Hindi Kahani - ऐश्वर्य

Hindi Kahani - श्रीकुमार के सीढ़ी से उतरकर बरामदे से गुजरते ही चारों तरफ कीमती सेंट की खुशबू फैल गयी। देह पर चुन्नटदार मलमल का कुर्ता और चुन्नट की हुई धोती का तहदार और लहराता सिरा जमीन पर लोट-लोट जाता था। पैरों में बेशकीमती ग्रेशियन जूती और चाँदी की मूठवाली छड़ी थामे श्रीकुमार तेजी से नीचे उतर गये।
वे रोज ही इसी तरह निकल जाते हैं। पिछले अठारह सालों से जाते रहे हैं। लगातार ।
और चाहे सारी दुनिया ही क्यों न बदल जाए, श्रीकुमार की चर्या बदल नहीं सकती। न तो इस नियम का उल्लंघन हुआ है और न सज-धज में कोई परिवर्तन। और इसमें बदलाव के बारे में किसी ने शायद कभी सोचा भी नहीं। पच्चीस साल की उम्र से ही, वे इसी सज-धज के साथ, नियत समय पर और एक नियत ठिकाने पर हाजिरी बजा लाते हैं। उनके घर से निकलने और घर वापस आने का समय भी घड़ी देखकर ही तय है जैसे। रात के आठ बजे से दस बजे तक। कुल मिलाकर दो घण्टे। वे कहाँ जाते हैं, यह कोई दबी-छिपी बात नहीं लेकिन इस बारे में कोई कुछ कहता नहीं। सभी इस बारे में जानते हैं लेकिन साफ-साफ कोई बताना नहीं चाहता।
Hindi Kahani - ऐश्वर्य
शायद इसलिए बताया नहीं जाता ताकि घर के मालिक का सम्मान बना रहे और घर की मालकिन का भी। लेकिन सवाल यह है कि अपर्णा इस तरह की प्रचलित सम्मान-असम्मान से भरी दुनिया में रहती भी है ? यहाँ की जमीन पर खड़े होकर और हाथ बढ़ाकर उसका सिरा पा लेना क्या इतना ही आसान है ?
जबकि आभा ने तो असम्मान की पहल करके भी देख लिया। श्रीकुमार के छोटे भाई सुकुमार की पत्नी आभा। वह उस दिन दालान के एक छोर पर बैठकर पान बना रही थी। जेठ जी के बाहर निकल जाते ही उसने सामने बैठी फुफेरी ननद नन्दा की ओर 8वें तिरछी कर देखा और हौले से मुस्करायी। इस मुस्कान का मतलब था 'देख लिया न...जैसा बताया था ठीक वैसा ही निकला न...? नन्दा ने गाल पर हाथ टिकाकर हैरानी दिखायी और जिस तरह की मुद्रा बनायी उसे शब्दों में बाँधा जाए तो कुछ इस तरह कहा जाएगा, 'ओ माँ...सचमुच...वैसा ही। अब भी...इस उमर में...ओ...हो...!' नन्दा इस घर में बहुत दिनों के बाद आयी थी।
जब मामा-मामी जीवित थे तो वह प्रायः यहाँ आया करती थी। चूँकि वह बचपन में ही विधवा हो गयी थी इसलिए इस घर में उसका आदर और जतन किया जाता था। हालाँकि ममेरे भाइयों में उसके प्रति कोई विशेष उत्साह न था कि वे उसकी अगवानी यह कहकर करें कि 'आओ, लक्ष्मी बहना !' बल्कि 'जल्दी टले तो जान बचे' वाली बात ही उनके मन में रहती। इसलिए नन्दा भी उखड़े मन से ही यहाँ आया करती। लेकिन अबकी बार वह चाहकर ही आयी है। हालाँकि यहाँ आकर उसने घण्टा भर के लिए भी अपने को किसी नये मेहमान की तरह कोने में सहेज नहीं रखा। नन्दा जैसी फुर्तीली और मुखर स्त्रियों के लिए अपनी जगह बना लेने में कोई ज्यादा देर नहीं लगती।
आते ही भावजों की चुटकी लेते हुए कहती, "लोग ठीक ही कहते हैं, “भाई का भात भावज के हाथ।' अरे बहूरानियो, तुम दोनों धन्य हो ! इस जनमजली ननद की खोज-खबर तक लेती हो कभी ? मेरे दोनों भोले-भाले भाइयों को आँचल में बाँध रखा है। कभी भूलकर भी...?"
भाई खाने को बैठे हों तो वह तपाक से वहाँ पहुँच जाती। फिर मीठी चुटकी लेती हुई आसमान सिर पर उठा लेती, "मैं क्या बके जा रही हूँ, सुन भी रहे हो, भले लोगो ! यह मुँहजली जिन्दा भी है कि मर-मरा गयी-एक बार भी कभी इस बारे में कोई खोज-खबर ली है ? कोई ऐसा भी पराया हो जाता है ? छी....छी....छीः... । अगर दो दिन के लिए तुम्हारे घर पसर भी गयी तो आखिर तुम्हारा कितना कुछ भकोस लूँगी। और इस घर पर भी हाल यह है कि एक वेला के लिए मुट्ठी भर अरवा चावल का भात तक नहीं जुटता।"
श्रीकुमार ने हँसते हुए उत्तर दिया था, “अरे भई...अब अरवा चावल जैसी चिकनी और महीन चीजें कहाँ मिलती हैं आजकल । अब यह तो नहीं हो सकता कि तुम्हें मान-सम्मान से बुलाकर फाका करने को मजबूर करें और तुम्हारी जान ही ले लें।" “अच्छा, अरे बाबू लोगो ! दरअसल आदर और जतन करने की चाह होनी चाहिए। फिर तो घास की रोटी भी खायी-खिलायी जा सकती है...समझे ?" “अच्छा", सरल स्वभाव वाले श्रीकुमार ठठाकर हँस पड़े, "तो फिर मैं चला घास के तिनके के जुगाड़ में...तेरे लिए सहेजकर रखना ही पड़ेगा।"
Hindi Kahani - ऐश्वर्य
नन्दा ने अपनी सफेद समीज के अन्दर से एक छोटी-सी रुपहली डिबिया निकाली। फिर उसका ढक्कन खोलकर सुगन्धित जर्दा की एक चुटकी फाँकते हुए छोटे भैया सुकुमार के पास अपनी दलील लेकर गयी, "देखा तुमने सुकु दा, यह सब घर बुलाकर जान-बूझकर किया गया अपमान ही तो है। वह मुझे अब घास-पात खिलाएगा ?"
अपने बड़े भाई श्रीकुमार से सुकुमार का स्वभाव एकदम अलग है। उसकी प्रकृति गम्भीर और बातचीत पढ़े-लिखे समझदार लोगों जैसी है। पहनावा और चाल-ढाल घर के कर्ता-धर्ता की तरह। इस तरह की बेतुकी बहस या बेकार की हँसी-ठिठोली उसके गले नहीं उतरती। इसके अलावा उसने इधर जब से गुरु-मन्त्र की दीक्षा ली है वह और भी शान्त और चुप्पा-सा हो गया है।
वह अपने भैया के साथ सहन पर एक साथ खाने को बैठता तो जरूर था लेकिन साथ वाली कतार में नहीं। वह शुद्ध निरामिषभोजी था जबकि श्रीकुमार बिना मछली के मुँह में एक ग्रास तक नहीं रखते थे। सुकुमार भैया के सामिष भोजन वाले थाल की ओर एक बार घृणा और अवसाद भरी उदासीनता से देखते हुए वह आचमन कर खाने को बैठ जाता और भोजन के बाद, कुल्ला करने तक दोबारा कोई बात नहीं करता। यही वजह थी कि वह नन्दा की किसी बात का जवाब नहीं दे पाता था।
"लगता है बहू ने इसे आँचल से बाँधकर ही नहीं रख छोड़ा है, इसे गूंगा और बहरा भी बना डाला है।"-नन्दा हँस-हँसकर कहती।
और उधर रसोईघर में आभा जलती-भुनती रहती। एक तो उसे औरतों का इस तरह का बड़बोलापन पसन्द नहीं था, दूसरे सुकुमार के आचार-व्यवहार पर इस तरह ताने मारा जाना, उसे एकदम नहीं भाता था।
बड़ी जेठानी ने अपर्णा की ओर देखते हुए खीजभरे स्वर में कहा, "दीदी, मुझे तो यही लगता है कि वह कभी सयानी नहीं होगी। होगी ? अब भी वैसी ही बेवकूफियाँ करती फिर रही है। जी जल उठता है मेरा। हर घड़ी चुहल सूझती रहती है।"
अपर्णा के होठों की बनावट कुछ खास ही थी। देखने वालों को हमेशा यही जान पड़ता कि कोई झीनी-सी मुस्कान बाहर फूट पड़ने के लिए झाँक रही है। लेकिन वह मुस्कान व्यंग्य से भरी होती थी।
बनावट तो बनावट ही है लेकिन आभा को यही जान पड़ा कि उसके उत्तर में वही तीखी मुस्कान मुखर हो गयी है। लेकिन ऐसा नहीं था। जवाब उसने बड़े सहज ढंग से ही दिया था। बोली, "किसी का स्वभाव भी बदलता है, छोटी बहू ? ऐसा होता तो सारे शास्त्र झूठे हो जाते।" आभा ने मन-ही-मन कहा, “हाँ, ऐसा तो तुम्हीं कह सकती हो। और चारा भी क्या है?"
