हिन्दु राष्ट्र के सपने के साथ वर्ष 1925 में हुर्ई थी RSS की स्थापना
भारतीय जनता पार्टी RSS की एक शाखा है
भारत के संविधाान को लम्बे अर्से तक स्वीकार नहीं किया RSS ने
अपनी किताब में नूरानी लिखते हैं कि जनवरी 1993 में RSS के प्रमुख रहे राजेंद्र सिंह ने लिखा कि संविधान में बदलाव की जरूरत है और भविष्य में इस देश के लोकाचार और प्रतिभा के अनुकूल संविधान अपनाया जाना चाहिए। 24 जनवरी 1993 को आंध्र प्रदेश के अनंतपुर में तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने भी संविधान पर नए सिरे से विचार करने की मांग दोहराई थी। हाल ही में साल 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं के बयानों के बीच ये कहा जाने लगा था कि भाजपा अगर ‘अबकी बार 400 पार’ के नारे को हकीकत में बदलती है तो वह संविधान को बदल देगी। भाजपा ने कई बार स्पष्टीकरण दिया कि ऐसा करने का उसका कोई इरादा नहीं है लेकिन ऐसे उदाहरण मौजूद हैं जब पार्टी ने संविधान में बड़े बुनियादी बदलाव की कोशिश की।
वरिष्ठ पत्रकार और लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बड़े नामों पर ‘द आरएसएस: आइकन्स ऑफ़ द इंडियन राइट’ नाम की किताब लिखी है। वे कहते हैं, “जब अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते NDA सरकार बनी तो उन्होंने सबसे पहला काम यह किया कि संविधान की समीक्षा के लिए एक समिति गठित की। भारी हंगामे की वजह से उन्हें समिति बनाने की वजह को बदलना पड़ा और कहना पड़ा कि यह समिति संविधान की पूरी समीक्षा न करके, ये देखेगी कि अब तक संविधान ने कैसे काम किया है।”
मुखोपाध्याय के मुताबिक वाजपेयी सरकार में संविधान की समीक्षा करने के लिए समिति इसलिए बनाई गई थी क्योंकि RSS और भाजपा का ये मानना था कि मौजूदा संविधान की जगह एक नया संविधान होना चाहिए। साल 2014 में प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल की शुरुआत संविधान को भारत की एकमात्र पवित्र पुस्तक और संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहकर तमाम विवाद समाप्त करने का प्रयास किया था।
दिसंबर 2024 में जब भारत की संसद संविधान को अपनाने के 75 साल पूरे होने का जश्न मना रही थी उस वक्त कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने संविधान और मनुस्मृति के मसले पर सावरकर के लेखों का हवाला देते हुए बीजेपी पर निशाना साधा। अपने दाहिने हाथ में संविधान और बाएँ हाथ में मनुस्मृति की प्रति लेकर राहुल गांधी ने कहा कि सावरकर ने अपने लेखन में साफ तौर पर कहा है कि हमारे संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है और संविधान को मनुस्मृति से बदल दिया जाना चाहिए. इस बयान पर संसद सत्र में कई दिन हंगामा हुआ। कांग्रेस समेत कई विपक्षी राजनीतिक दल मनुस्मृति और संविधान के मुद्दे पर लगातार RSS को घेरते रहे हैं। प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ा चुके हैं और आरएसएस और हिन्दू राष्ट्रवाद के विषयों पर कई किताबों के लेखक हैं। वे कहते हैं, “26 नवम्बर 1949 को भारत की संविधान सभा ने भारत का संविधान पास किया। चार दिन बाद संघ से जुड़े लोगों ने एडिटोरियल लिखा जिसमें कहा कि इस संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है। ” प्रोफेसर इस्लाम के मुताबिक संविधान की आलोचना करते हुए RSS ने ये सवाल भी उठाया था कि क्या मनुस्मृति में ऐसा कुछ नहीं मिला जिसे इस्तेमाल किया जा सके। वे कहते हैं, “इससे पहले सावरकर ये बोल चुके थे कि मनुस्मृति वह धर्मग्रंथ है जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सबसे अधिक पूजनीय है और मनुस्मृति हिन्दू कानून है।” गोलवलकर की बंच ऑफ थॉट्स का हवाला देते हुए प्रोफेसर इस्लाम कहते हैं, “भारत के संविधान का इतना मजाक मुस्लिम लीग ने भी नहीं उड़ाया जितना गोलवलकर ने उड़ाया।” प्रोफे़सर शम्सुल इस्लाम कहते है, ” RSS की सोच संविधान के प्रति जो पहले थी, वही अब भी है. और वे सही वक्त का इंतजार कर रहे हैं.”
