अमेरिका और आस्ट्रेलिया को क्यों पड़ी भारत की जरूरत

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locationभारत
userचेतना मंच
calendar01 Dec 2025 04:57 PM
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क्या आप जानते हैं कि यूरोप और अफ्रीका को अमेरिका से अलग करने वाले महासागर का नाम क्या है? अगर हां, तो आप यह भी जानते होंगे कि अमेरिका और एशिया को कौन सा महासागर अलग करता है।

अमेरिकी महाद्वीप को यूरोप और अफ्रीका से अलग करने वाले महासागर को अटलांटिक महासागर कहते हैं और प्रशांत महासागर, अमेरिकी महाद्वीप को एशिया से अलग करता है।

अमेरिका की दुनिया के किसी भी देश से दोस्ती इस बात पर निर्भर करती है कि वह इन दो महासागरों के किस किनारे पर बसा है।

अफगनिस्तान से अमेरिका के हटने की ये है असल वजह इसे ऐसे समझ सकते हैं कि जब अमेरिका और सोवियत संघ दुनिया की दो महाशक्तियां थीं, उस वक्त अमेरिका के लिए यूरोप और अफगानिस्तान का महत्व दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा था। क्योंकि, यूरोप और अफगानिस्तान की सीमाएं तत्कालीन सोवियत संघ से लगती थीं। सोवियत संघ को घेरने के लिए अमेरिका को इन देशों की जरूरत थी।

अब अमेरिका को है इस देश से खतरा दुनिया अब बदल चुकी है। अमेरिका अभी भी दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश है, लेकिन सोवियत संघ की जगह अब चीन ने ले ली है।

चीन जिस तेजी से विकास कर रहा है उससे सबसे ज्यादा डर अमेरिका को है। चीन की बढ़ती सैन्य और आर्थिक ताकत अमेरिका से उसकी नंबर वन की पोजीशन को कभी भी छीन सकता है।

चीन के निशाने पर हैं ये तीन देश ऐसे में उसे एशिया में ऐसे सहयोगी की जरूरत है जो चीन से मुकाबला करने की हिम्मत रखता हो। एशिया के किसी भी देश में चीन का विरोध करने की हिम्मत नहीं है। केवल भारत ही है जो चीन की आंख में आंख डालकर बात करने की हिम्मत दिखा चुका है।

चीन धीरे-धीरे ताईवान, लद्दाख पर कब्जा करने की फिराक में है। ताईवान पर कब्जा कर वह जापान और आस्ट्रेलिया को अपने निशाने पर लेना चाहता है। जबकि, लद्दाख पर कब्जा कर भारत को सबक सिखाना चाहता है।

क्यों जापान, आस्ट्रेलिया और भारत पर है चीन की नजर जापान और आस्ट्रेलिया लंबे समय से अमेरिका के सामरिक और रणनीतिक साझेदार हैं। शीत युद्ध के दौरान भारत का झुकाव सोवियत संघ की ओर था। हालांकि, सोवियत संघ के विघटन और चीन की बढ़ती ताकत के बाद भारत और अमेरिका दोनों को ही एक दूसरे की जरूरत है।

प्रशांत महासागर का राजनीति से क्या कनेक्शन है अब समझते हैं कि आखिर इसमें प्रशांत महासागर की क्या भूमिका है। प्रशांत सागर के उत्तरी हिस्से में जापान, मध्य में भारत और दक्षिण में आस्ट्रेलिया है। प्रशांत सागर के दूसरे हिस्से पर खुद अमेरिका बैठा हुआ है।

साफ है कि अगर अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया और भारत आपस में मिल जाएं, तो प्रशांत महासागर के हर छोर पर अमेरिका के दोस्त होंगे। इससे चीन को समुद्र और जमीन दोनों ओर से घेरने की अमेरिकी रणनीति सफल हो जाएगी।

क्या क्वाड का मकसद सिर्फ चीन को घेरना है? अमेरिका और भारत की दोस्ती का जितना सामरिक महत्व है उससे कहीं ज्यादा यह व्यापारिक रूप से महत्वपूर्ण है। चीन और अमेरिका के बीच व्यापारिक संबंधों में चीन लगातार मजबूत होता जा रहा है। व्यापारि रिश्ते में चीन के बढ़ते प्रभाव का नतीजा चीन अमेरिका ट्रेड वार था। अमेरिका और यूरोप के देश चीन पर अपनी आर्थिक निर्भरता को कम करना चाहते हैं। इसमें भारत उनके लिए सबसे बड़ा मददगार साबित हो सकता है।