हालाँकि यह सब नन्दा के यहाँ आने के पहले दिन की गाथा थी। इसके बाद के अगले दस दिन भी बीत चुके हैं और पता नहीं पाँसे की ऐसी कौन-सी चाल थी कि मुँहफट और बेहया नन्दा के साथ भली-चंगी आभा की गोटी कैसे फिट हो गयी ? वह नन्दा से उम्र में कितनी भी कम हो, आठ-नौ साल छोटी थी, और उम्र में भले ही छोटी हो-मान-सम्मान में तो कुछ कम नहीं थी ? और यही वजह थी कि दोनों पलड़े का तालमेल ठीक बैठ गया।
हर घड़ी हँसी-मजाक, फुसफुसाहट भरी बातों और गुनगुनाहट में कोई कमी नहीं थी। साथ जुड़ी नहीं कि पान खाने और सुपारी काटने में सारा समय बीत जाता। नन्दा चबर-चबर पान चबाती रहती और दिन में पाँच-सात बार पनबट्टा खोलकर बैठे बिना उसे चैन नहीं पड़ता। इस काम में छोटी बहू भी कुछ कम नहीं थी। आज भी वह पान पसारे बैठी थी और नन्दा भी हाथ में सरौता लिये, पाँव फैलाये सुपारी काट रही थी। दोनों के चेहरे पर टेढ़ी मुस्कान खेल रही थी। श्रीकुमार के बाहर निकल जाते ही उन दोनों ने आँखों में ही एक-दूसरे को जो इशारा किया, गनीमत है इसे किसी ने देखा नहीं। जेठजी के कारनामों और करतूतों की चर्चा कर घड़ी भर जी बहलाने को तो कोई मिला। आभा के लिए यही राहत की बात थी।
पति के साथ जेठजी के बारे में दो-एक बातें होती जरूर थीं। लेकिन उस निन्दा या चुहल में कोई रस नहीं होता था। दो-दो नौकरानियाँ थीं लेकिन सूखी और सपाट । वे इस तरह के इशारों का ककहरा तक समझ नहीं पाती थीं। बड़े बाबू की बात चली नहीं कि उनका भक्ति-भाव उमड़ने लगता। और ऐसा क्यों न हो भला ! जो आदमी घर में सुबह-शाम घण्टा-घण्टा भर सन्ध्या-पूजा-ध्यान किये बिना जल तक ग्रहण नहीं करता, प्रतिदिन गंगास्नान करता है और नियम-उपवास के बीच स्त्रियों का मुँह तक नहीं देखता। इतना ही नहीं, बर्तन-भाँड़े और घर-द्वार की सफाई और रख-रखाव के बारे में सुकुमार को कोई कम परवाह रहती है ? भैया की तरह अपनी सज-धज बनाये रखना उसे नहीं आता।
Hindi Kahani - ऐश्वर्य
लेकिन देह में आग लगने का कारण सिर्फ यही नहीं है। तो क्या अपर्णा है?
या अपर्णा के होठों के कोने की वह खास बनावट । आखिर ऐसी क्या बात है कि आभा उससे अच्छी तरह आँखें नहीं मिला सकती ? क्यों अपर्णा के सामने खड़े होने पर उसे अपना कद बौना नजर आता है। और हाँ, यह बात मन की ओट नहीं ले पाती क्योंकि हीनता का यह अहसास भी मन में ही होता। और जहाँ अपर्णा की लोग हँसी उड़ा पाते, वहाँ अपर्णा ही लोग-बागों की बराबर खिल्ली उड़ाती रहती थी-अपनी उस अदृश्य हँसी की धारदार कटार से। भाग्य की विडम्बना के चलते जिससे स्त्री का धूल में मिल जाना तय था, उस कलंक की छाया तक अपर्णा के चेहरे पर नहीं है। यह देखकर देह में आग नहीं लगे भला? आखिर उसे किस बात की खुशी है ? उसकी इस प्रसन्नता का राज क्या है ?
यह सब सोच-सोचकर आभा विचलित और उद्विग्न हो उठती है।...बात ज़्या है ? क्या अपर्णा यह समझती है कि उसके पति की करतूत के बारे में किसी को नहीं मालूम ? क्या सारी दुनिया के लोग इतने बेवकूफ हैं ? हाँ, इतना जरूर है कि डंके की चोट पर कोई इस बात की घोषणा नहीं करता। वह इसलिए कि इससे तुम्हारी इज्जत में बट्टा न लगे।
खैर, इतने दिनों के बाद एक श्रोता तो मिला जिसके सामने जहर उगलकर अपनी भड़ास कम की जा सके। हालाँकि बीच-बीच में नन्दा के फूहड़पने पर आभा सिर से पैर तक सुलग उठती लेकिन वह यह सब सहन कर लेती। इसकी वजह और चाहे जो हो नन्दा को...करना तो नहीं पड़ता। हाथ का सरौता समेटती हुई नन्दा ने अपनी छोटी-सी रुपहली डिबिया खोल ली और बोली, “अरी बहू, थोड़ी-सी लोगी ?" “ओ...माँ", आभा ने चिहुँकते हुए कहा, “उस दिन इसे खाने के बाद कैसी दुर्गत हुई थी। अच्छा...बस...जौ भर देना। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे भाई से दोबारा झिड़की खानी पड़े।" “अरे काहे की झिड़की..." नन्दा ने डिबिया को अपने कलेजे से लगा लिया और फिर होठ बिचकाकर बोली-“देखना, तुम्हें यह जर्दा खिलाकर, भाई से सोने की डिबिया गढ़वाऊँगी और तभी मैं यहाँ से जाऊँगी।" "फिर तो हो गया"....कहते-कहते आभा थम गयी। अपर्णा आ रही थी। बाभन रसोइये की...के बाद, थोड़ी देर के लिए उसे छुट्टी मिली है। “यह क्या बड़ी बहू ?" नन्दा ने छूटते ही कहा, “अब जाकर काम पूरा हुआ है तुम्हारा ? अगर चौबीसों घण्टे रसोईघर में पड़ी सड़ती रहोगी तो आखिर यह रसोइया किस काम का है भला ! क्या उसे खाना पकाना नहीं आता ?" "नहीं, पकाना क्यों नहीं आएगा भला ? बस मुझे ही पड़ी रहती है।" यह कहते हुए अपर्णा मुस्करायी। और सीढ़ी की ओर चल पड़ी।
यह समय वह ऊपर अपने कमरे में ही बिताती-किताबें या पत्रिकाएँ पढ़कर। इसके बाद वह रात को दस बजे नीचे उतरेगी। तब तक श्रीकुमार वापस आ जाएँगे और बच्चों के मास्टर विदा होंगे। सुकुमार का पूजा-पाठ सम्पन्न होगा और इसके साथ ही खाने-पीने की गहमा-गहमी शुरू होगी।
अचानक दोनों सखियों की आँखों में बिजली-सी दौड़ गयी। इस बिजली में और कुछ नहीं किसी षड्यन्त्र का संकेत था। नन्दा ने तभी एक गहरी उसाँस भरी और मीठी चुटकी लेते हुए कहा, "अभी ऊपर कमरे में जाकर क्या करोगी, बहू ?" आभा अपना मुँह झुकाये पनबट्टे में पता नहीं क्या ढूँढ़ती रही। अपर्णा ननद के इस सवाल को सुनकर घड़ी भर चुप रही-फिर बोली, “और करूँगी भी क्या ? अट्टा गोटी खेलूंगी।" “हाँ, ठीक ही कहा तुमने। कुमार भैया की भी यह कैसी मति-गति है कि साँझ ढली नहीं कि घर से गायब।" उसकी झीनी-सी मुस्कान अब बहुत दबी-छिपी नहीं थी। लेकिन आभा अपनी आँखें ऊपर उठाती तो कैसे ? वह पान-मसाला ही ढूँढ़ती रही। “और दीदी, यह सब तुम पहली ही बार देख रही हो...है न ?" अपर्णा ने तो बड़ी घाघ बुद्धि से सवाल को उलट दिया।
नन्दा का चेहरा फक पड़ गया लेकिन उस पर बनावटी मुस्कान लाती हुई वह बोली, “अब वह पहले वाली बात जाने दो। जवानी के दिनों की बात और है। तब इस तरह के मौज-मस्ती के अड्डे छोकरे लोग जमाया करते ही हैं। घर-संसार का बोझ कन्धे पर है। अब यही देखो न, इतने-इतने रुपये लुटाकर बच्चों के लिए घर में मास्टर बहाल करना। ठीक है, घर में ढेर सारा रुपया है लेकिन माँ लक्ष्मी तो इस तरह लुटायी जाने वाली चीज नहीं हैं। वह अगर शाम को बच्चों की पढ़ाई-लिखाई खुद देख ले तो इस लूट को रोका जा सकता है कि नहीं।"
अपर्णा को राह चलते-चलते ही जैसे कोई खजाना मिल गया हो। उसने बड़े उत्साह से कहा, "ओ माँ, तुमने ठीक ही बताया, दीदी ! इतने दिनों से होने वाले घाटे पर तो कभी नजर पड़ी ही नहीं। ठीक है और ही कुछ तय करना पड़ेगा।" "ठीक है लेकिन इसमें मेरा नाम-धाम मत लेना।" "दिमाग खराब हुआ है, मैं भला ऐसा क्यों करने लगी ?" नन्दा अचानक जैसे अबोध बालिका हो गयी। बड़े ही भोलेपन से उसने पूछा, "भले ही सारी दुनिया उलट-पलट जाए लेकिन यह नियम नहीं टूटता। आखिर कुमार भैया जाते कहाँ हैं?" "ओ माँ, तुम अब तक यह भी नहीं जान पायी ? हाय ! तो फिर इतने दिनों से यहाँ आते-जाते देखा क्या ? अभिसार को जाते हैं...और कहाँ ?"
आभा अब तक पनबट्टे में से इलायची ही ढूँढ़ रही थी जो उसे अब तक मिल नहीं पायी थी। और अपर्णा के सामने रहने पर वह मिलती भी कैसे ? उसे पता था होठों के कोने पर तेज नुकीली और चमकीली धार की एक-एक किरच अपर्णा के चेहरे से फूट पड़ेगी। नन्दा ने फिर भी बड़ी मिठास से पूछा, “मजाक छोड़ो बहू, सच-सच बताओ।" “मैंने ठीक ही तो कहा, दीदी ! और तुम्हारे भैया कोई बूढ़े तो नहीं हुए। एक दिन उनकी तरफ ठीक से देखो तो सही। मुझे तो यही जान पड़ता है कि अगर जो कहीं वे किसी दूसरे के पति हो जाते तो मैं बेहोश ही पड़ी रहती।"
Hindi Kahani - ऐश्वर्य "लो और सुनो," कहती हुई नन्दा ने उसे बड़ी हैरानी से देखा और चुप हो गयी। उस जैसी बड़बोली को तत्काल कोई जवाब न सूझा। अपर्णा के दोतल्ले के ऊपर जाते ही आभा ने अपना मुँह ऊपर उठाया और चुटकी लेती हुई बोली, "देख लिया न नन्दा दी ? मैंने कहा था न...तोड़ना तो दूर रहा, उसे तो मोड़ना भी मुश्किल है।" “दीख तो ऐसा ही रहा है। शाम ढलने के पहले इन्हीं मुई आँखों ने तो उसे अपने हाथों नक्काशीदार कुरता, चुन्नटदार धोती, जूते, छड़ी, तेल-फुलेल, सेण्ट-पाउडर सहेजकर रखते देखा था।"
"तो फिर मैं कह क्या रही थी ? तैयारी देखकर तो ऐसा ही लगता है कि किसी राजदरबार में जा रहे हैं और तभी सिपहर से ही सारी तैयारी शुरू हो जाती है। और क्यों न हो भला ! सैंया जी बाईजी का मुजरा सुनने को जो तशरीफ ले जाएँगे। अब मैं क्या बताऊँ, नन्दा दीदी ! अगर मैं उसकी जगह होती न...तो दिन-दहाड़े गले में दो-दो बार फन्दा चढ़ाकर झूल गयी होती।" एक बार गले में फन्दा डालने के बाद क्या दोबार फन्दा डालना मुमकिन भी है-नन्दा ने उससे यह सवाल नहीं पूछा। धन्य है ऐसी नारी !