नीलांजन मुखोपाध्याय प्रोफेसर इस्लाम की बात से सहमत होते हुए कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में संविधान में हुए बड़े बदलावों की बात करते हुए मुखोपाध्याय कहते हैं, “सीएए के तहत नागरिकता को धार्मिक पहचान से जोड़ दिया गया है। ये उन लोगों के लिए है जो बाहर से आकर भारत में बस गए हैं लेकिन इन लोगों में से मुसलमानों को बाहर रखा गया है।” मुखोपाध्याय का कहना है कि मौजूदा सरकार ने संविधान के मूल ढांचे पर बहस शुरू कर दी है, वो मूल ढांचा जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में आदेश दिया था कि इसे बदला नहीं जा सकता। वे कहते हैं, “उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और पूर्व कानून मंत्री किरेन रिजिजू तर्क दे रहे हैं कि ‘संविधान का मूल ढांचा’ नाम की कोई चीज़ नहीं है, सब कुछ बदला जा सकता है. वे कह रहे हैं कि विधायिका सर्वोच्च है इसलिए संविधान में कुछ भी बदलने के लिए आपको बस संसदीय बहुमत की जरूरत है।”
राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को लेकर भी अलग राय थी RSS की
धीरेंद्र झा एक जाने-माने लेखक हैं जिन्होंने RSS पर गहन शोध किया है. हाल ही में RSS के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर पर उनकी किताब प्रकाशित हुई है। इससे पहले वो नाथूराम गोडसे और हिंदुत्व के विषयों पर भी किताबें लिख चुके हैं। झा कहते हैं कि डॉक्टर हेडगेवार ने 21 जनवरी 1930 को लिखी चि_ी में RSS की शाखाओं में तिरंगे को नहीं बल्कि भगवा झंडे को फहराने की ही बात कही थी। RSS इन आरोपों का खंडन करता रहा है, वैसे भी 1930 में तिरंगा झंडे को राष्ट्रध्वज का दर्जा हासिल नहीं था। साल 2018 में संघ के मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा, “डॉ. हेडगेवार के जीवन का एकमात्र मिशन राष्ट्र का गौरव और स्वतंत्रता प्राप्त करना था। तो संघ का कोई और लक्ष्य कैसे हो सकता है? और स्वाभाविक रूप से स्वयंसेवकों के मन में हमारी स्वतंत्रता के सभी प्रतीकों के प्रति अत्यधिक श्रद्धा और समर्पण है। RSS इसके अलावा कुछ और सोच ही नहीं सकता।”
रामबहादुर राय एक जाने-माने पत्रकार रहे हैं और फिलहाल इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष हैं। उन्होंने भारत के संविधान और आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक बालासाहब देवरस पर किताबें लिखी हैं। RSS के साल 1930 में तिरंगा न फहराने की बात पर वे कहते हैं, “मेरा ये मानना है कि तिरंगा नहीं फहराया होगा। आप इसको मनोविज्ञान के हिसाब से देखिए। तिरंगा उस समय आजादी का प्रतिनिधित्व नहीं करता था। तिरंगा उस समय कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करता था। ”
राय कहते हैं, “ये सही है कि कांग्रेस उस समय राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की मुख्यधारा का प्रतिनिधि मंच था। RSS भी स्वाधीनता के लक्ष्य से प्रेरित था। लेकिन RSS का कांग्रेस से अस्तित्व अलग था और RSS के अस्तित्व का चिन्ह भगवा है तो डॉ हेडगेवार ने जो पत्र लिखा उसमें मेरी समझ से दो बातें हैं कि स्वाधीनता के आंदोलन में हम शामिल हैं परन्तु हमारा अस्तित्व अलग है, इसलिए हमको अपना झंडा फहराना चाहिए।”