इन देशों पर है विस्तारवाद का खतरा ताईवान से लेकर लद्दाख और चीन सागर से लेकर जिबूती तक चीन अपनी सीमाओं का विस्तार करने की फिराक में है। भारत, अमेरिका सहित दुनिया के अन्य लोकतांत्रिक देश चीन की इस विस्तारवादी नीति को खतरे को भांप चुके हैं। चीन को रोकने के लिए लोकतांत्रिक देशों को साथ आना स्वाभाविक है।

इन दो मूल्यों पर मंडरा रहा है खतरा! जापान सहित पश्चिती देश लोकतंत्र और उदारवादी मूल्यों के समर्थक हैं। भारत हमेशा से लोकतांत्रिक और उदारवादी देश रहा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर अल्पसंख्यक समुदाय के लोग काबिज रहे हैं।

लोकतंत्र और उदारवादी मूल्यों में विश्वास करने वाले सभी देश चीन को एक खतरे के रूप में देखते हैं। वे नहीं चाहते कि चीन अपनी ताकत और पैसे के बल दुनिया के कमजोर देशों पर अपना प्रभाव कायम कर वहां भी लोकतंत्र का गला घोंट दे।

-संजीव श्रीवास्तव

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स्विट्जरलैंड में हो सकेगी संलैंगिक जोड़ों की शादी

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locationभारत
userचेतना मंच
calendar30 Nov 2025 08:32 PM
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दिल्ली। भारत ही नहीं बल्कि विश्व के अनेक देशों में समलैंगिक विवाह को आज भी कुप्रथा या हेय दृष्टि से देखा जाता है। अक्सर समलैंगिक जोड़ों को विवाह करने के लिए घर-परिवार और समाज से दो-चार जरूर करना पड़ता है लेकिन उन्हें समाजिक मान्यता फिर भी नहीं मिलती। समलैंगिक कम्युनिटी ने अपने अधिकारों को पाने के लिए गली-मोहल्लों, सड़क-चौराहों से लेकर कोर्ट तक का सहारा लिया है जहां कहीं उन्हें जीत मिली है तो कहीं हार। बावजूद इसके इन्होंने अपने हक की लड़ाई को लड़ना नहीं छोड़ा।

ताजा घटनाक्रम स्विट्जरलैंड का है जहां स्विट्जरलैंड की जनता ने समलैंगिक जोड़ों की शादी को लेकर कराए गए जनमत संग्रह में दो तिहाई मतों से अपनी मंजूरी दे दी है। स्विट्जरलैंड ने रविवार को हुए एक जनमत संग्रह में समलैंगिक जोड़ों को शादी करने और बच्चे गोद लेने की अनुमति देने के पक्ष में ऐतिहासिक फैसला दिया। मतदाताओं ने बड़े बहुमत से समलैंगिक शादी के पक्ष में मतदान किया। इसी साल समलैंगिक शादियों के विरोधियों ने जनमत संग्रह की मांग की थी। इस मांग के समर्थन में उन्होंने इतने लोगों के दस्तखत जुटा लिए थे कि सरकार को जनमत संग्रह कराना पड़ा। आधिकारिक नतीजों के मुताबिक स्विट्जरलैंड के 64.1 फीसदी मतदाताओं ने इसके पक्ष में मत दिया जबकि 36 प्रतिशत ने समलैंगिक शादियों के विरोध में मतदान किया। हालांकि, समर्थकों ने कहा है कि इस तरह की शादियां होने में महीनों लग सकते हैं। इसका कारण देश की प्रशासनिक और विधायी प्रक्रिया बताया जा रहा है। मतदान से पहले सरकार और सांसदों ने मतदाताओं से "सभी के लिए शादी" का समर्थन करने और एलजीबीटीक्यू+ जोड़ों के मौजूदा "असमान व्यवहार" को खत्म करने का आग्रह किया था। पिछले साल देश के सांसदों ने समलैंगिक विवाह को वैध बनाने के लिए मतदान किया था। लेकिन कानून का विरोध करने वाले रूढ़िवादी नेताओं ने इस मुद्दे पर जनमत संग्रह कराने के लिए जरूरी 50,000 हस्ताक्षर जुटा लिए थे। कुछ ईसाई समूह के सदस्यों और दक्षिणपंथी स्विस पीपुल्स पार्टी (एसवीपी) जो कि स्विट्जरलैंड की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ने ऐसी शादियों का पुरजोर विरोध किया था। स्विट्जरलैंड ने 1942 में समलैंगिकता को अपराध मुक्त कर दिया था, लेकिन स्थानीय और क्षेत्रीय पुलिस ने 1990 के दशक तक "समलैंगिक रजिस्टर" बनाए रखा।

