धर्म-अध्यात्म :नेराश्यं परमं सुखम्!

विनय संकोची
संसार का प्रत्येक व्यक्ति सुख भोग की तृष्णा से ग्रस्त है। सबको सुख चाहिए, सब केवल और केवल सुख ही चाहते हैं। दु:ख को कोई भी अपनाना नहीं चाहता। दूसरों को सुखी देखकर सुख का अनुभव करने वाले विरले ही होते हैं, जबकि दूसरों को दुखी देखकर आनंद का अनुभव करने वाले असंख्य हैं, अगणित हैं। इस सिद्धांत को कोई मानना नहीं चाहता कि दूसरों को सुख प्रदान करने से अपने दु:ख कम होते हैं। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं; क्योंकि जैसे बीज बोते हैं, फल भी वैसे ही मिलते हैं। सुख बांटने से ही सुख प्राप्त होते हैं और दु:ख पहुंचाने से दु:ख।
एक सबसे सीधी लेकिन बड़ी बात है कि कोई भी सांसारिक सुख स्थाई नहीं है, अपना नहीं है। इसका कारण समझ कर भी लोग समझना नहीं चाहते हैं। जब यह संसार ही अपना नहीं है, जब यह संसार हमारे लिए है ही नहीं, तो इस संसार का कोई भी सुख हमारा कैसे हो सकता है। जब यह संसार क्षणभंगुर है, पानी का बुलबुला है, तो इससे मिला कोई सुख कैसे स्थाई हो सकता है। बात विचित्र लग सकती है, बात अस्वीकार्य हो सकती है कि अगर दु:ख नहीं चाहते तो सांसारिक सुखों के पीछे भागना बंद कर दो। सांसारिक सुखों के पीछे दौड़ना दु:खों को निमंत्रण देने के अतिरिक्त कुछ और है ही नहीं।
सबको सुख चाहिए, दु:ख कोई नहीं चाहता, जबकि दिन के उजियारे के बाद घना काला अंधकार प्रकट होता है और अंधकार के बाद प्रकाश आता है। इसे यूं समझा जा सकता है कि सुख अच्छा लगता है, पर स्थाई न होने के कारण उसका परिणाम अच्छा नहीं होता अर्थात् सुख जाने पर कष्ट होता है। इसके विपरीत दु:ख जो बुरा लगता है, उसका परिणाम अच्छा होता है। दु:ख जाने का मतलब सुखों का आगमन ही तो है। फिर क्यों भागते हैं, केवल सुखों के पीछे। इस सत्य को भी हृदय से स्वीकार करना चाहिए कि सुख की इच्छा का त्याग कराने के लिए ही दु:ख आता है और इच्छा का त्याग ही सच्चा सुख प्रदान करता है।
सुख कैसे मिले, केवल यही चाहने वाला, यही चिंतन करने वाला व्यक्ति कर्तव्य से विमुख और पतित हो जाता है। ऐसा व्यक्ति सुख-कामना के वशीभूत हो दु:खों के जंजाल में उलझकर छटपटाने लगता है।
भगवान ने संसार को दु:खालय कहा, असुख बताया। दुःख योनि कहा। भगवान बुद्ध ने दु:ख ही दु:ख बताया। अगर यही सत्य है तो दु:खों के इस महाजंगल में सुख खोजना तो निराशा की बात के अलावा कुछ और माना ही नहीं जा सकता है। एक कष्ट, एक दु:ख के बाद दूसरा कष्ट, दूसरा दु:ख नहीं आएगा, इसी भ्रम में हम सारा जीवन गुजार देते हैं और न जाने कितने दु:खों से मुक्ति की कामना लिए संसार से विदा हो जाते हैं।
सुख और दु:ख मन की स्थिति है। दु:खों से मुक्ति का एकमात्र उपाय है, व्यक्ति संसार से निराश हो जाए। संसार से आशा ही दु:खों का सबसे बड़ा कारण है। सब संसार से कोई आशा ही नहीं रहेगी तो दु:खों से स्वतः छुटकारा मिल जाएगा। इसलिए कहा गया है - नेराश्यं परमं सुखम्। निराशा में ही परम सुख निहित है, यदि आशा छोड़ दें तो सुख ही सुख हो जाए।
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विनय संकोची