RSS के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर अपनी किताब ‘आरएसएस : 21वीं सदी के लिए रोडमैप’ में लिखते हैं, “हमारा राष्ट्रीय ध्वज, जिसे हिंदी में ‘तिरंगा’ कहा जाता है, हम सभी को प्रिय है। 15 अगस्त 1947 को भारत के स्वतंत्र होने के दिन और 26 जनवरी 1950 को जिस दिन भारत एक गणतंत्र बना नागपुर में RSS मुख्यालय में तिरंगा फहराया गया था। ”
आंबेकर इस बात का भी जिक्र करते हैं कि 1963 में गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेते वक्त स्वयंसेवकों ने तिरंगा झंडा ही उठाया था। RSS से जुड़े लोग भी इस बात का हवाला अक्सर देते हैं कि 1962 में चीन से हुई लड़ाई के बाद 1963 के गणतंत्र दिवस की परेड में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संघ को खास तौर से बुलाया।
धीरेन्द्र झा कहते हैं कि ” संघ के लोगों के हाथ में तिरंगा पहली बार 1963 के गणतंत्र दिवस परेड में दिखा” लेकिन ऐसा नहीं था कि इस परेड में सिर्फ संघ को ही बुलाया गया था। वे कहते हैं कि इस परेड में सारे ट्रेड यूनियनों, स्कूलों, कॉलेजों को न्यौता दिया गया था। झा कहते हैं, “इस परेड को लोगों की परेड के रूप में सोचा गया था क्योंकि 1962 का युद्ध खत्म ही हुआ था और फौजें सरहद पर ही थीं। भारतीय मजदूर संघ, ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस और इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस जैसे संगठनों को न्यौता दिया गया था। उसमें ये (संघ के लोग) वर्दी पहनकर शामिल हुए क्योंकि इन्हें वैधता की जरूरत थी, गाँधी हत्याकांड के बाद इन्हें गैर-कानूनी ठहरा दिया गया था।” झा कहते हैं कि संघ के लोगों के हाथ में उस वक्त तिरंगा दिखा क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ये साफ कर दिया था कि कोई भी अपना झंडा या बैनर नहीं लाएगा और सबके हाथ में सिर्फ तिरंगा होगा। धीरेन्द्र झा के मुताबिक, “यहाँ भी संघ बाद में झूठ फैलाने लगा कि आरएसएस को नेहरू जी ने न्यौता दिया था।” वे कहते हैं, ” संघ का तिरंगे के साथ सहज रिश्ता नहीं रहा है। बहुत बाद में आकर जब संघ को समझ आने लगा कि तिरंगा, संविधान और गाँधी तो इस देश की आत्मा हैं तब से ये तिरंगे के प्रति श्रद्धा का दिखावा करने लगे। ” संघ की एक आलोचना ये भी रही थी कि RSS अपने मुख्यालय पर भारत का झंडा नहीं फहराता. साल 1950 के बाद संघ ने 26 जनवरी 2002 को अपने मुख्यालय पर पहली बार तिरंगा फहराया था। इसके जवाब में RSS के समर्थक और नेता कहते हैं कि संघ ने 2002 तक राष्ट्रीय ध्वज इसलिए नहीं फहराया क्योंकि 2002 तक निजी नागरिकों को राष्ट्रीय ध्वज फहराने की इजाजत नहीं थी। लेकिन इस तर्क के जवाब में कहा जाता है कि 2002 तक भी जो फ्लैग कोड के नियम लागू थे वो किसी भी भारतीय व्यक्ति या संस्था को गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस और गांधी जयंती पर झंडा फहराने से नहीं रोकते थे।
नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं कि 1950, 60 और 70 के दशकों में भी निजी कंपनियां तक 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन भारत के झंडे को फहराती थीं. “फ्लैग कोड का मकसद सिर्फ ये था कि राष्ट्रीय ध्वज के साथ खिलवाड़ न हो। ” आंबेकर लिखते हैं, “कई संगठनों और सरकारी विभागों की तरह ही आरएसएस का भी अपना झंडा है- भगवा झंडा या भगवा ध्वज। भगवा झंडा सदियों से भारत के सांस्कृतिक डीएनए का प्रतिनिधित्व करता रहा है. 2004 में ध्वज संहिता के नियमों के उदारीकरण के बाद से संघ मुख्यालय में तिरंगा नियमित रूप से उच्चतम मानकों के साथ फहराया जाता रहा है, गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर देश के सभी हिस्सों में तिरंगा फहराया जाता है; इन त्योहारों पर भगवा ध्वज भी फहराया जाता है.” प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम कहते हैं कि जिन दिनों तिरंगा भारत का राष्ट्रीय ध्वज बना तो संघ ने कहा कि ये मनहूस झंडा है. वे कहते हैं, “जो भी भारत के लोकतंत्र के प्रतीक थे, संघ ने उनका सम्मान नहीं किया क्योंकि उनके मुताबि? ये प्रतीक हिन्दू राष्ट्र के नहीं थे।”
लम्बे समय तक वर्ण व्यवस्था का समर्थक रहा था RSS
साल 2018 में इस विषय पर बोलते हुए सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा, “पचास के दशक के संघ में आपको ब्राह्मण ही नजर आते थे. आज के संघ में क्योंकि आप पूछते हो, थोड़ा-बहुत मैं देखता हूँ तो मेरे ध्यान में आता है कि प्रांत और प्रांत के ऊपर क्षेत्र स्तर पर सभी जातियों के कार्यकर्ता आते हैं. अखिल भारतीय स्तर पर भी अब एक ही जाति नहीं रही। यह बढ़ता जाएगा और सम्पूर्ण हिन्दू समाज का संगठन, जिसमें काम करने वालों में सभी जाति वर्गों का समावेश है, ऐसी कार्यकारिणी आपको उस समय दिखने लगेगी. मैंने कहा कि यात्रा लम्बी है लेकिन हम उस ओर आगे बढ़ रहे हैं, ये महत्व की बात है।” जहां एक तरफ संघ ने हिन्दू समुदाय में एकता की जरूरत पर जोर दिया, वहीं दूसरी तरफ उसने दलितों और पिछड़ी जातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए कई कार्यक्रम शुरू किए। सामाजिक समरसता वेदिका और वनवासी कल्याण आश्रम जैसी संस्थाओं के जरिए आरएसएस जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों को खत्म करने के लिए कई कार्यक्रम चलाता है। ये संस्थाएँ दूरदराज के गांवों में रहने वाले दलितों, पिछड़ी जातियों और जनजातियों के लोगों को शिक्षित करने का काम करती हैं और हाशिए पर पड़े समुदायों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश करती हैं। लेकिन RSS के आलोचक कहते हैं कि दलित और पिछड़ी जातियों के लिए संघ जो भी करता है उसका मकसद सिर्फ उन समुदायों को संघ के प्रति वफादार रखना है। नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, “संघ जानता है कि जातियों के बीच हिंदू एकीकरण के लिए जातिगत पहचान के आधार पर भेदभाव को ख़त्म करना ज़रूरी है. वो ये भी जानता है कि अगर जातिगत भेदभाव जारी रहता है तो संघ आगे नहीं बढ़ सकता। लेकिन संघ जाति व्यवस्था में भी विश्वास करता है। इसका नेतृत्व मुख्यत: उच्च जाति के हाथों में रहा है. हाल के वर्षों में ही दूसरी जातियों से कुछ लोग आए हैं, लेकिन अब भी आरएसएस मुख्य रूप से उच्च जाति का संगठन है।”