सचमुच, धन्य है ! रात को खाने के समय अपर्णा अपने पति से सहन में नन्दा और सुकुमार की उपस्थिति में-सबके सामने ही पन्दा द्वारा उठायी गयी बात पर बड़े खुले मन से चर्चा कर बैठी। इस बात को बड़ी गम्भीरता से उठाते हुए उसने कहा, "सुनो, मास्टर साहब को कल से जवाब दे दो।" “मास्टर साहब को ? क्यों, ऐसा क्या हो गया ?" श्रीकुमार चौंके। "खामखाह हमारे इतने रुपये बर्बाद हो रहे हैं। आखिर यह काम खुद भी तो कर सकते हो।" "मैं ?" श्रीकुमार जैसे आकाश से गिर पड़े। “मैं पढ़ाऊँगा बच्चों को ? यह भी कोई बात हुई ? तुमसे किसने कहा यह सब ?" "कहेगा कौन ? मैं कह रही हूँ," दूध का कटोरा थाल के और निकट सरकाते हुए अपर्णा ने आगे जोड़ा, “इसमें इतना हैरान होने की क्या बात है ? तुमने भी तो बी. ए. की पढ़ाई पास की है।" श्रीकुमार हैरान थे। उन्होंने उत्तेजित होते हुए कहा, "क्या पढ़ा-लिखा था वह सब याद है अब ? क्या बात कही है?" “अच्छा, याद नहीं है," अपर्णा जैसे हताश होती हुई बोली, "फिर तो बेकार ही गया। मैंने सोचा, तुम्हारी सहायता से गृहस्थी का खर्च कुछ कम हो जाएगा।" इतनी देर बाद, श्रीकुमार को यह जान पड़ा कि उनके साथ अच्छा मजाक किया गया। बात यह थी कि गृहस्थी का सारा खर्च श्रीकुमार अकेले ही उठा रहे थे। इसलिए सारा दायित्व उन पर ही था।
अपर्णा के मजाक करने का ढंग कुछ ऐसा ही था-संयत और गम्भीर । जबकि आभा जानबूझकर कुछ ऐसा करना चाह रही थी कि बात आगे बढ़े। नन्दा तो जैसे माटी में पड़ गयी। सुकुमार सामान्य बना रहा। वह हाथ-मुँह धोकर खाने को बैठा था इसलिए हाँ...हूँ...तक नहीं कर पाया।
रात को पति-पत्नी दोनों बैठे थे...पलँग पर पाँव लटकाये। श्रीकुमार ने पत्नी का चेहरा अपनी ओर मोड़कर कहा, “मुझे काम का आदमी बनाने की कोशिश क्यों की जा रही है ?" “ठीक ही तो किया। निकम्मे का भी कोई मान है भला?" "कोई दे न दे...एक ने जो मान दिया है वही बहुत है।" "अरे वाह...वह भी क्यों मान देने लगा ? आखिर उसका भी क्या सम्मान है ? और इतना कहकर वह अपमान की आग में..." “क्या हुआ?" श्रीकुमार हैरान रह गये, “आखिर रुक क्यों गयी तुम...बात क्या है ?" "कुछ भी नहीं। चलो, उधर हटो, सोना है।" । श्रीकुमार ने थोड़ा सरकते हुए जगह बना दी। लगभग एक मिनट की चुप्पी के बाद उन्होंने गम्भीर स्वर में पुकारा, "अपर्णा...!" उसको हाथ लगाने का साहस जुटा न पाये इसीलिए अपर्णा के माथे पर हाथ रखकर फिर पुकारा, “अपर्णा...!" "हुं...उ"
“सच बताना अपर्णा, क्या तुम अपने को अपमानित महसूस करती हो ? तो फिर इस बारे में तुमने कभी कुछ कहा क्यों नहीं ? मैं तो न जाने कितने दिनों से नशे की इस बुरी लत को छोड़ना चाह रहा था लेकिन तुम इस बात को हँसकर उड़ाती रहीं। यही नहीं, खुद अपने हाथों से मुझे सजा-सँवार, उस तरफ झोंक देती हो। आखिर तुम ऐसा क्यों करती हो ? क्यों सँवारती हो मुझे इतना ?"
“क्या कह रहे हो?" अपर्णा सोने का बहाना छोड़कर उठ बैठती है। उसके होठों पर वही अनदेखी धार चमक उठती है। उसने कहा, “क्यों करती हूँ यह सब ? यह तुम पूछ रहे हो ? जीवों पर दया किया करो-लोग ऐसा कहते हैं कि नहीं..." "दया...? अच्छा...!" श्रीकुमार ने तिलमिलाते हुए लेकिन धीमे स्वर में कहा, "तो फिर मेरे ऊपर तरस खाकर ही..."
"नहीं। अब तुमसे मैं बहस नहीं कर पाऊँगी। मैं तंग आ चुकी हूँ इन सबसे। तुम क्या मेरे लिए एक जीव मात्र हो ? या मेरे शिद हो। बताओ। तरस खाती हूँ उस बेचारी के ऊपर...तुम्हारी वही प्राण चातकी विरहिनी चिराश्रय-प्रार्थिनी पर...और भी न जाने ढेर सारी प्यारी-दुलारी सब...बताते क्यों नहीं अब ! क्या याद नहीं आ रहीं वे सब-की-सब, जो तुम्हारी चाह में आँखें फाड़े राह ताक रही हैं ?" बहुत पहले, नये-नये ब्याह के तुरन्त बाद ही, संयोगवश, इसी आशय का एक पत्र अपर्णा के हाथ लगा था। और वह आसमान से सीधे जमीन पर आ गिरी थी। लेकिन तब भी, अपर्णा ने इस बात को सबसे छिपाये रखा। उसने सारे मामले को अपनी मुट्ठी से बाहर फिसलने नहीं दिया।
पिछले अठारह वर्षों से उसी अनुशासन में, श्रीकुमार की सारी चर्या ढल गयी है। वे सुखी, सन्तुष्ट और आभारी हैं। उन्हें इसका ध्यान नहीं कि उनकी उम्र इतनी आगे खिसक चुकी है या उनके बारे में कोई सोचता रहा है।
लेकिन उस चिट्ठी का एक-एक शब्द आज भी अपर्णा के कानों में बज उठता है और वह अब भी उसके प्रति चौकस बनी हुई है। और जब भी जरूरत पड़ती है, उसका हवाला देकर पति को परेशान किया करती है।
श्रीकुमार एक मिनट तक चुप रहे होंगे। लेकिन उन्होंने फिर गम्भीर स्वर में पूछा, “क्या तुम समझती हो अपर्णा, कि मैं तुम्हें सचमुच कष्ट पहुँचाना चाहता हूँ? तुम्हें इस बात का विश्वास होता है कि मैं तुम्हारा जी दुखाकर यह सब करना चाहता हूँ ?" "अब आधी रात को तुम्हें पागलपन का दौरा पड़ा है।" "नहीं ! तुम अब बात को छिपाओ मत। ठीक-ठीक बताओ कि आखिर क्या..." अचानक अपर्णा के होठों का रचाव बदल गया। सचमुच ? वे इतने तरल और कँपते हुए क्यों दीख रहे हैं ! "विश्वास हो जाएगा...क्या इस पर तुम्हें विश्वास है ?" "नहीं। और तभी तो तुम्हारी ओर से इतना निश्चिन्त रहा हूँ, अपर्णा ! लेकिन तुम मुझ पर बीच-बीच में दबाव क्यों नहीं डालतीं ? क्यों नहीं तुम मुझ पर पूरी तौर से अपना अधिकार जताये रखना चाहती हो ? आखिर मुझ पर तुम्हारा पूरा हक है।"
Hindi Kahani - ऐश्वर्य
“अच्छी मुसीबत है ! क्या मैं जान-बूझकर यह पागलपन कर रही हूँ ? श्रीमान जी, किसी पेड़ के ऊपर अपना हक जताने के लिए उसकी जड़ों को खोद डालना बुद्धिमानी की बात है ? मैं सारा कुछ अपनी मुट्ठियों में भींच लूँ, ऐसी राक्षसी भूख मेरी नहीं।...लेकिन यह सब सोचकर क्या होगा आज ? सोना-वोना नहीं है आज क्या ? कल सुबह महराजिन नहीं आएगी। अब छोड़िए भी श्रीमान जी और सो जाइए...बहुत काम है।"
यानी कि इन सारी बातों पर अभी मिट्टी डालो। लेकिन श्रीकुमार आज कुछ ज्यादा ही विचलित हो उठे थे। वे इतनी जल्दी सारा कुछ निपटाने के पक्ष में नहीं थे। तनिक उत्तेजित स्वर में बोले-"अपर्णा, मैं इस बात से अनजान नहीं कि मेरा आचरण तुम्हारे लिए अपमानजनक रहा है। ठीक है लेकिन तुम्हारे द्वारा शह दिये जाने की बात की भी मैं अनदेखी नहीं कर सकता। मुझे यह ठीक ही जान पड़ता है कि इस रवैये में थोड़ा-बहुत बदलाव आना ही चाहिए।"
अपर्णा ने छूटते हुए लेकिन बुझे स्वर में कहा, "मुझे भी यही सही जान पड़ता है। सोच रही हूँ अगली बार जब दर्जी घर आएगा तो तुम्हारे कुरते के बदले कुछेक बनियान सिल देने को कहूँगी।"
"तो फिर ऐसी बात का मतलब ?" श्रीकुमार ने हैरानी से पूछा। “मतलब यह है जनाब कि थोड़ा-बहुत बदलाव तो आना ही चाहिए।" "फिर तुम्हारा वही मजाक ? क्या तुम यह सोचती हो कि मेरे लिए कंचन को छोड़ पाना..." "छी...छी..."
अपर्णा की इस तीखी फटकार से श्रीकुमार अपनी बात पूरी नहीं कर पाये। उनका चेहरा मुरझा गया। लेकिन पति के उस फीके चेहरे की ओर अपर्णा देखती रहीऔर धीरे-धीरे उसका मुखमण्डल चमक उठा। उसने अपने स्वाभाविक तेवर में कहा, "मेरी यह बात तुम उससे कहते तो होगे कि मेरे लिए वह सौत नहीं काँटा है, जिसके मर जाने पर सिक्के लुटाऊँगी।...क्या कहती है यह सब सुनकर तुम्हारी इकलौती 'चिराश्रिता' दासी ?"
