कोरोना वायरस: ओमिक्रोन से भी ज़्यादा खतरनाक ये वैरिएंट मचाएगा तबाही, वैज्ञानिकों ने इस बड़े खतरे का जताया अंदेशा

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calendar26 Dec 2022 10:45 PM
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दुनियाभर में कोरोना के नए मामले एक बार फिर तेजी से बढ़ रहे हैं। चीन की स्थिति काफी बिगड़ रही है। रिपोर्ट्स के मुताबिक चीन में लाखों केस रोजाना सामने आ रहे हैं। वैज्ञानिकों ने बताया है कि अगर कोरोना वायरस का म्यूटेशन हुआ तो यह ओमीक्रॉन से भी ज़्यादा खतरनाक साबित हो सकता है। चीन में कोरोना के कारण हालात लगातार बिगड़ते जा रहे हैं। रोज सामने आ रहे आंकड़ों के मुताबिक , चीन में BF.7 वेरिएंट तबाही मचा रहा है। चीन में कोरोना के बढ़ते हुए मामलों से दूसरे देश भी चिंता में आ गए हैं क्यूंकि पहले भी चीन के बाद ही दुनिया भर में संक्रमण फैला था। वैज्ञानिकों ने इस बात पर ज़ोर दिया की हर न्य संक्रमण कोरोना वायरस में म्युटेशन में मदद कर सकता है जिससे नए वेरिएंट सामने आ सकते हैं और वे अधिक खतरनाक साबित हो सकते हैं। अगर वायरस माँ म्युटेशन हुआ तो इससे और तबाही मच सकती है।
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Agricultural Tips : खेती और किसान: उत्तराखंंड की पोषक दलहनी फसल है गहत

Gahat Daal
Agricultural Tips :
locationभारत
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calendar02 Dec 2025 04:05 AM
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Agricultural Tips: उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में गहत एक महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। विशिष्ट औषधीय एवं पोषणयुक्त गुणों से भरपूर गहत पर्वतीय क्षेत्र में रहने वाले ग्रामीणों के लिए प्रोटीन का एक सुलभ एवं सस्ता स्रोत है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में प्रचलित रोजमर्रा के भोजन एवं स्थानीय व्यंजनों का यह एक अभिन्न अंग है। सामान्य जनमानस का इस दलहन के पोषण एवं औषधीय गुणों के प्रति मड़ते रुझान के कारण कृषकों को इसका उच्च बाजार मूल्य मिल रहा है। इसके साथ ही विपणन की भी काफी संभावनाएं हैं। यह उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में सदियों से प्रचलित पारंपरिक मिश्रित फसल प्रणाली 'बारानाजा' का एक अभिन्न घटक है। वर्तमान में इस मूल्यवान फसल का उत्पादन मांग के अनुरूप नहीं है। इसके साथ ही अन्य व्यावसायिक रूप में लाभकारी फसलों द्वारा इसका प्रतिस्थापन भी एक चिंता का विषय है। गहत का पोषण एवं औषधीय गुणों का वृहद स्तर पर लाभ लेने हेतु इस दलहनी फसल की ओर उत्पादकों, उपभोक्ताओं एवं शोधकर्ताओं का ध्यान आकृष्ट किये जाने की तत्काल आवश्यकता है।

