कोरोना वायरस: ओमिक्रोन से भी ज़्यादा खतरनाक ये वैरिएंट मचाएगा तबाही, वैज्ञानिकों ने इस बड़े खतरे का जताया अंदेशा





Agriculture Tips: अलसी एक तिलहनी फसल है। इसके दानों से तेल प्राप्त किया जाता है। इसका व्यापारिक दृष्टि से बड़ा महत्व है। तेल निकालने के बाद बची हुई खली पशुओं के लिये एक पौष्टिक आहार के रूप में काम आती है। इसका उपयोग खाद के रूप में भी किया जाता है। अलसी के बीज अन्य अनाजों के साथ पीसकर खाने में भी प्रयोग किये जाते हैं। इसके बीजों का प्रयोग सुगन्धित तेल तथा अन्य औषधियां तैयार करने में भी किया जाता है। इसके पौधों के तने से प्राप्त रेशा कैनवास, दरी तथा अन्य प्रकार के मोटे कपड़े तैयार करने में प्रयोग किया जाता है। रेशे निकालने के बाद बचे हुए तने का कड़क हिस्सा, सिगरेट में प्रयोग होने वाले कागज बनाने के काम में आता है।
अलसी के तेल का प्रयोग रंग, पेन्ट्स, अलसी वार्निश और छपाई के लिये प्रयुक्त स्याही तैयार करने के लिये किया जाता है। इसके अतिरिक्त तेल का प्रयोग खाने, साबुन बनाने के लिये तथा कुछ स्थानों पर दीपक जलाने में भी किया जाता है।
क्षेत्रफल एवं वितरण अलसी की खेती अर्द्धउष्ण, समशीतोष्ण और तीव्र जलवायु में भी की जा सकती है। अलसी का क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व में भारत का प्रथम स्थान है, परन्तु उत्पादन की दृष्टि से भारत का चौथा स्थान है। विश्व के अलसी के कुल क्षेत्रफल का 15 प्रतिशत भारत में है। देश में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और राजस्थान अलसी के प्रधान उत्पादक राज्य हैं। अलसी की फसल के लिये काली, भारी एवं दोमट मृदा उपयुक्त होती है। फसल की उत्तम उपज के लिये मध्यम उपजाऊ, दोमट मृदा उत्तम होती है।
उन्नत प्रजातियां बीज के अच्छे अंकुरण व पौधे की बढ़वार के लिये पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा बाद की 3-4 जुताइयां देसी हल या हैरो चलाकर करनी चाहिये। जुताई के बाद पाटा लगाना आवश्यक है।
बीज अलसी के बीज बोने के लिये 15-20 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टर की आवश्यकता पड़ती है। बड़े बीज वाली प्रजातियों में 25-30 कि.ग्रा. व मिश्रित फसल के लिए बीज की मात्रा 8-10 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से आवश्यकता होती है।
बुआई इसकी बुआई 7 अक्टूबर से 13 नवंबर तक की जा सकती है। किन्हीं कारणों से देर होने पर बुआई 31 नवंबर तक भी की जाती है। बिहार व राजस्थान में धान की खड़ी फसल में अगर बुआई करनी है, तो सितंबर के अंत तक बीज छिटककर बुआई कर देनी चाहिये।
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Agriculture Tips[/caption]
बोने की विधि अलसी की बुआई विभिन्न क्षेत्रों में छिटकवां विधि व पंक्तियों में की जाती है। मध्य प्रदेश में धान की खड़ी फसल में छिटकवा बुआई को 'उतेरा' व बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश में 'पेरा' विधि कहते हैं। पंक्तियों में बुआई करने के लिये, वांछित दूरी पर कूड़ तैयार करके बुआई करते हैं। मिश्रित फसल की बुआई करने के लिये, चने की तीन पक्तियां, गेहूं की 5-8 पंक्तियों के बाद, अलसी की फसल (1-1.5 मीटर के अंतर पर ) पक्तियों में बोई जाती है। शरदकालीन गन्ने की दो पंक्तियों के बीच अलसी की दो पक्तियां उगा सकते हैं। सामान्य अवस्थाओं में बीज बोने की गहराई 3-4 सें.मी. रखते हैं।