सुकुमार अपने सोनेवाले कमरे में था। तहकर चौकोर किये गये एक कम्बल पर 'अध्यात्म रामायण' का पहला काण्ड या फिर ऐसी ही कोई लम्बी-चौड़ी पोथी के पन्ने उलट रहा था। तभी आभा कमरे में आती दीख पड़ी और उससे पूछ बैठी, “यह मास्टर साहब को छुड़वाने की बात मेरी समझ में नहीं आयी।"
सुकुमार ने कुछ कहा नहीं। शायद सुना भी नहीं। “सब ढोंग है ढोंग," आभा ने होठों को बिचकाते हुए शाम को घटी घटना के बारे में संक्षेप में बता दिया। “पहली बार इसी घर में आकर देखा कि पति की बुरी लत को किस तरह बहादरी का दर्जा दिया जाता है।"
"मेरा तो यह सब सोचकर ही सिर चकराने लगता है। क्या कहूँ...क्या करूँ...बड़े भैया हैं, लाचारी है...! गुरु देव...गुरु देव," यह कहते हुए सुकुमार ने कमली आसन को लम्बा किया और उसी का बिछावन बनाकर सो गया। आज रविवार का दिन था-व्रत, उपवास और कठोर चर्या का दिन। आज वह आरामदायक पलँग पर नहीं सोएगा।
यह ठीक है कि घर-गृहस्थी का इतना बड़ा दायित्व पूरी तरह अपने सिर पर न लेते तो भी उम्र के हिसाब से श्रीकुमार घर के बड़े बुजुर्ग थे। और अगर ऐसा न होता तो पता नहीं सुकुमार आज कितना निरुपाय होता।
'अब चली',...'तब चली' करते-करते नन्दा कुछ दिन और रुक गयी। तय यह हुआ था कि उसका देवर आएगा और उसे लिवा ले जाएगा। उसका कोई अता-पता नहीं था। आखिरकार नन्दा खुद जाने को तैयार हो गयी। तब वह रह-रहकर यही कहा करती, "अरे कहाँ गये सब...भई, अब इस आफत को विदा करने की तैयारी करो।" सुकुमार किसी भी मामले या झमेले में चुप्पी साधे रहता। न इधर, न उधर। "बात क्या है ?" श्रीकुमार ने पूछा, “वह कहीं जेल में तो नहीं बन्द है। जब वह बेटा लेने नहीं आया तब तू अपने मन से वहाँ क्यों जाएगी? कुछ दिन और रुक जा।"
उधर भण्डार-घर में बैठी आभा दाँत पीसती और मन मारे बैठ गयी। मन-ही-मन बोली, 'हाँ, रहेगी कैसे नहीं यहाँ ? ऐसी पनखौकी, बेपरवाह और दिल्लगी करने वाली तुम लोगों के ही घर में पड़ी रह सकती है। पता नहीं क्या मजबूरी है ? मेरे बस की बात होती तो में झाड़ मारकर बाहर निकाल देती।'
सखी भाव की मुँहलगी सरसता बहुत पहले ही सूख चुकी थी। बातचीत में कोई नयी बात रह नहीं गयी थी। इसीलिए युवती-सी दीखने वाली नन्दा की भरी-पूरी सेहत और बेमतलब जान पड़ने वाली चंचलता आभा की आँखों को आजकल तनिक नहीं भाता। उसका जी उसे देखते ही जल उठता। नन्दा ने भी जब यह देखा कि कहीं घास नहीं डाली जा रही तो वह भी एक किनारे हो गयी। शायद यह भी एक कारण था जिसके चलते वह इस घर से फूट जाना चाहती थी। उसने यह भी सुन रखा था कि छोटी देवरानी की तबीयत ठीक नहीं। ऐसी नाजुक घड़ी में अगर वह वहाँ नहीं गयी तो पता नहीं बाद में क्या कुछ सुनना पड़े ?
अन्त में, अपर्णा ने ही कथा का श्रीगणेश किया। उसने कहा, "हमारी छोटी ननदजी बड़ी परेशान हैं इन दिनों। परसों रविवार है, उसे श्रीरामपुर तक छोड़ आओ।" "किससे कह रही हो", श्रीकुमार ने मुँह में कौर रखते हुए पूछा, “मुझसे ?" “पागल हो गये हो ! भला तुम्हें क्यों कहने लगी ? मैं तो बूढ़े बाभन महाराज से कह रही थी।" अपर्णा का स्वर तीखा हो गया। "अच्छी मुसीबत है। क्या उसे कोई लिवा जाने के लिए नहीं आएगा ?" “कोई आया भी तो नहीं।" अपर्णा ने आगे जोड़ा, खैर, “तुम्हीं पहुँचा आओ। बड़ी परेशान है बेचारी।" “ठीक है, जाना कब है ? मेरा मतलब है गाड़ी कितने बजे की है ?"-श्रीकुमार ने बड़ी सादगी से यह सवाल किया था। "डरने की कोई बात नहीं," अपर्णा ने अपनी धारदार मुस्कान को दबाते हुए कहा, “शाम होने तक लौट आओगे।"
उधर आभा ने जब यह बात सुनी तो वह न केवल हैरान थी बल्कि उसे अचरज भी हुआ। अपर्णा का यह दुस्साहस ! इस निरंकुश दुस्साहस का अधिकार आखिर उसे किसने सौंपा है ? इसके अलावा, वह किसी दूसरे व्यक्ति की अनुपस्थिति में, नन्दा के साथ अपने पति के जाने की बात की कल्पना तक नहीं कर सकती। आखिर अपर्णा इतना साहस कहाँ से जुटा लेती है ! और जिस साहस के बूते पर वह अपने पति को शेरनी के बाड़े के अन्दर भेज देने या फन काढ़े नागिन के सामने खड़ा कर देने से भी नहीं झिझकती। आखिर क्या बात है उसमें ?
लेकिन उसके लिए अब भी राहत की बात यही थी कि बड़ी जेठानी ने सुकुमार के पास यह प्रस्ताव खुद नहीं रखा था। भगवान ने अब तक उसकी रक्षा की थी।
लेकिन स्वयं भगवान भी उसकी रक्षा बहुत देर तक नहीं कर सका। उसने अपना वह रूप छिपा लिया और इसके साथ ही आभा के साथ जैसे विश्वासघात हो गया। इस बात की सम्भावना तो किसी को नहीं थी कि रात को श्रीकुमार अचानक ज्वरग्रस्त हो जाएँगे। वह श्रीकुमार, जिसने कभी सिरदर्द तक की शिकायत न की हो।
यह क्रूर विधाता का षड्यन्त्र ही तो था। "देवर जी, ऐसा करो कि अब तुम्हीं श्रीरामपुर चले जाओ..." अपर्णा ने श्रीकुमार के ज्वरग्रस्त हो जाने की सूचना के साथ ही बड़े सहज ढंग से प्रस्ताव रखा था। उसके लिए यह कोई खास बात न थी। शेफाली बिटिया के स्कूल तक पहुँचा देने जैसी मामूली-सी बात। इधर आभा सर से पाँव तक विचलित हो उठी थी। काश, अपर्णा की इस सहज मूर्ति को वह चूर-चूर कर पाती। सादगी से भरी उसकी प्रतिभा को ढहा देने वाला कोई मन्त्र !...ओह...क्या करे वह ? सुकुमार ने आभा की ओर ताकते हुए आनाकानी भरे स्वर में कहा, "मैं...। मैं भला कैसे...मैंने तो कभी सोचा..."
"कैसी मुसीबत गले पड़ी है। और क्या...? अभी यही नौ बजे वाली गाड़ी से..." कहते-कहते आभा के शरीर का सारा खून जैसे कलेजे में जाकर जम गया और चेहरा तमतमा उठा। आखिर उसके जी की जलन जुबान तक आ ही गयी, "वह कैसे जा पाएगा, दीदी ! आज उसका रविवार का व्रत जो ठहरा।"
“ठीक है। फिर वह ऐसा करे कि जल्दी तैयार होकर भात का प्रसाद पा ले और दूसरी गाड़ी से चला जाए। श्रीरामपुर जाने वाली गाड़ी तो हर घण्टे-आध घण्टे पर मिलती रहती है।" अपर्णा के लिए तो ले-देकर बस गाड़ी की ही सुविधा-असुविधा है। और इधर भात-प्रसाद की तैयारी में आभा परेशान हो उठी है।
"ऐसा नहीं हो सकता कि...," आभा ने कलेजे पर पड़ा पत्थर हटाते हुए कह ही दिया, "...नन्दा की रवानगी दो दिनों के लिए टल जाए। आज के दिन उसका जाना इतना ही जरूरी है ? इतने दिनों तक तो पड़ी रही। दो दिन और रह गयी तो क्या महाभारत हो जायगा ?" आभा ने अपर्णा की ओर बिना आँखें उठाये ही यह सब कहा। अपर्णा के होठों पर आहिस्ता-आहिस्ता फूट पड़ने वाली मुस्कान की अनदेखी कर। लेकिन यह क्या ? अपर्णा मुस्करा नहीं रही बल्कि हैरान खड़ी है और कह रही है, "तू इस मामूली-सी बात का बतंगड़ बनाने पर क्यों तुली है, छोटी बहू ? दो-चार घण्टे की ही तो बात है। देवरजी शाम तक वापस लौट आएँगे और अपनी सन्ध्या-पूजा कर ले सकेंगे। इसमें परेशानी की क्या बात है भला ! नन्दा के घरवालों को चिट्ठी लिखी जा चुकी है। अगर वह नहीं पहुँच सकेगी तो उन्हें अच्छा लगेगा ? है कि नहीं, देवरजी ? उन्हें यह बात बुरी नहीं लगेगी क्या।"
इधर देवर है कि कुछ समझ नहीं पा रहा। अपनी गर्दन हिलाकर क्या कहे...हाँ कि ना। और आभा ? उसके हृदय का एक-एक तार एक साथ झनझनाकर जो कुछ कहना चाह रहा था, उसे वह अपने होठों पर ला नहीं सकती थी। इसलिए वह तेज कदमों से कमरे से बाहर निकल गयी।
हे नारायण ! क्या तुम एक बार भी अपना मुँह ऊपर उठाकर देखोगे नहीं। ऐसा नहीं हो सकता कि सुकुमार को भी इसी घड़ी तेजी से बुखार आए और उसे दबोच ले। एक सौ चार...पाँच और भी ज्यादा। या फिर नल के नीचे नहाते हुए उसका पाँव फिसले और वह दुर्घटनाग्रस्त हो जाए। ऐसा भी तो होता है कि बिला किसी वजह सिर चकरा जाता है और आदमी धड़ाम से गिर पड़ता है। चाहे जैसे भी हो, ऐसी कोई विपदा टूट पड़े तो उसकी जान बचे। क्या ऐसा नहीं होगा ? आये दिन होने वाली दुर्घटना क्या इतनी दुर्लभ वस्तु है ? तो फिर आभा क्या करे, कहाँ जाए !
अपने समस्त ‘फल-जल' हविष्यान्न और पूजा-पाठ का सारा ताम-झाम बेकार करके यह रविवार का दिन कहाँ गायब हो जाता है। आखिर किस पर भरोसा कर पाएगी आभा ?