Agricultural Tips

भारत में प्राचीन समय से उगाई जाती है। सहत को हॉर्स ग्राम, कुल्मी एवं मद्रास ग्राम के नाम से भी जाना जाता है। भारत के गहत की खेती ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया, स्टीव म्यांमार, पूर्वी और दक्षिणी अफ्रीका में भोजन, हरे चारे एवं हरी खाद के रूप में की है। भारत में की खेती का कुल क्षेत्रफल लगभग 4.58 लाख हेक्टर, उत्पादन 2.89 लाख टन तथा उत्पादकता 659 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर है। सामान्यतः इसके नका रंग हल्का बादामी, काता तथा भूरा होता है। यह मुख्यतः कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, ओडिशा, महाराष्ट्र तथा छत्तीसगढ़ में रखी एवं खरीफ दोनों मौसमों में ऐसी भूमि पर उगायी जाती है, जो अन्य फसलों के लिए उपयुक्त नहीं होती है। राष्ट्रीय स्तर पर गहत का क्षेत्रफल एवं उत्पादन खरीफ में अधिक है, जबकि उत्पादकता रबी मौसम में बेहतर है। इसका पटता हुआ क्षेत्रफल एवं उत्पादन तथा उपव की स्थिरता चिंता का विषय है। गहत के पोषक गुण: गहत के बीज उत्कृष्ट पोषण गुणवत्ता एवं अद्वितीय औषधीय गुणों के भण्डार हैं। गहत में प्रोटीन की मात्रा सामान्यतः अन्य दालों के बराबर ही है, जबकि रेशा, कैल्शियम, लोहा तथा मॉलिब्लेडनम की मात्रा भारत में खाई जाने वाली अन्य खाद्य दलहनों से अधिक है। सामान्यतः इसे दली हुई दाल की बजाय साबुत ही खाया जाता है एवं इसमें पायी जाने वाली का एक अच्छा पूरक बनाती है। भारत के दक्षिणी आती हैं। विभिन्न प्रकार की ग्रेवी बनाने में इस दाल का प्रयोग होता है। सूप एवं पापड़ हेतु भी इसका करती है। उत्तराखंड में गहत को पारंपरिक भोजन में हल्की आंच में रखकर देर तक पकाया जाता है। इससे भोजन में पोषण विरोधी घटक ट्रिप्सिन अवरोधक नष्ट हो जाता है और भोजन सुपाच्य बनता है। उत्तराखंड के अधिकांश स्थानीय व्यंजनों में गहत को रातभर भिगोकर रखा जाता है और भिगोने से इसके पोषण एवं खाना पकाने की गुणवत्ता पर लाभकारी प्रभाव पड़ता है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में गहत से कई प्रकार के व्यंजन जैसे- दाल, डुबके बेड़, बड़ी, खुमड़ी, फाना, छोले, पपटोल, पपटोल की सब्जी, रस, चुड़काणी, खिचड़ी, चीला, मैचुल और ठठवाणी बनाये जाते हैं। अब युवाओं द्वारा आधुनिक भोजन प्रणाली को वरीयता देने के कारण केवल कुछ ही व्यंजन प्रचलन में हैं। संभावना उत्तराखंड में गहत पूर्णरूप से जैविक अवस्थाओं के अन्तर्गत लगभग 11 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में उगायी जाती है। इससे 11 हजार टन का उत्पादन होता है। यहां गहत की औसत उत्पादकता (10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) प्रमुख उत्पाकद राज्यों से काफी अधिक है, जो इस क्षेत्र की के लिए अनुकूलता को दर्शाती है। पर्वतीय क्षेत्र में इसके कृषकों द्वारा घरेलू उपयोग हेतु उगाया जाता है और बहुत कम मात्रा में बेचा जाता है। प्रतिकूल परिस्थितियों जैसे सूखा के लिए सहनशीलता एवं अनुपजाऊ प्रदर्शन के कारण यह पर्वतीय क्षेत्र की कृषि में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। उपखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में पारंपरिक मिश्रित खेती की लोकप्रिय "बारानाजा अभिन्न घटक है। खरीफ फसल के रूप में गहत जून के अन्तिम सप्ताह में बोई जाती है। यह मध्य अगस्त से मध्य सितंबर तक पुष्पित होती है। उत्तराखंड में इसकी खेती मुख्य रूप 1200 मीटर की ऊंचाई तक की जाती है। यह फसल कम वर्षा वाले क्षेत्रों में अच्छी जल निकासी वाली मृदा तथा मध्यम पी-एच वाली रेतीली हल्की दोमट मृदा में उगने हेतु सक्षम है। जल भराव एवं पाले के लिए पूर्ण रूप से असहिष्णु है। कम लागत में किसी अन्य फसल की अपेक्षा सीमान्त क्षेत्रों में बेहतर परिणाम देने में सक्षम गहत को संसाधनहीन कृषक बहुतायत रूप से उगाते हैं। औषधीय गुण: इसमें औषधीय गुण है। प्राचीनकाल से ही इससे इलाज किया जाता है। इसमें गुर्दे की पथरी को गलाने की अनूठी क्षमता है। यह अल्सर के छालों अमल्ता संबंधी समस्याओं, दमा, ब्रोंकाइटिस एवं फरत के निवारण हेतु उपचारात्मक प्रभाव डालती है। प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला रेशा एवं गर्म तासीर गुण के कारण यह शरीर के मोटापे को कम करने में मदद करती है। मधुमेह एक प्रमुख स्वास्थ्य समस्या है। गहत में न केवल मधुमेहरोधी गुण होते है साथ ही मधुमेह के आहार प्रबंधन के लिए यह फायदेमंद है। इसमें उच्च मात्रा में मौजूद जटिल कार्बोहाइड्रेट रक्त प्रवाह में ग्लूकोज की मात्रा को नियंत्रित कर देते हैं। इसके साथ ही फाइटिक एसिड को उपस्थिति भी स्वयं के एंजाइम पाचन को बाधित करके मधुमेह से सुरक्षा प्रदान करता है। महत में बायोएक्टिव यौगिकों को प्रचुरता के कारण उच्च एंटीऑक्सीडेंट और कैंसररोधी गुण, साथ ही कवक और जीवाणु रोगरोधी गुण भी पाए जाते हैं।