खाद पोषक तत्वों की मात्रा का निर्धारण सदैव उस क्षेत्र की मृदा का परीक्षण करवाकर निश्चित करना चाहिये। साधारणतः अलसी फसल को नाइट्रोजन, फॉस्फोरस व पोटाश की मात्रा क्रमश: 80:40:20 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर देनी चाहिये। फॉस्फोरस व पोटाश की मात्रा बुआई के समय व नाइट्रोजन की आधी मात्रा बुआई के समय व आधी पहली सिंचाई पर देने से अधिक लाभ प्राप्त होता है। नाइट्रोजन को अमोनियम सल्फेट द्वारा देने से अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं।
सिंचाई एवं जल निकास देश में अधिकतर क्षेत्रों में अलसी की खेती मुख्यतः वर्षा के ऊपर निर्भर करती है। अलसी की खेती में सिंचाई का महत्व बहुत अधिक है। अगर शरद्कालीन वर्षा न हो, तो पहली सिंचाई 4-6 पत्तियां निकलने पर व दूसरी फूल आते समय करनी लाभदायक है।
निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण बोने के 30-35 दिनों बाद पहली निराई-गुड़ाई की जाती है। इसी समय पंक्तियों में पौधों की छंटाई करके पौधों के बीच का फासला 5-7 सें.मी. कर देते हैं। फसल को खरपतवार से मुक्त करने के लिये 20-25 दिनों बाद दूसरी निराई से कर सकते हैं।
मिश्रित खेती अलसी की फसल चना, जौं व गेहूं के साथ मुख्य रूप से मिश्रित रूप में उगाई जाती है। शरदकालीन गन्ने के साथ इसकी फसल उगाते हैं। रबी की फसल के किनारे भी अलसी की फसल उगाई जाती है।
कटाई, मड़ाई व उपज दाने वाली फसल की कटाई मध्य मार्च से लेकर अप्रैल के प्रारंभ तक होती है। फसल की कटाई करके बंडल खलिहान में लाये जाते हैं। यहां बंडल 4-5 दिनों तक सुखाये जाते हैं। बाद में मड़ाई के लिए मशीन (थ्रेशर) के सहारे दाने अलग कर देते हैं। शुद्ध फसल में दाने की उपज 8-10 क्विंटल, उन्नत प्रजातियों से औसत उपज 15-25 क्विंटल व मिश्रित फसल से 4-5 क्विंटल प्रति हैक्टर तक दाने की उपज प्राप्त होती है।
भण्डारण भण्डारों में रखने से पहले दानों को सुखाकर 10-12 प्रतिशत तक नमी छोड़ी जाती है। नमी की मात्रा अधिक रहने से बीजों के अंकुरण पर बुरा प्रभाव पड़ता है। बीज को 40 डिग्री सेल्सियस तापमान पर काफी दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। इससे अंकुरण पर भी बुरा प्रभाव नहीं पड़ता।
जैविक अलसी उत्पादन के परिणाम
भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान, भोपाल में जैविक पद्धति द्वारा अलसी की खेती की गई। जैविक खादों के रूप में अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद केंचुआ खाद एवं मुर्गी खाद क्रमशः 4 टन, 2.2 टन एवं 1.2 टन प्रति हैक्टर शुष्क भार आधार पर डाली गई। इससे लगभग 80 कि.ग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टर प्राप्त हुई। पौध संरक्षण में इसके लिए मृदा में ट्राइकोडर्मा विरिडी को डाला गया, ताकि मृदाजनित रोगों से फसल को बचाया जा सके एवं 0.03 प्रतिशत नीम तेल का छिड़काव किया गया। कीटों को आकर्षित करने के लिए फेरोमैन ट्रैप लगाया गया। जैविक खेती के परिणाम दर्शाते हैं कि अलसी की प्रति हैक्टर उपज शुरुआती तीन वर्षों में कम हुई। इसके बाद उपज में बढ़ोतरी पाई गयी। यदि किसान उपलब्ध जैविक खादों का प्रयोग करके जैविक अलसी का उत्पादन करें, तो निश्चित ही कुछ ही वर्षों में मृदा गुणवत्ता के साथ-साथ ज्यादा उपज एवं लाभ प्राप्त होगा।
अलसी की उन्नत प्रजातियां
उत्तर प्रदेश : नीलम हीरा. मुक्ता, गरिमा, लक्ष्मी 27 टी 397. के. 2. शिखा, पद्मिनी
पंजाब, हरियाणा : एल.सी. 54. एल. सी. 185 के. 2. हिमालिनी, श्वेता, शुभ्रा
राजस्थान : टी. 397. हिमालिनी, चम्बल, श्वेता, शुभ्रा, गौरव
मध्य प्रदेश : जे.एल. एस. (जे) 1. जवाहर 17 जवाहर 552, जवाहर 7 जवाहर 18. टी. 397. श्वेता, शुभ्रा, गौरव. मुक्ता
बिहार : बहार टी. 397, मुक्ता, श्वेता, शुभ्रा, गौरव