Hindi Kahani - ऐश्वर्यरेल का एकान्त डिब्बा और किसी तीसरे आदमी की अनुपस्थिति-इस बात की कल्पना से ही उसका बदन सिहर उठता था। उसकी इच्छा हुई कि वह दीवार पर अपना सिर दे मारे और वहीं जान दे दे।
आखिर अपने पति के बारे में उससे ज्यादा और कौन जान सकता था भला ! Hindi Kahani
आशापूर्ण देवी
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वे रोज ही इसी तरह निकल जाते हैं। पिछले अठारह सालों से जाते रहे हैं। लगातार ।
और चाहे सारी दुनिया ही क्यों न बदल जाए, श्रीकुमार की चर्या बदल नहीं सकती। न तो इस नियम का उल्लंघन हुआ है और न सज-धज में कोई परिवर्तन। और इसमें बदलाव के बारे में किसी ने शायद कभी सोचा भी नहीं। पच्चीस साल की उम्र से ही, वे इसी सज-धज के साथ, नियत समय पर और एक नियत ठिकाने पर हाजिरी बजा लाते हैं। उनके घर से निकलने और घर वापस आने का समय भी घड़ी देखकर ही तय है जैसे। रात के आठ बजे से दस बजे तक। कुल मिलाकर दो घण्टे। वे कहाँ जाते हैं, यह कोई दबी-छिपी बात नहीं लेकिन इस बारे में कोई कुछ कहता नहीं। सभी इस बारे में जानते हैं लेकिन साफ-साफ कोई बताना नहीं चाहता।
Hindi Kahani - ऐश्वर्य
शायद इसलिए बताया नहीं जाता ताकि घर के मालिक का सम्मान बना रहे और घर की मालकिन का भी। लेकिन सवाल यह है कि अपर्णा इस तरह की प्रचलित सम्मान-असम्मान से भरी दुनिया में रहती भी है ? यहाँ की जमीन पर खड़े होकर और हाथ बढ़ाकर उसका सिरा पा लेना क्या इतना ही आसान है ?
जबकि आभा ने तो असम्मान की पहल करके भी देख लिया। श्रीकुमार के छोटे भाई सुकुमार की पत्नी आभा। वह उस दिन दालान के एक छोर पर बैठकर पान बना रही थी। जेठ जी के बाहर निकल जाते ही उसने सामने बैठी फुफेरी ननद नन्दा की ओर 8वें तिरछी कर देखा और हौले से मुस्करायी। इस मुस्कान का मतलब था 'देख लिया न...जैसा बताया था ठीक वैसा ही निकला न...? नन्दा ने गाल पर हाथ टिकाकर हैरानी दिखायी और जिस तरह की मुद्रा बनायी उसे शब्दों में बाँधा जाए तो कुछ इस तरह कहा जाएगा, 'ओ माँ...सचमुच...वैसा ही। अब भी...इस उमर में...ओ...हो...!' नन्दा इस घर में बहुत दिनों के बाद आयी थी।
जब मामा-मामी जीवित थे तो वह प्रायः यहाँ आया करती थी। चूँकि वह बचपन में ही विधवा हो गयी थी इसलिए इस घर में उसका आदर और जतन किया जाता था। हालाँकि ममेरे भाइयों में उसके प्रति कोई विशेष उत्साह न था कि वे उसकी अगवानी यह कहकर करें कि 'आओ, लक्ष्मी बहना !' बल्कि 'जल्दी टले तो जान बचे' वाली बात ही उनके मन में रहती। इसलिए नन्दा भी उखड़े मन से ही यहाँ आया करती। लेकिन अबकी बार वह चाहकर ही आयी है। हालाँकि यहाँ आकर उसने घण्टा भर के लिए भी अपने को किसी नये मेहमान की तरह कोने में सहेज नहीं रखा। नन्दा जैसी फुर्तीली और मुखर स्त्रियों के लिए अपनी जगह बना लेने में कोई ज्यादा देर नहीं लगती।
आते ही भावजों की चुटकी लेते हुए कहती, "लोग ठीक ही कहते हैं, “भाई का भात भावज के हाथ।' अरे बहूरानियो, तुम दोनों धन्य हो ! इस जनमजली ननद की खोज-खबर तक लेती हो कभी ? मेरे दोनों भोले-भाले भाइयों को आँचल में बाँध रखा है। कभी भूलकर भी...?"
भाई खाने को बैठे हों तो वह तपाक से वहाँ पहुँच जाती। फिर मीठी चुटकी लेती हुई आसमान सिर पर उठा लेती, "मैं क्या बके जा रही हूँ, सुन भी रहे हो, भले लोगो ! यह मुँहजली जिन्दा भी है कि मर-मरा गयी-एक बार भी कभी इस बारे में कोई खोज-खबर ली है ? कोई ऐसा भी पराया हो जाता है ? छी....छी....छीः... । अगर दो दिन के लिए तुम्हारे घर पसर भी गयी तो आखिर तुम्हारा कितना कुछ भकोस लूँगी। और इस घर पर भी हाल यह है कि एक वेला के लिए मुट्ठी भर अरवा चावल का भात तक नहीं जुटता।"
श्रीकुमार ने हँसते हुए उत्तर दिया था, “अरे भई...अब अरवा चावल जैसी चिकनी और महीन चीजें कहाँ मिलती हैं आजकल । अब यह तो नहीं हो सकता कि तुम्हें मान-सम्मान से बुलाकर फाका करने को मजबूर करें और तुम्हारी जान ही ले लें।" “अच्छा, अरे बाबू लोगो ! दरअसल आदर और जतन करने की चाह होनी चाहिए। फिर तो घास की रोटी भी खायी-खिलायी जा सकती है...समझे ?" “अच्छा", सरल स्वभाव वाले श्रीकुमार ठठाकर हँस पड़े, "तो फिर मैं चला घास के तिनके के जुगाड़ में...तेरे लिए सहेजकर रखना ही पड़ेगा।"
Hindi Kahani - ऐश्वर्य
नन्दा ने अपनी सफेद समीज के अन्दर से एक छोटी-सी रुपहली डिबिया निकाली। फिर उसका ढक्कन खोलकर सुगन्धित जर्दा की एक चुटकी फाँकते हुए छोटे भैया सुकुमार के पास अपनी दलील लेकर गयी, "देखा तुमने सुकु दा, यह सब घर बुलाकर जान-बूझकर किया गया अपमान ही तो है। वह मुझे अब घास-पात खिलाएगा ?"
अपने बड़े भाई श्रीकुमार से सुकुमार का स्वभाव एकदम अलग है। उसकी प्रकृति गम्भीर और बातचीत पढ़े-लिखे समझदार लोगों जैसी है। पहनावा और चाल-ढाल घर के कर्ता-धर्ता की तरह। इस तरह की बेतुकी बहस या बेकार की हँसी-ठिठोली उसके गले नहीं उतरती। इसके अलावा उसने इधर जब से गुरु-मन्त्र की दीक्षा ली है वह और भी शान्त और चुप्पा-सा हो गया है।
वह अपने भैया के साथ सहन पर एक साथ खाने को बैठता तो जरूर था लेकिन साथ वाली कतार में नहीं। वह शुद्ध निरामिषभोजी था जबकि श्रीकुमार बिना मछली के मुँह में एक ग्रास तक नहीं रखते थे। सुकुमार भैया के सामिष भोजन वाले थाल की ओर एक बार घृणा और अवसाद भरी उदासीनता से देखते हुए वह आचमन कर खाने को बैठ जाता और भोजन के बाद, कुल्ला करने तक दोबारा कोई बात नहीं करता। यही वजह थी कि वह नन्दा की किसी बात का जवाब नहीं दे पाता था।
"लगता है बहू ने इसे आँचल से बाँधकर ही नहीं रख छोड़ा है, इसे गूंगा और बहरा भी बना डाला है।"-नन्दा हँस-हँसकर कहती।
और उधर रसोईघर में आभा जलती-भुनती रहती। एक तो उसे औरतों का इस तरह का बड़बोलापन पसन्द नहीं था, दूसरे सुकुमार के आचार-व्यवहार पर इस तरह ताने मारा जाना, उसे एकदम नहीं भाता था।
बड़ी जेठानी ने अपर्णा की ओर देखते हुए खीजभरे स्वर में कहा, "दीदी, मुझे तो यही लगता है कि वह कभी सयानी नहीं होगी। होगी ? अब भी वैसी ही बेवकूफियाँ करती फिर रही है। जी जल उठता है मेरा। हर घड़ी चुहल सूझती रहती है।"
अपर्णा के होठों की बनावट कुछ खास ही थी। देखने वालों को हमेशा यही जान पड़ता कि कोई झीनी-सी मुस्कान बाहर फूट पड़ने के लिए झाँक रही है। लेकिन वह मुस्कान व्यंग्य से भरी होती थी।
बनावट तो बनावट ही है लेकिन आभा को यही जान पड़ा कि उसके उत्तर में वही तीखी मुस्कान मुखर हो गयी है। लेकिन ऐसा नहीं था। जवाब उसने बड़े सहज ढंग से ही दिया था। बोली, "किसी का स्वभाव भी बदलता है, छोटी बहू ? ऐसा होता तो सारे शास्त्र झूठे हो जाते।" आभा ने मन-ही-मन कहा, “हाँ, ऐसा तो तुम्हीं कह सकती हो। और चारा भी क्या है?"
हालाँकि यह सब नन्दा के यहाँ आने के पहले दिन की गाथा थी। इसके बाद के अगले दस दिन भी बीत चुके हैं और पता नहीं पाँसे की ऐसी कौन-सी चाल थी कि मुँहफट और बेहया नन्दा के साथ भली-चंगी आभा की गोटी कैसे फिट हो गयी ? वह नन्दा से उम्र में कितनी भी कम हो, आठ-नौ साल छोटी थी, और उम्र में भले ही छोटी हो-मान-सम्मान में तो कुछ कम नहीं थी ? और यही वजह थी कि दोनों पलड़े का तालमेल ठीक बैठ गया।
हर घड़ी हँसी-मजाक, फुसफुसाहट भरी बातों और गुनगुनाहट में कोई कमी नहीं थी। साथ जुड़ी नहीं कि पान खाने और सुपारी काटने में सारा समय बीत जाता। नन्दा चबर-चबर पान चबाती रहती और दिन में पाँच-सात बार पनबट्टा खोलकर बैठे बिना उसे चैन नहीं पड़ता। इस काम में छोटी बहू भी कुछ कम नहीं थी। आज भी वह पान पसारे बैठी थी और नन्दा भी हाथ में सरौता लिये, पाँव फैलाये सुपारी काट रही थी। दोनों के चेहरे पर टेढ़ी मुस्कान खेल रही थी। श्रीकुमार के बाहर निकल जाते ही उन दोनों ने आँखों में ही एक-दूसरे को जो इशारा किया, गनीमत है इसे किसी ने देखा नहीं। जेठजी के कारनामों और करतूतों की चर्चा कर घड़ी भर जी बहलाने को तो कोई मिला। आभा के लिए यही राहत की बात थी।
पति के साथ जेठजी के बारे में दो-एक बातें होती जरूर थीं। लेकिन उस निन्दा या चुहल में कोई रस नहीं होता था। दो-दो नौकरानियाँ थीं लेकिन सूखी और सपाट । वे इस तरह के इशारों का ककहरा तक समझ नहीं पाती थीं। बड़े बाबू की बात चली नहीं कि उनका भक्ति-भाव उमड़ने लगता। और ऐसा क्यों न हो भला ! जो आदमी घर में सुबह-शाम घण्टा-घण्टा भर सन्ध्या-पूजा-ध्यान किये बिना जल तक ग्रहण नहीं करता, प्रतिदिन गंगास्नान करता है और नियम-उपवास के बीच स्त्रियों का मुँह तक नहीं देखता। इतना ही नहीं, बर्तन-भाँड़े और घर-द्वार की सफाई और रख-रखाव के बारे में सुकुमार को कोई कम परवाह रहती है ? भैया की तरह अपनी सज-धज बनाये रखना उसे नहीं आता।
Hindi Kahani - ऐश्वर्य
लेकिन देह में आग लगने का कारण सिर्फ यही नहीं है। तो क्या अपर्णा है?