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Agriculture Tips : खेती एवं किसान : सरल तरीके से कैसे करें अलसी का उत्पादन

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calendar01 Dec 2025 08:41 PM
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Agriculture Tips: अलसी एक तिलहनी फसल है। इसके दानों से तेल प्राप्त किया जाता है। इसका व्यापारिक दृष्टि से बड़ा महत्व है। तेल निकालने के बाद बची हुई खली पशुओं के लिये एक पौष्टिक आहार के रूप में काम आती है। इसका उपयोग खाद के रूप में भी किया जाता है। अलसी के बीज अन्य अनाजों के साथ पीसकर खाने में भी प्रयोग किये जाते हैं। इसके बीजों का प्रयोग सुगन्धित तेल तथा अन्य औषधियां तैयार करने में भी किया जाता है। इसके पौधों के तने से प्राप्त रेशा कैनवास, दरी तथा अन्य प्रकार के मोटे कपड़े तैयार करने में प्रयोग किया जाता है। रेशे निकालने के बाद बचे हुए तने का कड़क हिस्सा, सिगरेट में प्रयोग होने वाले कागज बनाने के काम में आता है।

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अलसी के तेल का प्रयोग रंग, पेन्ट्स, अलसी वार्निश और छपाई के लिये प्रयुक्त स्याही तैयार करने के लिये किया जाता है। इसके अतिरिक्त तेल का प्रयोग खाने, साबुन बनाने के लिये तथा कुछ स्थानों पर दीपक जलाने में भी किया जाता है।

क्षेत्रफल एवं वितरण अलसी की खेती अर्द्धउष्ण, समशीतोष्ण और तीव्र जलवायु में भी की जा सकती है। अलसी का क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व में भारत का प्रथम स्थान है, परन्तु उत्पादन की दृष्टि से भारत का चौथा स्थान है। विश्व के अलसी के कुल क्षेत्रफल का 15 प्रतिशत भारत में है। देश में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और राजस्थान अलसी के प्रधान उत्पादक राज्य हैं। अलसी की फसल के लिये काली, भारी एवं दोमट मृदा उपयुक्त होती है। फसल की उत्तम उपज के लिये मध्यम उपजाऊ, दोमट मृदा उत्तम होती है।

उन्नत प्रजातियां बीज के अच्छे अंकुरण व पौधे की बढ़वार के लिये पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा बाद की 3-4 जुताइयां देसी हल या हैरो चलाकर करनी चाहिये। जुताई के बाद पाटा लगाना आवश्यक है।

बीज अलसी के बीज बोने के लिये 15-20 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टर की आवश्यकता पड़ती है। बड़े बीज वाली प्रजातियों में 25-30 कि.ग्रा. व मिश्रित फसल के लिए बीज की मात्रा 8-10 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से आवश्यकता होती है।

बुआई इसकी बुआई 7 अक्टूबर से 13 नवंबर तक की जा सकती है। किन्हीं कारणों से देर होने पर बुआई 31 नवंबर तक भी की जाती है। बिहार व राजस्थान में धान की खड़ी फसल में अगर बुआई करनी है, तो सितंबर के अंत तक बीज छिटककर बुआई कर देनी चाहिये।

[caption id="attachment_52943" align="alignnone" width="719"]Agriculture Tips Agriculture Tips[/caption]

बोने की विधि अलसी की बुआई विभिन्न क्षेत्रों में छिटकवां विधि व पंक्तियों में की जाती है। मध्य प्रदेश में धान की खड़ी फसल में छिटकवा बुआई को 'उतेरा' व बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश में 'पेरा' विधि कहते हैं। पंक्तियों में बुआई करने के लिये, वांछित दूरी पर कूड़ तैयार करके बुआई करते हैं। मिश्रित फसल की बुआई करने के लिये, चने की तीन पक्तियां, गेहूं की 5-8 पंक्तियों के बाद, अलसी की फसल (1-1.5 मीटर के अंतर पर ) पक्तियों में बोई जाती है। शरदकालीन गन्ने की दो पंक्तियों के बीच अलसी की दो पक्तियां उगा सकते हैं। सामान्य अवस्थाओं में बीज बोने की गहराई 3-4 सें.मी. रखते हैं।

खाद पोषक तत्वों की मात्रा का निर्धारण सदैव उस क्षेत्र की मृदा का परीक्षण करवाकर निश्चित करना चाहिये। साधारणतः अलसी फसल को नाइट्रोजन, फॉस्फोरस व पोटाश की मात्रा क्रमश: 80:40:20 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर देनी चाहिये। फॉस्फोरस व पोटाश की मात्रा बुआई के समय व नाइट्रोजन की आधी मात्रा बुआई के समय व आधी पहली सिंचाई पर देने से अधिक लाभ प्राप्त होता है। नाइट्रोजन को अमोनियम सल्फेट द्वारा देने से अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं।