हिमाचल : हिमालिनी, के. 2. एल. सी. 185
Agriculture Tips: अलसी एक तिलहनी फसल है। इसके दानों से तेल प्राप्त किया जाता है। इसका व्यापारिक दृष्टि से बड़ा महत्व है। तेल निकालने के बाद बची हुई खली पशुओं के लिये एक पौष्टिक आहार के रूप में काम आती है। इसका उपयोग खाद के रूप में भी किया जाता है। अलसी के बीज अन्य अनाजों के साथ पीसकर खाने में भी प्रयोग किये जाते हैं। इसके बीजों का प्रयोग सुगन्धित तेल तथा अन्य औषधियां तैयार करने में भी किया जाता है। इसके पौधों के तने से प्राप्त रेशा कैनवास, दरी तथा अन्य प्रकार के मोटे कपड़े तैयार करने में प्रयोग किया जाता है। रेशे निकालने के बाद बचे हुए तने का कड़क हिस्सा, सिगरेट में प्रयोग होने वाले कागज बनाने के काम में आता है।
अलसी के तेल का प्रयोग रंग, पेन्ट्स, अलसी वार्निश और छपाई के लिये प्रयुक्त स्याही तैयार करने के लिये किया जाता है। इसके अतिरिक्त तेल का प्रयोग खाने, साबुन बनाने के लिये तथा कुछ स्थानों पर दीपक जलाने में भी किया जाता है।
क्षेत्रफल एवं वितरण अलसी की खेती अर्द्धउष्ण, समशीतोष्ण और तीव्र जलवायु में भी की जा सकती है। अलसी का क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व में भारत का प्रथम स्थान है, परन्तु उत्पादन की दृष्टि से भारत का चौथा स्थान है। विश्व के अलसी के कुल क्षेत्रफल का 15 प्रतिशत भारत में है। देश में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और राजस्थान अलसी के प्रधान उत्पादक राज्य हैं। अलसी की फसल के लिये काली, भारी एवं दोमट मृदा उपयुक्त होती है। फसल की उत्तम उपज के लिये मध्यम उपजाऊ, दोमट मृदा उत्तम होती है।
उन्नत प्रजातियां बीज के अच्छे अंकुरण व पौधे की बढ़वार के लिये पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा बाद की 3-4 जुताइयां देसी हल या हैरो चलाकर करनी चाहिये। जुताई के बाद पाटा लगाना आवश्यक है।
बीज अलसी के बीज बोने के लिये 15-20 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टर की आवश्यकता पड़ती है। बड़े बीज वाली प्रजातियों में 25-30 कि.ग्रा. व मिश्रित फसल के लिए बीज की मात्रा 8-10 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से आवश्यकता होती है।
बुआई इसकी बुआई 7 अक्टूबर से 13 नवंबर तक की जा सकती है। किन्हीं कारणों से देर होने पर बुआई 31 नवंबर तक भी की जाती है। बिहार व राजस्थान में धान की खड़ी फसल में अगर बुआई करनी है, तो सितंबर के अंत तक बीज छिटककर बुआई कर देनी चाहिये।
[caption id="attachment_52943" align="alignnone" width="719"]
Agriculture Tips[/caption]
बोने की विधि अलसी की बुआई विभिन्न क्षेत्रों में छिटकवां विधि व पंक्तियों में की जाती है। मध्य प्रदेश में धान की खड़ी फसल में छिटकवा बुआई को 'उतेरा' व बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश में 'पेरा' विधि कहते हैं। पंक्तियों में बुआई करने के लिये, वांछित दूरी पर कूड़ तैयार करके बुआई करते हैं। मिश्रित फसल की बुआई करने के लिये, चने की तीन पक्तियां, गेहूं की 5-8 पंक्तियों के बाद, अलसी की फसल (1-1.5 मीटर के अंतर पर ) पक्तियों में बोई जाती है। शरदकालीन गन्ने की दो पंक्तियों के बीच अलसी की दो पक्तियां उगा सकते हैं। सामान्य अवस्थाओं में बीज बोने की गहराई 3-4 सें.मी. रखते हैं।