प्रोफेसर बद्री नारायण कहते हैं कि जब कोई संस्था उभरती है तो उसका न्यूक्लिअस (केंद्र) जाति पर ही आधारित होता है। वे कहते हैं, “किसी भी संस्था की शुरुआत सामाजिक नेटवर्क से होती है. लेकिन धीरे-धीरे जब संस्था आगे बढ़ती है तो वो अन्य लोगों को शामिल करती है. जो भी संस्था अन्य लोगों को शामिल नहीं करेगी, वो आगे बढ़ ही नहीं पाएगी, और संघ इतनी बड़ी एक संस्था बन चुकी है जो बिना लोगों को शामिल किए बढ़ नहीं सकती है। ये अविश्वसनीय है कि बिना और लोगों को शामिल किए इतनी बड़ी संस्था बन जाए।” प्रोफेसर बद्री नारायण कहते हैं कि पिछले कुछ समय में उन्होंने जब संघ के प्रचारकों के प्रोफाइलों को देखा और उनका अध्ययन किया तो ये समझ आया कि “बड़ी संख्या में ओबीसी और दलित संघ में आगे बढ़ रहे हैं और आगे के पदों पर जा रहे हैं।” वे कहते हैं, “प्रांत प्रचारक से लेकर और कई पदों पर वे आगे बढ़ रहे है। संघ लगातार नए समय को अपना लेता है और उसी के आधार पर उसमें नए परिवर्तन आते रहते हैं। लेकिन बहुत से लोग अभी भी पुराने लेंस से देख रहे हैं. पुराने लेंस में एक खास तरह की वामपंथी अवधारणा है कि संघ ऐसा है, संघ वैसा है लेकिन अगर पास से संघ को देखें तो बहुत बदलाव आया है। उसके लिए हमें एक नया लेंस बनाना होगा जिससे संघ को समझा जा सके। आप संघ को बाहर से देख रहे हैं और दूसरों की बनाई अवधारणा से देख रहे हैं।” संघ से जुड़े सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों का उदाहरण देते हुए प्रोफेसर बद्री नारायण कहते हैं, “वहां पढऩे वालों में दलित और ओबीसी समुदायों के बहुत सारे बच्चे आ रहे हैं और वहां से शिक्षा लेकर आगे बढ़ रहे हैं। उनमें से कई प्रचारक भी बनते हैं, कई नौकरियों में जाते हैं। ” “तो संघ एक ऐसे संगठन के रूप में विकसित हुआ है जो सशक्त बनाता है। संघ के स्कूलों ने हर तरह के समुदायों को शामिल करने में काफी काम किया है और शामिल करने की ये प्रक्रिया नीचे से शुरू हुई और ऊपर तक बढ़ती जा रही है।”
अरविंद मोहन एक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं. उन्होंने ‘जाति और चुनाव’ नाम से एक किताब लिखी है। वे कहते हैं, “संघ जब भी जाति के सवाल पर कोई हलचल देखता है तो कुछ बोलना शुरू कर देता है. लेकिन रज्जू भैया को छोडक़र आज तक संघ के अंदर ब्राह्मण के अलावा दूसरी जाति का भी नेता नहीं आया–दलितों, पिछड़ों और औरतों को तो छोड़ दीजिए लेकिन हर बार संघ दलितों का सवाल और आदिवासियों के पैर धोना और इस तरह की बात भी उठाता है।” अरविंद मोहन के मुताबिक जातिवाद और छुआछूत को लेकर समाज की सोच बदले या दलितों को अधिकार मिलें, “ऐसी कोई कोशिश संघ की तरफ से अभी तक दिखाई नहीं दी है भले ही अब संघ अपना सौवां साल मना रहा है।” वे कहते हैं, “अगर कोई कोशिश होती भी है तो वो इतनी ही होती है कि किसी दलित के घर खाना खा लिया, किसी आदिवासी के पैर धो दिए, उसके अलावा कुछ नहीं. सत्ता की साझेदारी में भी दलित कहीं दिखाई नहीं देते हैं और संघ के अपने संगठनात्मक ढांचे में भी दलित कहीं नहीं दिखाई देते हैं।”