या अपर्णा के होठों के कोने की वह खास बनावट । आखिर ऐसी क्या बात है कि आभा उससे अच्छी तरह आँखें नहीं मिला सकती ? क्यों अपर्णा के सामने खड़े होने पर उसे अपना कद बौना नजर आता है। और हाँ, यह बात मन की ओट नहीं ले पाती क्योंकि हीनता का यह अहसास भी मन में ही होता। और जहाँ अपर्णा की लोग हँसी उड़ा पाते, वहाँ अपर्णा ही लोग-बागों की बराबर खिल्ली उड़ाती रहती थी-अपनी उस अदृश्य हँसी की धारदार कटार से। भाग्य की विडम्बना के चलते जिससे स्त्री का धूल में मिल जाना तय था, उस कलंक की छाया तक अपर्णा के चेहरे पर नहीं है। यह देखकर देह में आग नहीं लगे भला? आखिर उसे किस बात की खुशी है ? उसकी इस प्रसन्नता का राज क्या है ?
यह सब सोच-सोचकर आभा विचलित और उद्विग्न हो उठती है।...बात ज़्या है ? क्या अपर्णा यह समझती है कि उसके पति की करतूत के बारे में किसी को नहीं मालूम ? क्या सारी दुनिया के लोग इतने बेवकूफ हैं ? हाँ, इतना जरूर है कि डंके की चोट पर कोई इस बात की घोषणा नहीं करता। वह इसलिए कि इससे तुम्हारी इज्जत में बट्टा न लगे।
खैर, इतने दिनों के बाद एक श्रोता तो मिला जिसके सामने जहर उगलकर अपनी भड़ास कम की जा सके। हालाँकि बीच-बीच में नन्दा के फूहड़पने पर आभा सिर से पैर तक सुलग उठती लेकिन वह यह सब सहन कर लेती। इसकी वजह और चाहे जो हो नन्दा को...करना तो नहीं पड़ता। हाथ का सरौता समेटती हुई नन्दा ने अपनी छोटी-सी रुपहली डिबिया खोल ली और बोली, “अरी बहू, थोड़ी-सी लोगी ?" “ओ...माँ", आभा ने चिहुँकते हुए कहा, “उस दिन इसे खाने के बाद कैसी दुर्गत हुई थी। अच्छा...बस...जौ भर देना। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे भाई से दोबारा झिड़की खानी पड़े।" “अरे काहे की झिड़की..." नन्दा ने डिबिया को अपने कलेजे से लगा लिया और फिर होठ बिचकाकर बोली-“देखना, तुम्हें यह जर्दा खिलाकर, भाई से सोने की डिबिया गढ़वाऊँगी और तभी मैं यहाँ से जाऊँगी।" "फिर तो हो गया"....कहते-कहते आभा थम गयी। अपर्णा आ रही थी। बाभन रसोइये की...के बाद, थोड़ी देर के लिए उसे छुट्टी मिली है। “यह क्या बड़ी बहू ?" नन्दा ने छूटते ही कहा, “अब जाकर काम पूरा हुआ है तुम्हारा ? अगर चौबीसों घण्टे रसोईघर में पड़ी सड़ती रहोगी तो आखिर यह रसोइया किस काम का है भला ! क्या उसे खाना पकाना नहीं आता ?" "नहीं, पकाना क्यों नहीं आएगा भला ? बस मुझे ही पड़ी रहती है।" यह कहते हुए अपर्णा मुस्करायी। और सीढ़ी की ओर चल पड़ी।
यह समय वह ऊपर अपने कमरे में ही बिताती-किताबें या पत्रिकाएँ पढ़कर। इसके बाद वह रात को दस बजे नीचे उतरेगी। तब तक श्रीकुमार वापस आ जाएँगे और बच्चों के मास्टर विदा होंगे। सुकुमार का पूजा-पाठ सम्पन्न होगा और इसके साथ ही खाने-पीने की गहमा-गहमी शुरू होगी।
अचानक दोनों सखियों की आँखों में बिजली-सी दौड़ गयी। इस बिजली में और कुछ नहीं किसी षड्यन्त्र का संकेत था। नन्दा ने तभी एक गहरी उसाँस भरी और मीठी चुटकी लेते हुए कहा, "अभी ऊपर कमरे में जाकर क्या करोगी, बहू ?" आभा अपना मुँह झुकाये पनबट्टे में पता नहीं क्या ढूँढ़ती रही। अपर्णा ननद के इस सवाल को सुनकर घड़ी भर चुप रही-फिर बोली, “और करूँगी भी क्या ? अट्टा गोटी खेलूंगी।" “हाँ, ठीक ही कहा तुमने। कुमार भैया की भी यह कैसी मति-गति है कि साँझ ढली नहीं कि घर से गायब।" उसकी झीनी-सी मुस्कान अब बहुत दबी-छिपी नहीं थी। लेकिन आभा अपनी आँखें ऊपर उठाती तो कैसे ? वह पान-मसाला ही ढूँढ़ती रही। “और दीदी, यह सब तुम पहली ही बार देख रही हो...है न ?" अपर्णा ने तो बड़ी घाघ बुद्धि से सवाल को उलट दिया।
नन्दा का चेहरा फक पड़ गया लेकिन उस पर बनावटी मुस्कान लाती हुई वह बोली, “अब वह पहले वाली बात जाने दो। जवानी के दिनों की बात और है। तब इस तरह के मौज-मस्ती के अड्डे छोकरे लोग जमाया करते ही हैं। घर-संसार का बोझ कन्धे पर है। अब यही देखो न, इतने-इतने रुपये लुटाकर बच्चों के लिए घर में मास्टर बहाल करना। ठीक है, घर में ढेर सारा रुपया है लेकिन माँ लक्ष्मी तो इस तरह लुटायी जाने वाली चीज नहीं हैं। वह अगर शाम को बच्चों की पढ़ाई-लिखाई खुद देख ले तो इस लूट को रोका जा सकता है कि नहीं।"
अपर्णा को राह चलते-चलते ही जैसे कोई खजाना मिल गया हो। उसने बड़े उत्साह से कहा, "ओ माँ, तुमने ठीक ही बताया, दीदी ! इतने दिनों से होने वाले घाटे पर तो कभी नजर पड़ी ही नहीं। ठीक है और ही कुछ तय करना पड़ेगा।" "ठीक है लेकिन इसमें मेरा नाम-धाम मत लेना।" "दिमाग खराब हुआ है, मैं भला ऐसा क्यों करने लगी ?" नन्दा अचानक जैसे अबोध बालिका हो गयी। बड़े ही भोलेपन से उसने पूछा, "भले ही सारी दुनिया उलट-पलट जाए लेकिन यह नियम नहीं टूटता। आखिर कुमार भैया जाते कहाँ हैं?" "ओ माँ, तुम अब तक यह भी नहीं जान पायी ? हाय ! तो फिर इतने दिनों से यहाँ आते-जाते देखा क्या ? अभिसार को जाते हैं...और कहाँ ?"
आभा अब तक पनबट्टे में से इलायची ही ढूँढ़ रही थी जो उसे अब तक मिल नहीं पायी थी। और अपर्णा के सामने रहने पर वह मिलती भी कैसे ? उसे पता था होठों के कोने पर तेज नुकीली और चमकीली धार की एक-एक किरच अपर्णा के चेहरे से फूट पड़ेगी। नन्दा ने फिर भी बड़ी मिठास से पूछा, “मजाक छोड़ो बहू, सच-सच बताओ।" “मैंने ठीक ही तो कहा, दीदी ! और तुम्हारे भैया कोई बूढ़े तो नहीं हुए। एक दिन उनकी तरफ ठीक से देखो तो सही। मुझे तो यही जान पड़ता है कि अगर जो कहीं वे किसी दूसरे के पति हो जाते तो मैं बेहोश ही पड़ी रहती।"
Hindi Kahani - ऐश्वर्य "लो और सुनो," कहती हुई नन्दा ने उसे बड़ी हैरानी से देखा और चुप हो गयी। उस जैसी बड़बोली को तत्काल कोई जवाब न सूझा। अपर्णा के दोतल्ले के ऊपर जाते ही आभा ने अपना मुँह ऊपर उठाया और चुटकी लेती हुई बोली, "देख लिया न नन्दा दी ? मैंने कहा था न...तोड़ना तो दूर रहा, उसे तो मोड़ना भी मुश्किल है।" “दीख तो ऐसा ही रहा है। शाम ढलने के पहले इन्हीं मुई आँखों ने तो उसे अपने हाथों नक्काशीदार कुरता, चुन्नटदार धोती, जूते, छड़ी, तेल-फुलेल, सेण्ट-पाउडर सहेजकर रखते देखा था।"
"तो फिर मैं कह क्या रही थी ? तैयारी देखकर तो ऐसा ही लगता है कि किसी राजदरबार में जा रहे हैं और तभी सिपहर से ही सारी तैयारी शुरू हो जाती है। और क्यों न हो भला ! सैंया जी बाईजी का मुजरा सुनने को जो तशरीफ ले जाएँगे। अब मैं क्या बताऊँ, नन्दा दीदी ! अगर मैं उसकी जगह होती न...तो दिन-दहाड़े गले में दो-दो बार फन्दा चढ़ाकर झूल गयी होती।" एक बार गले में फन्दा डालने के बाद क्या दोबार फन्दा डालना मुमकिन भी है-नन्दा ने उससे यह सवाल नहीं पूछा। धन्य है ऐसी नारी !