खाद पोषक तत्वों की मात्रा का निर्धारण सदैव उस क्षेत्र की मृदा का परीक्षण करवाकर निश्चित करना चाहिये। साधारणतः अलसी फसल को नाइट्रोजन, फॉस्फोरस व पोटाश की मात्रा क्रमश: 80:40:20 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर देनी चाहिये। फॉस्फोरस व पोटाश की मात्रा बुआई के समय व नाइट्रोजन की आधी मात्रा बुआई के समय व आधी पहली सिंचाई पर देने से अधिक लाभ प्राप्त होता है। नाइट्रोजन को अमोनियम सल्फेट द्वारा देने से अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं।
सिंचाई एवं जल निकास देश में अधिकतर क्षेत्रों में अलसी की खेती मुख्यतः वर्षा के ऊपर निर्भर करती है। अलसी की खेती में सिंचाई का महत्व बहुत अधिक है। अगर शरद्कालीन वर्षा न हो, तो पहली सिंचाई 4-6 पत्तियां निकलने पर व दूसरी फूल आते समय करनी लाभदायक है।
निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण बोने के 30-35 दिनों बाद पहली निराई-गुड़ाई की जाती है। इसी समय पंक्तियों में पौधों की छंटाई करके पौधों के बीच का फासला 5-7 सें.मी. कर देते हैं। फसल को खरपतवार से मुक्त करने के लिये 20-25 दिनों बाद दूसरी निराई से कर सकते हैं।
मिश्रित खेती अलसी की फसल चना, जौं व गेहूं के साथ मुख्य रूप से मिश्रित रूप में उगाई जाती है। शरदकालीन गन्ने के साथ इसकी फसल उगाते हैं। रबी की फसल के किनारे भी अलसी की फसल उगाई जाती है।
कटाई, मड़ाई व उपज दाने वाली फसल की कटाई मध्य मार्च से लेकर अप्रैल के प्रारंभ तक होती है। फसल की कटाई करके बंडल खलिहान में लाये जाते हैं। यहां बंडल 4-5 दिनों तक सुखाये जाते हैं। बाद में मड़ाई के लिए मशीन (थ्रेशर) के सहारे दाने अलग कर देते हैं। शुद्ध फसल में दाने की उपज 8-10 क्विंटल, उन्नत प्रजातियों से औसत उपज 15-25 क्विंटल व मिश्रित फसल से 4-5 क्विंटल प्रति हैक्टर तक दाने की उपज प्राप्त होती है।
भण्डारण भण्डारों में रखने से पहले दानों को सुखाकर 10-12 प्रतिशत तक नमी छोड़ी जाती है। नमी की मात्रा अधिक रहने से बीजों के अंकुरण पर बुरा प्रभाव पड़ता है। बीज को 40 डिग्री सेल्सियस तापमान पर काफी दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। इससे अंकुरण पर भी बुरा प्रभाव नहीं पड़ता।
जैविक अलसी उत्पादन के परिणाम
भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान, भोपाल में जैविक पद्धति द्वारा अलसी की खेती की गई। जैविक खादों के रूप में अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद केंचुआ खाद एवं मुर्गी खाद क्रमशः 4 टन, 2.2 टन एवं 1.2 टन प्रति हैक्टर शुष्क भार आधार पर डाली गई। इससे लगभग 80 कि.ग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टर प्राप्त हुई। पौध संरक्षण में इसके लिए मृदा में ट्राइकोडर्मा विरिडी को डाला गया, ताकि मृदाजनित रोगों से फसल को बचाया जा सके एवं 0.03 प्रतिशत नीम तेल का छिड़काव किया गया। कीटों को आकर्षित करने के लिए फेरोमैन ट्रैप लगाया गया। जैविक खेती के परिणाम दर्शाते हैं कि अलसी की प्रति हैक्टर उपज शुरुआती तीन वर्षों में कम हुई। इसके बाद उपज में बढ़ोतरी पाई गयी। यदि किसान उपलब्ध जैविक खादों का प्रयोग करके जैविक अलसी का उत्पादन करें, तो निश्चित ही कुछ ही वर्षों में मृदा गुणवत्ता के साथ-साथ ज्यादा उपज एवं लाभ प्राप्त होगा।
अलसी की उन्नत प्रजातियां
उत्तर प्रदेश : नीलम हीरा. मुक्ता, गरिमा, लक्ष्मी 27 टी 397. के. 2. शिखा, पद्मिनी
पंजाब, हरियाणा : एल.सी. 54. एल. सी. 185 के. 2. हिमालिनी, श्वेता, शुभ्रा
राजस्थान : टी. 397. हिमालिनी, चम्बल, श्वेता, शुभ्रा, गौरव
मध्य प्रदेश : जे.एल. एस. (जे) 1. जवाहर 17 जवाहर 552, जवाहर 7 जवाहर 18. टी. 397. श्वेता, शुभ्रा, गौरव. मुक्ता
बिहार : बहार टी. 397, मुक्ता, श्वेता, शुभ्रा, गौरव
हिमाचल : हिमालिनी, के. 2. एल. सी. 185