नई दिल्ली। साल 2018 से ही महाराष्ट्र में सियासी दंगल का विश्वकप हो रहा है। हालांकि इस तरह के दंगल पहले भी होते रहे हैं, लेकिन मौजूदा तस्वीर ही कुछ अलग है। राज्य में दलबदल की घटना कोई नई नहीं है। इससे पहले भी इस तरह की घटनाएं कई बार हो चुकी हैं। महाराष्ट्र में अब से एक साल पहले शिवसेना और अब एनसीपी बीजेपी के निशाने पर रही है। दलबदल विरोधी कानून तो राजीव गांधी सरकार में 52वें संशोधन के तहत लाया गया, लेकिन इससे बहुत पहले एक नेता ने तो सिर्फ 9 घंटे में तीन पार्टियां बदलकर इतिहास ही रच दिया था। मौजूदा हालात ने दलबदल विरोधी कानून को मजाक बना दिया है। यह चर्चा का विषय बना हुआ है।
Defection Law
मजाक बना दलबदल विरोधी कानून
अभी तीन दिन पहले की ही बात है। दो जुलाई को शरद पवार के भतीजे अजित पवार एनसीपी से 8 विधायकों के साथ शिंदे-बीजेपी सरकार में शामिल हो गए। उसी दिन उन्होंने डिप्टी सीएम पद की शपथ भी ले थी। उनके साथ एनसीपी के 8 विधायकों छगन भुजबल, धनंजय मुंडे, अनिल पाटिल, दिलीप वलसे पाटिल, धर्मराव अत्राम, संजय बनसोड़े, अदिति तटकरे और हसन मुश्रीफ को भी शिंदे मंत्रिमंडल में जगह दे दी गई थी। अब कहा जा रहा है कि शरद पवार बागी विधायकों के खिलाफ दलबदल विरोधी कानून के तहत कार्रवाई की मांग कर सकते हैं। इससे पहले एकनाथ शिंदे ने उद्धव ठाकरे से बगावत कर बीजेपी के समर्थन से सरकार बना ली थी। तब शिंदे ने दावा किया था कि उनके पास शिवसेना के 40 विधायक हैं। उस समय उद्धव ठाकरे ने 16 बागी विधायकों को अयोग्य ठहराने के लिए याचिका दाखिल कर दी।
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अब पार्टी पर कब्जे की जंग
अजित गुट ने अब एनसीपी के चुनाव चिह्न पर अपना दावा ठोक दिया है। उनका कहना है कि एनसीपी के 40 विधायक उनके साथ हैं। वैसे अजित द्वारा एनसीपी पर कब्जा कर पाना इतना आसान नहीं होगा। नियम के मुताबिक दोनों गुटों को खुद को असली एनसीपी साबित करने के लिए पार्टी के पदाधिकारियों, विधायकों और सांसदों का बहुमत हासिल होना जरूरी है। केवल बड़ी संख्या में विधायकों का सपोर्ट हासिल होने से पार्टी पर किसी का अधिकार साबित नहीं हो जाता। चुनाव आयोग सांसदों और पदाधिकारियों के समर्थन को भी ध्यान में रखते हुए यह फैसला लेगा।
अजित खेमे को अलग पार्टी की नहीं मिल सकती मान्यता
नियम के मुताबिक अजित खेमे को तुरंत एक अलग पार्टी की मान्यता नहीं मिल सकती। हालांकि, दलबदल विरोधी कानून बागी विधायकों को तब तक सुरक्षा प्रदान करता है, जब तक वे किसी अन्य पार्टी में विलय नहीं कर लेते हैं या नई पार्टी नहीं बना लेते हैं। इसके बाद जब वे चुनाव चिह्न के लिए आयोग से संपर्क करते हैं, तो आयोग चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) आदेश, 1968 के आधार पर फैसला लेता है। लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य के मुताबिक चुनाव चिह्न के आवंटन पर निर्णय लेने से पहले चुनाव आयोग दोनों पक्षों को विस्तार से सुनेगा, पेश किए गए सबूतों को देखने के बाद यह तय करेगा कि कौन सा गुट असली पार्टी है।
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क्यों पड़ी दलबदल विरोधी कानून की जरूरत