सचमुच, धन्य है ! रात को खाने के समय अपर्णा अपने पति से सहन में नन्दा और सुकुमार की उपस्थिति में-सबके सामने ही पन्दा द्वारा उठायी गयी बात पर बड़े खुले मन से चर्चा कर बैठी। इस बात को बड़ी गम्भीरता से उठाते हुए उसने कहा, "सुनो, मास्टर साहब को कल से जवाब दे दो।" “मास्टर साहब को ? क्यों, ऐसा क्या हो गया ?" श्रीकुमार चौंके। "खामखाह हमारे इतने रुपये बर्बाद हो रहे हैं। आखिर यह काम खुद भी तो कर सकते हो।" "मैं ?" श्रीकुमार जैसे आकाश से गिर पड़े। “मैं पढ़ाऊँगा बच्चों को ? यह भी कोई बात हुई ? तुमसे किसने कहा यह सब ?" "कहेगा कौन ? मैं कह रही हूँ," दूध का कटोरा थाल के और निकट सरकाते हुए अपर्णा ने आगे जोड़ा, “इसमें इतना हैरान होने की क्या बात है ? तुमने भी तो बी. ए. की पढ़ाई पास की है।" श्रीकुमार हैरान थे। उन्होंने उत्तेजित होते हुए कहा, "क्या पढ़ा-लिखा था वह सब याद है अब ? क्या बात कही है?" “अच्छा, याद नहीं है," अपर्णा जैसे हताश होती हुई बोली, "फिर तो बेकार ही गया। मैंने सोचा, तुम्हारी सहायता से गृहस्थी का खर्च कुछ कम हो जाएगा।" इतनी देर बाद, श्रीकुमार को यह जान पड़ा कि उनके साथ अच्छा मजाक किया गया। बात यह थी कि गृहस्थी का सारा खर्च श्रीकुमार अकेले ही उठा रहे थे। इसलिए सारा दायित्व उन पर ही था।
अपर्णा के मजाक करने का ढंग कुछ ऐसा ही था-संयत और गम्भीर । जबकि आभा जानबूझकर कुछ ऐसा करना चाह रही थी कि बात आगे बढ़े। नन्दा तो जैसे माटी में पड़ गयी। सुकुमार सामान्य बना रहा। वह हाथ-मुँह धोकर खाने को बैठा था इसलिए हाँ...हूँ...तक नहीं कर पाया।
रात को पति-पत्नी दोनों बैठे थे...पलँग पर पाँव लटकाये। श्रीकुमार ने पत्नी का चेहरा अपनी ओर मोड़कर कहा, “मुझे काम का आदमी बनाने की कोशिश क्यों की जा रही है ?" “ठीक ही तो किया। निकम्मे का भी कोई मान है भला?" "कोई दे न दे...एक ने जो मान दिया है वही बहुत है।" "अरे वाह...वह भी क्यों मान देने लगा ? आखिर उसका भी क्या सम्मान है ? और इतना कहकर वह अपमान की आग में..." “क्या हुआ?" श्रीकुमार हैरान रह गये, “आखिर रुक क्यों गयी तुम...बात क्या है ?" "कुछ भी नहीं। चलो, उधर हटो, सोना है।" । श्रीकुमार ने थोड़ा सरकते हुए जगह बना दी। लगभग एक मिनट की चुप्पी के बाद उन्होंने गम्भीर स्वर में पुकारा, "अपर्णा...!" उसको हाथ लगाने का साहस जुटा न पाये इसीलिए अपर्णा के माथे पर हाथ रखकर फिर पुकारा, “अपर्णा...!" "हुं...उ"
“सच बताना अपर्णा, क्या तुम अपने को अपमानित महसूस करती हो ? तो फिर इस बारे में तुमने कभी कुछ कहा क्यों नहीं ? मैं तो न जाने कितने दिनों से नशे की इस बुरी लत को छोड़ना चाह रहा था लेकिन तुम इस बात को हँसकर उड़ाती रहीं। यही नहीं, खुद अपने हाथों से मुझे सजा-सँवार, उस तरफ झोंक देती हो। आखिर तुम ऐसा क्यों करती हो ? क्यों सँवारती हो मुझे इतना ?"
“क्या कह रहे हो?" अपर्णा सोने का बहाना छोड़कर उठ बैठती है। उसके होठों पर वही अनदेखी धार चमक उठती है। उसने कहा, “क्यों करती हूँ यह सब ? यह तुम पूछ रहे हो ? जीवों पर दया किया करो-लोग ऐसा कहते हैं कि नहीं..." "दया...? अच्छा...!" श्रीकुमार ने तिलमिलाते हुए लेकिन धीमे स्वर में कहा, "तो फिर मेरे ऊपर तरस खाकर ही..."
"नहीं। अब तुमसे मैं बहस नहीं कर पाऊँगी। मैं तंग आ चुकी हूँ इन सबसे। तुम क्या मेरे लिए एक जीव मात्र हो ? या मेरे शिद हो। बताओ। तरस खाती हूँ उस बेचारी के ऊपर...तुम्हारी वही प्राण चातकी विरहिनी चिराश्रय-प्रार्थिनी पर...और भी न जाने ढेर सारी प्यारी-दुलारी सब...बताते क्यों नहीं अब ! क्या याद नहीं आ रहीं वे सब-की-सब, जो तुम्हारी चाह में आँखें फाड़े राह ताक रही हैं ?" बहुत पहले, नये-नये ब्याह के तुरन्त बाद ही, संयोगवश, इसी आशय का एक पत्र अपर्णा के हाथ लगा था। और वह आसमान से सीधे जमीन पर आ गिरी थी। लेकिन तब भी, अपर्णा ने इस बात को सबसे छिपाये रखा। उसने सारे मामले को अपनी मुट्ठी से बाहर फिसलने नहीं दिया।
पिछले अठारह वर्षों से उसी अनुशासन में, श्रीकुमार की सारी चर्या ढल गयी है। वे सुखी, सन्तुष्ट और आभारी हैं। उन्हें इसका ध्यान नहीं कि उनकी उम्र इतनी आगे खिसक चुकी है या उनके बारे में कोई सोचता रहा है।
लेकिन उस चिट्ठी का एक-एक शब्द आज भी अपर्णा के कानों में बज उठता है और वह अब भी उसके प्रति चौकस बनी हुई है। और जब भी जरूरत पड़ती है, उसका हवाला देकर पति को परेशान किया करती है।
श्रीकुमार एक मिनट तक चुप रहे होंगे। लेकिन उन्होंने फिर गम्भीर स्वर में पूछा, “क्या तुम समझती हो अपर्णा, कि मैं तुम्हें सचमुच कष्ट पहुँचाना चाहता हूँ? तुम्हें इस बात का विश्वास होता है कि मैं तुम्हारा जी दुखाकर यह सब करना चाहता हूँ ?" "अब आधी रात को तुम्हें पागलपन का दौरा पड़ा है।" "नहीं ! तुम अब बात को छिपाओ मत। ठीक-ठीक बताओ कि आखिर क्या..." अचानक अपर्णा के होठों का रचाव बदल गया। सचमुच ? वे इतने तरल और कँपते हुए क्यों दीख रहे हैं ! "विश्वास हो जाएगा...क्या इस पर तुम्हें विश्वास है ?" "नहीं। और तभी तो तुम्हारी ओर से इतना निश्चिन्त रहा हूँ, अपर्णा ! लेकिन तुम मुझ पर बीच-बीच में दबाव क्यों नहीं डालतीं ? क्यों नहीं तुम मुझ पर पूरी तौर से अपना अधिकार जताये रखना चाहती हो ? आखिर मुझ पर तुम्हारा पूरा हक है।"
Hindi Kahani - ऐश्वर्य
“अच्छी मुसीबत है ! क्या मैं जान-बूझकर यह पागलपन कर रही हूँ ? श्रीमान जी, किसी पेड़ के ऊपर अपना हक जताने के लिए उसकी जड़ों को खोद डालना बुद्धिमानी की बात है ? मैं सारा कुछ अपनी मुट्ठियों में भींच लूँ, ऐसी राक्षसी भूख मेरी नहीं।...लेकिन यह सब सोचकर क्या होगा आज ? सोना-वोना नहीं है आज क्या ? कल सुबह महराजिन नहीं आएगी। अब छोड़िए भी श्रीमान जी और सो जाइए...बहुत काम है।"
यानी कि इन सारी बातों पर अभी मिट्टी डालो। लेकिन श्रीकुमार आज कुछ ज्यादा ही विचलित हो उठे थे। वे इतनी जल्दी सारा कुछ निपटाने के पक्ष में नहीं थे। तनिक उत्तेजित स्वर में बोले-"अपर्णा, मैं इस बात से अनजान नहीं कि मेरा आचरण तुम्हारे लिए अपमानजनक रहा है। ठीक है लेकिन तुम्हारे द्वारा शह दिये जाने की बात की भी मैं अनदेखी नहीं कर सकता। मुझे यह ठीक ही जान पड़ता है कि इस रवैये में थोड़ा-बहुत बदलाव आना ही चाहिए।"
अपर्णा ने छूटते हुए लेकिन बुझे स्वर में कहा, "मुझे भी यही सही जान पड़ता है। सोच रही हूँ अगली बार जब दर्जी घर आएगा तो तुम्हारे कुरते के बदले कुछेक बनियान सिल देने को कहूँगी।"
"तो फिर ऐसी बात का मतलब ?" श्रीकुमार ने हैरानी से पूछा। “मतलब यह है जनाब कि थोड़ा-बहुत बदलाव तो आना ही चाहिए।" "फिर तुम्हारा वही मजाक ? क्या तुम यह सोचती हो कि मेरे लिए कंचन को छोड़ पाना..." "छी...छी..."
अपर्णा की इस तीखी फटकार से श्रीकुमार अपनी बात पूरी नहीं कर पाये। उनका चेहरा मुरझा गया। लेकिन पति के उस फीके चेहरे की ओर अपर्णा देखती रहीऔर धीरे-धीरे उसका मुखमण्डल चमक उठा। उसने अपने स्वाभाविक तेवर में कहा, "मेरी यह बात तुम उससे कहते तो होगे कि मेरे लिए वह सौत नहीं काँटा है, जिसके मर जाने पर सिक्के लुटाऊँगी।...क्या कहती है यह सब सुनकर तुम्हारी इकलौती 'चिराश्रिता' दासी ?"