सिंचाई एवं जल निकास देश में अधिकतर क्षेत्रों में अलसी की खेती मुख्यतः वर्षा के ऊपर निर्भर करती है। अलसी की खेती में सिंचाई का महत्व बहुत अधिक है। अगर शरद्कालीन वर्षा न हो, तो पहली सिंचाई 4-6 पत्तियां निकलने पर व दूसरी फूल आते समय करनी लाभदायक है।

निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण बोने के 30-35 दिनों बाद पहली निराई-गुड़ाई की जाती है। इसी समय पंक्तियों में पौधों की छंटाई करके पौधों के बीच का फासला 5-7 सें.मी. कर देते हैं। फसल को खरपतवार से मुक्त करने के लिये 20-25 दिनों बाद दूसरी निराई से कर सकते हैं।

मिश्रित खेती अलसी की फसल चना, जौं व गेहूं के साथ मुख्य रूप से मिश्रित रूप में उगाई जाती है। शरदकालीन गन्ने के साथ इसकी फसल उगाते हैं। रबी की फसल के किनारे भी अलसी की फसल उगाई जाती है।

कटाई, मड़ाई व उपज दाने वाली फसल की कटाई मध्य मार्च से लेकर अप्रैल के प्रारंभ तक होती है। फसल की कटाई करके बंडल खलिहान में लाये जाते हैं। यहां बंडल 4-5 दिनों तक सुखाये जाते हैं। बाद में मड़ाई के लिए मशीन (थ्रेशर) के सहारे दाने अलग कर देते हैं। शुद्ध फसल में दाने की उपज 8-10 क्विंटल, उन्नत प्रजातियों से औसत उपज 15-25 क्विंटल व मिश्रित फसल से 4-5 क्विंटल प्रति हैक्टर तक दाने की उपज प्राप्त होती है।

भण्डारण भण्डारों में रखने से पहले दानों को सुखाकर 10-12 प्रतिशत तक नमी छोड़ी जाती है। नमी की मात्रा अधिक रहने से बीजों के अंकुरण पर बुरा प्रभाव पड़ता है। बीज को 40 डिग्री सेल्सियस तापमान पर काफी दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। इससे अंकुरण पर भी बुरा प्रभाव नहीं पड़ता।

जैविक अलसी उत्पादन के परिणाम

भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान, भोपाल में जैविक पद्धति द्वारा अलसी की खेती की गई। जैविक खादों के रूप में अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद केंचुआ खाद एवं मुर्गी खाद क्रमशः 4 टन, 2.2 टन एवं 1.2 टन प्रति हैक्टर शुष्क भार आधार पर डाली गई। इससे लगभग 80 कि.ग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टर प्राप्त हुई। पौध संरक्षण में इसके लिए मृदा में ट्राइकोडर्मा विरिडी को डाला गया, ताकि मृदाजनित रोगों से फसल को बचाया जा सके एवं 0.03 प्रतिशत नीम तेल का छिड़काव किया गया। कीटों को आकर्षित करने के लिए फेरोमैन ट्रैप लगाया गया। जैविक खेती के परिणाम दर्शाते हैं कि अलसी की प्रति हैक्टर उपज शुरुआती तीन वर्षों में कम हुई। इसके बाद उपज में बढ़ोतरी पाई गयी। यदि किसान उपलब्ध जैविक खादों का प्रयोग करके जैविक अलसी का उत्पादन करें, तो निश्चित ही कुछ ही वर्षों में मृदा गुणवत्ता के साथ-साथ ज्यादा उपज एवं लाभ प्राप्त होगा।

अलसी की उन्नत प्रजातियां

उत्तर प्रदेश : नीलम हीरा. मुक्ता, गरिमा, लक्ष्मी 27 टी 397. के. 2. शिखा, पद्मिनी

पंजाब, हरियाणा : एल.सी. 54. एल. सी. 185 के. 2. हिमालिनी, श्वेता, शुभ्रा

राजस्थान : टी. 397. हिमालिनी, चम्बल, श्वेता, शुभ्रा, गौरव

मध्य प्रदेश : जे.एल. एस. (जे) 1. जवाहर 17 जवाहर 552, जवाहर 7 जवाहर 18. टी. 397. श्वेता, शुभ्रा, गौरव. मुक्ता

बिहार : बहार टी. 397, मुक्ता, श्वेता, शुभ्रा, गौरव

हिमाचल : हिमालिनी, के. 2. एल. सी. 185

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