राजनीतिक दलबदल पर रोक लगाने के लिए इस कानून को लाया गया था। इसके लिए 1985 में राजीव गांधी की सरकार में संविधान में 52वां संशोधन किया गया था। इस कानून के तहत उन सांसदों या विधायकों को आयोग्य घोषित किया जा सकता है, जो किसी राजनीति दल से चुनाव चिह्न से चुनाव जीतने के बाद खुद ही अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देते हैं, पार्टी लाइन के खिलाफ चले जाते हैं, पार्टी ह्विप के बावजूद वोट नहीं करते हैं और पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करते हैं।
साल 1985 में बना दलबदल विरोधी कानून
80 के दशक तक दल बदलने की घटनाओं में बहुत तेजी देखी को मिली। इस बीच, इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई। 1984 के लोकसभा चुनाव के लिए राजीव गांधी को कांग्रेस का फेस बनाया गया। तब राजीव ने लोगों से दलबदल कानून लाने का वादा किया। कांग्रेस सत्ता में लौटी। राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाया गया। सत्ता संभालने के 8 हफ्ते के भीतर ही उन्होंने 1985 में दलबदल विरोधी कानून लागू कर दिया।
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कानून का अपवाद
इस कानून में एक अपवाद भी है। इसके तहत अगर किसी दल के एक तिहाई सदस्य अलग दल बनाना या किसी दूसरी पार्टी में विलय चाहते हैं तो उन पर अयोग्यता लागू नहीं होगा। दलबदल विरोधी कानून के प्रावधानों को संविधान की 10वीं अनुसूची में रखा गया है, लेकिन कानून बनने के बाद पहले जो दलबदल एकल होता था, वह सामूहिक तौर पर होने लगा। इस कारण संसद को 2003 में 91वां संविधान संशोधन करना पड़ा। इसके तहत 10वीं अनुसूची की धारा 3 को खत्म कर दिया गया, जिसमें एक साथ एक-तिहाई सदस्य दल बदल कर सकते थे।
दिलचस्प किस्सा
राजनीति में गया राम का किस्सा हरियाणा से जुड़ा हुआ है। यह 1967 का समय है, जब 81 सीटों वाले हरियाणा राज्य में विधानसभा चुनाव हुए थे। इस चुनाव में कांग्रेस ने बाजी मार ली थी। कांग्रेस के 48, जनसंघ के 12, स्वतंत्र पार्टी के 3, रिपब्लिकन आर्मी ऑफ इंडिया के 2 उम्मीदवारों और 16 निर्दलियों ने जीत हासिल की थी। कांग्रेस की सरकार बनी। भगवती दयाल शर्मा को सीएम बनाया गया, लेकिन यह सरकार बहुत दिन न चल सकी। दक्षिणी हरियाणा के असंतुष्ट नेता राव बीरेंदर सिंह ने कांग्रेस के 37 विधायकों को साथ लेकर बगावत कर दी। बाद में उन्होंने स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ का समर्थन और 16 निर्दलीय विधायकों के समर्थन ने अपनी सरकार बना ली।
आठ महीने चली बागियों की सरकार
बीरेंदर सिंह की सरकार करीब आठ महीने चली। इसके बाद भारत की राजनीति में ऐसी घटना देखने को मिली, जो हमेशा के लिए चर्चा का विषय बन गई। इस सरकार से भी विधायक छिटकने लगे। 44 विधायकों ने पार्टी बदल ली। इनमें एक सदस्य ने पांच बार, दो सदस्यों ने चार बार, तीन विधायकों ने तीन बार, चार विधायकों ने दो बार और 34 विधायकों ने एक बार अपना खेमा बदला। इन्हीं विधायकों में एक थे गया लाल। वह पलवल की हसनपुर सीट से निर्दलीय विधायक थे। गया लाल ने करीब 360 वोटों के अंतर से जीत दर्ज की थी। इन्होंने 9 घंटे में तीन बार पार्टी बदल ली। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक वह पहले कांग्रेस में गए, कुछ घंटे बाद यूनाइटेड फ्रंट में शामिल हो गए थे। इसके बाद वह फिर कांग्रेस में लौटे और बाद में यूनाइटेड फ्रंट में आ गए थे। तब राव बीरेंद्र सिंह ने चंडीगढ़ में मीडिया को संबोधित करते हुए कहा था कि गया राम अब आया राम हैं। संभवत: इसी घटनाक्रम के बाद से दलबदलुओं के लिए ‘आया राम, गया राम’ मुहावरे का इस्तेमाल होने लगा।
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