सुकुमार अपने सोनेवाले कमरे में था। तहकर चौकोर किये गये एक कम्बल पर 'अध्यात्म रामायण' का पहला काण्ड या फिर ऐसी ही कोई लम्बी-चौड़ी पोथी के पन्ने उलट रहा था। तभी आभा कमरे में आती दीख पड़ी और उससे पूछ बैठी, “यह मास्टर साहब को छुड़वाने की बात मेरी समझ में नहीं आयी।"
सुकुमार ने कुछ कहा नहीं। शायद सुना भी नहीं। “सब ढोंग है ढोंग," आभा ने होठों को बिचकाते हुए शाम को घटी घटना के बारे में संक्षेप में बता दिया। “पहली बार इसी घर में आकर देखा कि पति की बुरी लत को किस तरह बहादरी का दर्जा दिया जाता है।"
"मेरा तो यह सब सोचकर ही सिर चकराने लगता है। क्या कहूँ...क्या करूँ...बड़े भैया हैं, लाचारी है...! गुरु देव...गुरु देव," यह कहते हुए सुकुमार ने कमली आसन को लम्बा किया और उसी का बिछावन बनाकर सो गया। आज रविवार का दिन था-व्रत, उपवास और कठोर चर्या का दिन। आज वह आरामदायक पलँग पर नहीं सोएगा।
यह ठीक है कि घर-गृहस्थी का इतना बड़ा दायित्व पूरी तरह अपने सिर पर न लेते तो भी उम्र के हिसाब से श्रीकुमार घर के बड़े बुजुर्ग थे। और अगर ऐसा न होता तो पता नहीं सुकुमार आज कितना निरुपाय होता।
'अब चली',...'तब चली' करते-करते नन्दा कुछ दिन और रुक गयी। तय यह हुआ था कि उसका देवर आएगा और उसे लिवा ले जाएगा। उसका कोई अता-पता नहीं था। आखिरकार नन्दा खुद जाने को तैयार हो गयी। तब वह रह-रहकर यही कहा करती, "अरे कहाँ गये सब...भई, अब इस आफत को विदा करने की तैयारी करो।" सुकुमार किसी भी मामले या झमेले में चुप्पी साधे रहता। न इधर, न उधर। "बात क्या है ?" श्रीकुमार ने पूछा, “वह कहीं जेल में तो नहीं बन्द है। जब वह बेटा लेने नहीं आया तब तू अपने मन से वहाँ क्यों जाएगी? कुछ दिन और रुक जा।"
उधर भण्डार-घर में बैठी आभा दाँत पीसती और मन मारे बैठ गयी। मन-ही-मन बोली, 'हाँ, रहेगी कैसे नहीं यहाँ ? ऐसी पनखौकी, बेपरवाह और दिल्लगी करने वाली तुम लोगों के ही घर में पड़ी रह सकती है। पता नहीं क्या मजबूरी है ? मेरे बस की बात होती तो में झाड़ मारकर बाहर निकाल देती।'
सखी भाव की मुँहलगी सरसता बहुत पहले ही सूख चुकी थी। बातचीत में कोई नयी बात रह नहीं गयी थी। इसीलिए युवती-सी दीखने वाली नन्दा की भरी-पूरी सेहत और बेमतलब जान पड़ने वाली चंचलता आभा की आँखों को आजकल तनिक नहीं भाता। उसका जी उसे देखते ही जल उठता। नन्दा ने भी जब यह देखा कि कहीं घास नहीं डाली जा रही तो वह भी एक किनारे हो गयी। शायद यह भी एक कारण था जिसके चलते वह इस घर से फूट जाना चाहती थी। उसने यह भी सुन रखा था कि छोटी देवरानी की तबीयत ठीक नहीं। ऐसी नाजुक घड़ी में अगर वह वहाँ नहीं गयी तो पता नहीं बाद में क्या कुछ सुनना पड़े ?
अन्त में, अपर्णा ने ही कथा का श्रीगणेश किया। उसने कहा, "हमारी छोटी ननदजी बड़ी परेशान हैं इन दिनों। परसों रविवार है, उसे श्रीरामपुर तक छोड़ आओ।" "किससे कह रही हो", श्रीकुमार ने मुँह में कौर रखते हुए पूछा, “मुझसे ?" “पागल हो गये हो ! भला तुम्हें क्यों कहने लगी ? मैं तो बूढ़े बाभन महाराज से कह रही थी।" अपर्णा का स्वर तीखा हो गया। "अच्छी मुसीबत है। क्या उसे कोई लिवा जाने के लिए नहीं आएगा ?" “कोई आया भी तो नहीं।" अपर्णा ने आगे जोड़ा, खैर, “तुम्हीं पहुँचा आओ। बड़ी परेशान है बेचारी।" “ठीक है, जाना कब है ? मेरा मतलब है गाड़ी कितने बजे की है ?"-श्रीकुमार ने बड़ी सादगी से यह सवाल किया था। "डरने की कोई बात नहीं," अपर्णा ने अपनी धारदार मुस्कान को दबाते हुए कहा, “शाम होने तक लौट आओगे।"
उधर आभा ने जब यह बात सुनी तो वह न केवल हैरान थी बल्कि उसे अचरज भी हुआ। अपर्णा का यह दुस्साहस ! इस निरंकुश दुस्साहस का अधिकार आखिर उसे किसने सौंपा है ? इसके अलावा, वह किसी दूसरे व्यक्ति की अनुपस्थिति में, नन्दा के साथ अपने पति के जाने की बात की कल्पना तक नहीं कर सकती। आखिर अपर्णा इतना साहस कहाँ से जुटा लेती है ! और जिस साहस के बूते पर वह अपने पति को शेरनी के बाड़े के अन्दर भेज देने या फन काढ़े नागिन के सामने खड़ा कर देने से भी नहीं झिझकती। आखिर क्या बात है उसमें ?
लेकिन उसके लिए अब भी राहत की बात यही थी कि बड़ी जेठानी ने सुकुमार के पास यह प्रस्ताव खुद नहीं रखा था। भगवान ने अब तक उसकी रक्षा की थी।
लेकिन स्वयं भगवान भी उसकी रक्षा बहुत देर तक नहीं कर सका। उसने अपना वह रूप छिपा लिया और इसके साथ ही आभा के साथ जैसे विश्वासघात हो गया। इस बात की सम्भावना तो किसी को नहीं थी कि रात को श्रीकुमार अचानक ज्वरग्रस्त हो जाएँगे। वह श्रीकुमार, जिसने कभी सिरदर्द तक की शिकायत न की हो।
यह क्रूर विधाता का षड्यन्त्र ही तो था। "देवर जी, ऐसा करो कि अब तुम्हीं श्रीरामपुर चले जाओ..." अपर्णा ने श्रीकुमार के ज्वरग्रस्त हो जाने की सूचना के साथ ही बड़े सहज ढंग से प्रस्ताव रखा था। उसके लिए यह कोई खास बात न थी। शेफाली बिटिया के स्कूल तक पहुँचा देने जैसी मामूली-सी बात। इधर आभा सर से पाँव तक विचलित हो उठी थी। काश, अपर्णा की इस सहज मूर्ति को वह चूर-चूर कर पाती। सादगी से भरी उसकी प्रतिभा को ढहा देने वाला कोई मन्त्र !...ओह...क्या करे वह ? सुकुमार ने आभा की ओर ताकते हुए आनाकानी भरे स्वर में कहा, "मैं...। मैं भला कैसे...मैंने तो कभी सोचा..."
"कैसी मुसीबत गले पड़ी है। और क्या...? अभी यही नौ बजे वाली गाड़ी से..." कहते-कहते आभा के शरीर का सारा खून जैसे कलेजे में जाकर जम गया और चेहरा तमतमा उठा। आखिर उसके जी की जलन जुबान तक आ ही गयी, "वह कैसे जा पाएगा, दीदी ! आज उसका रविवार का व्रत जो ठहरा।"
“ठीक है। फिर वह ऐसा करे कि जल्दी तैयार होकर भात का प्रसाद पा ले और दूसरी गाड़ी से चला जाए। श्रीरामपुर जाने वाली गाड़ी तो हर घण्टे-आध घण्टे पर मिलती रहती है।" अपर्णा के लिए तो ले-देकर बस गाड़ी की ही सुविधा-असुविधा है। और इधर भात-प्रसाद की तैयारी में आभा परेशान हो उठी है।
"ऐसा नहीं हो सकता कि...," आभा ने कलेजे पर पड़ा पत्थर हटाते हुए कह ही दिया, "...नन्दा की रवानगी दो दिनों के लिए टल जाए। आज के दिन उसका जाना इतना ही जरूरी है ? इतने दिनों तक तो पड़ी रही। दो दिन और रह गयी तो क्या महाभारत हो जायगा ?" आभा ने अपर्णा की ओर बिना आँखें उठाये ही यह सब कहा। अपर्णा के होठों पर आहिस्ता-आहिस्ता फूट पड़ने वाली मुस्कान की अनदेखी कर। लेकिन यह क्या ? अपर्णा मुस्करा नहीं रही बल्कि हैरान खड़ी है और कह रही है, "तू इस मामूली-सी बात का बतंगड़ बनाने पर क्यों तुली है, छोटी बहू ? दो-चार घण्टे की ही तो बात है। देवरजी शाम तक वापस लौट आएँगे और अपनी सन्ध्या-पूजा कर ले सकेंगे। इसमें परेशानी की क्या बात है भला ! नन्दा के घरवालों को चिट्ठी लिखी जा चुकी है। अगर वह नहीं पहुँच सकेगी तो उन्हें अच्छा लगेगा ? है कि नहीं, देवरजी ? उन्हें यह बात बुरी नहीं लगेगी क्या।"
इधर देवर है कि कुछ समझ नहीं पा रहा। अपनी गर्दन हिलाकर क्या कहे...हाँ कि ना। और आभा ? उसके हृदय का एक-एक तार एक साथ झनझनाकर जो कुछ कहना चाह रहा था, उसे वह अपने होठों पर ला नहीं सकती थी। इसलिए वह तेज कदमों से कमरे से बाहर निकल गयी।
हे नारायण ! क्या तुम एक बार भी अपना मुँह ऊपर उठाकर देखोगे नहीं। ऐसा नहीं हो सकता कि सुकुमार को भी इसी घड़ी तेजी से बुखार आए और उसे दबोच ले। एक सौ चार...पाँच और भी ज्यादा। या फिर नल के नीचे नहाते हुए उसका पाँव फिसले और वह दुर्घटनाग्रस्त हो जाए। ऐसा भी तो होता है कि बिला किसी वजह सिर चकरा जाता है और आदमी धड़ाम से गिर पड़ता है। चाहे जैसे भी हो, ऐसी कोई विपदा टूट पड़े तो उसकी जान बचे। क्या ऐसा नहीं होगा ? आये दिन होने वाली दुर्घटना क्या इतनी दुर्लभ वस्तु है ? तो फिर आभा क्या करे, कहाँ जाए !
अपने समस्त ‘फल-जल' हविष्यान्न और पूजा-पाठ का सारा ताम-झाम बेकार करके यह रविवार का दिन कहाँ गायब हो जाता है। आखिर किस पर भरोसा कर पाएगी आभा ?
Hindi Kahani - ऐश्वर्यरेल का एकान्त डिब्बा और किसी तीसरे आदमी की अनुपस्थिति-इस बात की कल्पना से ही उसका बदन सिहर उठता था। उसकी इच्छा हुई कि वह दीवार पर अपना सिर दे मारे और वहीं जान दे दे।
आखिर अपने पति के बारे में उससे ज्यादा और कौन जान सकता था भला ! Hindi Kahani