संसार का प्रत्येक व्यक्ति सुख भोग की तृष्णा से ग्रस्त है। सबको सुख चाहिए, सब केवल और केवल सुख ही चाहते हैं। दु:ख को कोई भी अपनाना नहीं चाहता। दूसरों को सुखी देखकर सुख का अनुभव करने वाले विरले ही होते हैं, जबकि दूसरों को दुखी देखकर आनंद का अनुभव करने वाले असंख्य हैं, अगणित हैं। इस सिद्धांत को कोई मानना नहीं चाहता कि दूसरों को सुख प्रदान करने से अपने दु:ख कम होते हैं। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं; क्योंकि जैसे बीज बोते हैं, फल भी वैसे ही मिलते हैं। सुख बांटने से ही सुख प्राप्त होते हैं और दु:ख पहुंचाने से दु:ख।
एक सबसे सीधी लेकिन बड़ी बात है कि कोई भी सांसारिक सुख स्थाई नहीं है, अपना नहीं है। इसका कारण समझ कर भी लोग समझना नहीं चाहते हैं। जब यह संसार ही अपना नहीं है, जब यह संसार हमारे लिए है ही नहीं, तो इस संसार का कोई भी सुख हमारा कैसे हो सकता है। जब यह संसार क्षणभंगुर है, पानी का बुलबुला है, तो इससे मिला कोई सुख कैसे स्थाई हो सकता है। बात विचित्र लग सकती है, बात अस्वीकार्य हो सकती है कि अगर दु:ख नहीं चाहते तो सांसारिक सुखों के पीछे भागना बंद कर दो। सांसारिक सुखों के पीछे दौड़ना दु:खों को निमंत्रण देने के अतिरिक्त कुछ और है ही नहीं।
सबको सुख चाहिए, दु:ख कोई नहीं चाहता, जबकि दिन के उजियारे के बाद घना काला अंधकार प्रकट होता है और अंधकार के बाद प्रकाश आता है। इसे यूं समझा जा सकता है कि सुख अच्छा लगता है, पर स्थाई न होने के कारण उसका परिणाम अच्छा नहीं होता अर्थात् सुख जाने पर कष्ट होता है। इसके विपरीत दु:ख जो बुरा लगता है, उसका परिणाम अच्छा होता है। दु:ख जाने का मतलब सुखों का आगमन ही तो है। फिर क्यों भागते हैं, केवल सुखों के पीछे। इस सत्य को भी हृदय से स्वीकार करना चाहिए कि सुख की इच्छा का त्याग कराने के लिए ही दु:ख आता है और इच्छा का त्याग ही सच्चा सुख प्रदान करता है।
सुख कैसे मिले, केवल यही चाहने वाला, यही चिंतन करने वाला व्यक्ति कर्तव्य से विमुख और पतित हो जाता है। ऐसा व्यक्ति सुख-कामना के वशीभूत हो दु:खों के जंजाल में उलझकर छटपटाने लगता है।
भगवान ने संसार को दु:खालय कहा, असुख बताया। दुःख योनि कहा। भगवान बुद्ध ने दु:ख ही दु:ख बताया। अगर यही सत्य है तो दु:खों के इस महाजंगल में सुख खोजना तो निराशा की बात के अलावा कुछ और माना ही नहीं जा सकता है। एक कष्ट, एक दु:ख के बाद दूसरा कष्ट, दूसरा दु:ख नहीं आएगा, इसी भ्रम में हम सारा जीवन गुजार देते हैं और न जाने कितने दु:खों से मुक्ति की कामना लिए संसार से विदा हो जाते हैं।
सुख और दु:ख मन की स्थिति है। दु:खों से मुक्ति का एकमात्र उपाय है, व्यक्ति संसार से निराश हो जाए। संसार से आशा ही दु:खों का सबसे बड़ा कारण है। सब संसार से कोई आशा ही नहीं रहेगी तो दु:खों से स्वतः छुटकारा मिल जाएगा। इसलिए कहा गया है - नेराश्यं परमं सुखम्। निराशा में ही परम सुख निहित है, यदि आशा छोड़ दें तो सुख ही सुख हो जाए।
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