जातिगत जनगणना और आरक्षण के मुद्दों को लेकर संघ एक असमंजस की स्थिति में नजर आता है क्योंकि माना जाता है कि संघ के उच्च जाति के समर्थकों की एक बड़ी संख्या आरक्षण के खिलाफ है। दिसंबर 2023 में विदर्भ क्षेत्र के आरएसएस सहसंघचालक श्रीधर गाडगे ने कहा कि जाति आधारित जनगणना नहीं होनी चाहिए क्योंकि ऐसी जनगणना एक बेमानी काम साबित होगा जिससे सिर्फ कुछ लोगों का ही फायदा होगा। इस बयान के साथ ही एक राजनीतिक घमासान शुरू हो गया और दो ही दिन बाद आरएसएस ने साफ किया कि वो जातिगत जनगणना के खिलाफ नहीं है। एक बयान में आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रभारी सुनील आंबेकर ने कहा, “हाल ही में जाति जनगणना को लेकर फिर से चर्चा शुरू हो गई है. हमारा मानना है कि इसका इस्तेमाल समाज की समग्र प्रगति के लिए किया जाना चाहिए और ऐसा करते समय सभी पक्षों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सामाजिक सद्भाव और अखंडता में कोई बाधा न आए।” आंबेकर ने साथ ही ये भी कहा कि “आरएसएस लगातार भेदभाव रहित, समरसता और सामाजिक न्याय पर आधारित हिंदू समाज बनाने के लक्ष्य के साथ काम कर रहा है। यह सच है कि ऐतिहासिक कारणों से समाज के कई वर्ग आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ गए। कई सरकारों ने समय-समय पर उनके विकास और सशक्तीकरण के लिए प्रावधान किए हैं. आरएसएस उनका पूरा समर्थन करता है। “
बड़े विवाद में फंस गया था RSS
1990 के दशक में जब पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने वाले मंडल कमीशन के खिलाफ देशभर में उग्र प्रदर्शन हुए तो संघ भी इस विरोध में शामिल था। आरक्षण के मुद्दे पर संघ और बीजेपी का विरोध तब भी देखा गया जब मंडल कमीशन के वक्त भारतीय जनता पार्टी ने वीपी सिंह के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार से समर्थन वापस ले लिया। मंडल आयोग के विरोध के वक्त संघ के रवैये का हवाला देते हुए अरविंद मोहन कहते हैं, “बीजेपी का मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में ओबीसी बेस था। कुछ सुशील मोदी जैसे नेता थे जिनको लगा कि अगर वो समाज में हो रहे बदलाव के अनुसार नहीं चलेंगे तो खत्म हो जाएँगे तो इस दबाव के चलते बीजेपी बदली, नहीं तो बीजेपी तो खुलेआम उस समय तक आरक्षण का विरोध कर रही थी, संघ विरोध कर रहा था।”
प्रोफेसर बद्री नारायण के मुताबिक जाति को एक आइडेंटिटी टूल (पहचान का उपकरण) बनाकर ही राजनीति में उसका इस्तेमाल होता है। वे कहते हैं, “जब भी आप जाति को विकास के लिए इस्तेमाल करना चाहेंगे, तब भी वो आइडेंटिटी टूल में बदलेगी ही. इससे बचना मुश्किल है। तो जैसे ही जातिगत जनगणना की बात करेंगे तो जाति वहां आनी है और जाति एक आइडेंटिटी पॉलिटिक्स (पहचान से जुडी राजनीति) के रूप में आनी है और आइडेंटिटी पॉलिटिक्स हाशिए पर रह रहे समुदायों के लिए एक समय तक तो सशक्त करती है लेकिन एक समय के बाद वो उस सशक्तीकरण को रोकती है।” इस प्रकार आप समझ सकते हो कि RSS की संविधान, राष्टï्रीय ध्वज तथा वर्ण व्यवस्था को लेकर खूब आलोचना होती है। कहा जा सकता है कि RSS तमाम विवादों को तोडक़र आगे बढ़ रहा है। इसी साल 2025 में RSS का 100वां स्थापना दिवस मनाया जाएगा।
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