता के लिए हानिकारक हो सकता है।
1961 के निर्देश : इस बार केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को OBC की सूची तैयार करने की छूट दी गई. इसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े समाज के लोगो के कलयाणकारी योजनाओं को लागू करना था लेकिन बाद में केंद्र सरकार ने कोई भी जाति गणना नहीं कराई।
मंडल आयोग (1980): मंडल आयोग द्वारा OBC समाज के लिए 27% आरक्षण की सिफारिश की गई थी , जिसके बाद जाति जनगणना की मांग तेज हो गई थी। लेकिन जातिगत आंकड़ों की कमी के कारण OBC समाज की पहचान और उनकी आबादी का अनुमान ना लगा पाने के कारण बाद में इसकी आलोचना भी हुई।
SECC 2011: 1931 के बाद पहली बार साल 2011 में UPA सरकार द्वारा सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना की गई, लेकिन आंकड़े सार्वजनिक नहीं हुए। जिसके बाद विपक्षी दलों ने इसे लेकर UPA सरकार की खूब आलोचना भी की थी।
राज्य स्तरीय प्रयास: पिछले कुछ वर्षो में बिहार, कर्नाटक, तेलंगाना जैसे राज्यों ने अपनी खुद के राज्यों की जाति गणना की। तजा उदारहण के तौर पर बिहार सरकार द्वारा कराए गए जातिगत जनगणना 2023 की रिपोर्ट में बताया गया कि बिहार में मुख्य रूप से OBC व EBC की आबादी 63% से भी ज़्यादा है।
क्यों रोकी गई थीजाति जनगणना?
राष्ट्रीय एकता : नेहरू सरकार का मानना था कि जाति आधारित गणना सामाजिक विभाजन को बढ़ाएगी।
प्रशासनिक कठिनाइयाँ : हज़ारों जातियों और उपजातियों को एक मानक में लाना जटिल कार्य है।
समाज सुधार दृष्टिकोण : जातिगत पहचान को कम कर एक समावेशी राष्ट्र की कल्पना की गई थी।
अब जाति जनगणना क्यों जरूरी हो गई है?
जाति आधारित आंकड़ों के सामने आने से शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और आरक्षण जैसे नीति बेहतर बनाई जा सकती है। इस जातिगत जनगणना के सामने आने से हाशिए पर मौजूद वर्गों की सही पहचान मिलने से उन्हें बेहतर योजनाओं का भी लाभ मिल सकता है। जातिगत डेटा से विभिन्न समुदायों की राजनितिक भागीदारी को समझने और राजनीतिक संतुलन को बनाने में भी मदद मिलेगी।
हाल ही में बिहार में हुए जातिगत जनगणना में बिहार कर कर्नाटक जैसे राज्यों ने दिखा दिया है कि जाति सर्वेक्षण से ही वास्तविक सामाजिक संरचना समझी जा सकती है। जाति अभी भी शिक्षा, नौकरियों और संसाधनों तक पहुंच को प्रभावित करती है। जातिगत जनगणना होने से इसके सटीक आंकड़े सामने आ सकेंगे।
जाति गणना से क्या लाभ हो सकते हैं?
जातिगत जनगणना होने से सरकारी योजनाएं अधिक सटीक और प्रभावी बन सकेंगी। विभिन्न जातीय समूहों की सही भागीदारी सुनिश्चित हो सकेगी। डेटा आधारित प्रशासनिक फैसले लिए जा सकेंगे। वंचित वर्गों को मुख्यधारा में लाने में मदद मिलेगी।
जाति जनगणना की चुनौतियाँ क्या हैं?
वर्गीकरण की कठिनाई : भारत में हज़ारों जातियाँ और उपजातियाँ हैं, जिनका वर्गीकरण चुनौतीपूर्ण है। जिसके कारण जनगणना के वक़्त सरकार को कठिनाई का सामना करना पद सकता है।
डेटा का दुरुपयोग : 2011 की तरह यदि आंकड़े निष्क्रिय रह गए, तो इसका उद्देश्य विफल हो सकता है। इससे डेटा का गलत इस्तेमाल होने का खतरा हो सकता है। Caste Census :
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