साल 2007 में एक नई शुरुआत करते हुए सरकार ने समलैंगिक जोड़ों को साथ रहने का अधिकार दे दिया था लेकिन उन्हें उस वक्त शादी का अधिकार नहीं दिया गया था। हर साल करीब 700 लोग साथ रहने के लिए रजिस्टर कराते हैं। हालांकि इस तरह से रहने वाले लोगों को उस तरह का अधिकार नहीं मिलता जैसा कि शादीशुदा जोड़ों को मिलता है। वे बच्चों को गोद लेने से वंचित रह जाते थे। दिसंबर में सांसदों ने सिविल यूनियन के बजाय समलैंगिक, उभयलिंगी, ट्रांसजेंडर और क्वीर लोगों को शादी करने की अनुमति देने के लिए मतदान किया था। जनमत संग्रह के परिणाम की पुष्टि होने के बाद विवाह विधेयक को कानून बनने की अनुमति मिल जाएगी। समान लिंग वाले जोड़े साथ मिलकर बच्चे गोद ले पाएंगे और वे नागरिकता के लिए भी सरल प्रक्रिया के तहत आवेदन कर पाएंगे।

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जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर होगा बच्चों पर

Climate change
locationभारत
userचेतना मंच
calendar01 Dec 2025 10:46 PM
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नई दिल्ली। भारत ही नहीं सारा विश्व वर्तमान में एक ऐसी समस्या से जूझ रहा है जिसका वक्त रहते अगर समाधान न किया गया तो शायद धरती का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। एक नई रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन की वजह से बुजुर्गों के मुकाबले बच्चों को भारी गर्मी, बाढ़ और सूखे का सामना करना पड़ेगा। नेपाल से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक हर जनमानस अपने देश के कर्णधारों से इसे नजरअंदाज ना करने की अपील कर रहे हैं। 'सेव द चिल्ड्रन'; एनजीओ की एक नई रिपोर्ट में दावा किया गया है कि तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन की वजह से बच्चों को औसतन सात गुना ज्यादा गर्मी की लहरों और करीब तीन गुना ज्यादा सूखे, बाढ़ और फसलों के बेकार होने का सामना करना पड़ सकता है। मध्य और कम आय वाले देशों के बच्चों पर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ेगा। अफगानिस्तान में वयस्कों के मुकाबले बच्चों को 18 गुना ज्यादा गर्मी की लहरों का सामना करना पड़ सकता है। माली में संभव है कि बच्चों को 10 गुना ज्यादा फसलों के बेकार हो जाने का असर झेलना पड़े।

सबसे ज्यादा असर बच्चों पर : नेपाल की रहने वाली 15 वर्षीय अनुष्का कहती हैं, "लोग कष्ट में हैं, हमें इससे मुंह नहीं मोड़ना चाहिए ,जलवायु परिवर्तन इस युग का सबसे बड़ा संकट है।" अनुष्का ने पत्रकारों को बताया, "मैं जलवायु परिवर्तन के बारे में, अपने भविष्य के बारे में चिंतित हूं। हमारे लिए जीवित रहना लगभग नामुमकिन हो जाएगा।" नया शोध, सेव द चिल्ड्रन और बेल्जियम के व्रिये यूनिवर्सिटेट ब्रसल्स के जलवायु शोधकर्ताओं के बीच सहयोग का नतीजा है। इसके लिए 1960 में पैदा हुए बच्चों के मुकाबले 2020 में पैदा हुए बच्चों के पूरे जीवन काल में चरम जलवायु घटनाओं के उनके जीवन पर असर का हिसाब लगाया गया। यह अध्ययन विज्ञान की पत्रिका "साइंस" में भी प्रकाशित किया जा चुका है।

स्थिति में किया जा सकता है बदलाव : इसमें कहा गया है कि वैश्विक तापमान में अनुमानित 2.6 से लेकर 3.1 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़त का "बच्चों पर अस्वीकार्य असर" होगा। सेव द चिल्ड्रन के मुख्य कार्यकारी इंगर अशिंग ने कहा, "जलवायु संकट सही मायनों में बाल अधिकारों का संकट है" अशिंग ने आगे कहा, "हम इस स्थिति को पलट सकते हैं लेकिन उसके लिए हमें बच्चों की बात सुननी होगी और तुरंत काम शुरू कर देना होगा। अगर तापमान के बढ़ने को 1.5 डिग्री तक सीमित किया जा सके तो आने वाले समय में पैदा होने वाले बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए काफी ज्यादा उम्मीद बन सकती है।"