नि:संकोच : गंदगी साफ करने से बचते हैं लोग!

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calendar28 Nov 2025 09:04 AM
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विनय संकोची

आदमी अपने व्यवहार, अपने आचरण और अपने कर्मों से समाज में प्रतिष्ठित होता है, इज्जत कमाता है। आदमी अपनी वाणी के माध्यम से लोगों को अपना बनाता है, लोगों के दिलों में बैठ जाता है। सत्य, सरल, सहज और सात्विक व्यक्ति में किसी को भी अपना बनाने का स्वाभाविक गुण होता है और इस गुण का लाभ उन्हें जीवन पर्यंत मिलता है। इसके विपरीत कटु वचन बोलने वाला, मिथ्यावादी, लंपट, लालची, कपटी और ढोंगी व्यक्ति यदि सोने का भी बन कर आ जाए, तब भी लोग उसे अच्छी नजर से नहीं देखते हैं। इतिहास गवाह है कि आज तक किसी चोर, गिरहकट, बदमाश, अत्याचारी, दुराचारी, विश्वासघाती और धोखेबाज को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा गया है। हां, यदि किसी दुष्ट का वास्तव में हृदय परिवर्तन हुआ है, तो लोगों ने उसे गले लगाया है। गंदगी के पास कोई बैठना पसंद नहीं करता है, लेकिन समाज की सबसे बड़ी कमी है कि कोई गंदगी को साफ भी करना नहीं चाहता है। नाक पर रूमाल रख लेंगे लेकिन गंदगी को साफ करने का साहस नहीं दिखाएंगे। यह हमारे समाज का दुर्भाग्य है।

जब समाचार छपता है कि एक छात्रा ने एक महिला की चेन छीन कर भाग रहे बदमाश को दौड़ाकर पकड़ लिया, तो अच्छा लगता है। जब समाचार प्रकाशित होता है कि किसी महिला ने घर में घुसे तीन बदमाशों का डटकर सामना किया और घायल हो जाने के बावजूद दो बदमाशों को दबोच लिया तो अच्छा लगता है। जब 60 वर्ष का एक बूढ़ा व्यक्ति, व्यापारी को लूट कर भाग रहे बाइक सवार बदमाशों को गिरा कर पकड़ लेता है, तो अच्छा लगता है। जब एक बच्चा पड़ोस वाली आंटी की इज्जत पर हाथ डालने वाले का सिर फोड़ देता है, तो अच्छा लगता है। सच तो यह है कि ऐसे लोग भी बहुत अच्छे हैं, इनका साहस और भी ज्यादा अच्छा है,सराहनीय है। ये सभी सम्मान के अधिकारी हैं।

इसके विपरीत कुछ लोग क्षुद्र स्वार्थों के लिए, जो असत्य का साथ देते हैं, जो किसी की गलती पर पर्दा डालते हैं, जो अपने पर हुए अत्याचार को भुलाने का नाटक करते हैं, जो अन्याय करने वाले को महिमामंडित करते हैं, जो किसी ऐसे व्यक्ति का साथ देते हैं, जिसका स्वभाव ही दूसरों को अपमानित करना हो, नीचा दिखाना हो, जो बेपेंदी के लोटे की तरह लुढ़कते हों, जो अपने डरपोकिया व्यवहार से गलत लोगों की हिम्मत बढ़ाते हैं, वे सब-के-सब समाज के अपराधी हैं। जो स्वयं को महान विभूतियों का अनुयायी बताते हैं और उनके विरुद्ध आचरण करते हैं, वे अपने इष्ट के अपराधी हैं। सीधी सी बात है समाज वैसा बनता है, जैसा अधिकांश लोग आचरण करते हैं और यदि आचरण सुधर जाए तो समाज सुधर जाए।

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Birthday Special: कलम और तलवार दोनों के धनी थे, कृष्ण भक्त रहीम दास!

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calendar17 Dec 2021 03:47 PM
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 विनय संकोची

बिगरी बात बने नहीं लाख करो किन कोय। रहिमन फाटे दूध को मथे न माखन होय।

इसका अर्थ है मनुष्य को सोच समझकर व्यवहार करना चाहिए क्योंकि किसी कारणवश यदि बात बिगड़ जाती है, तो फिर उसे बनाना कठिन होता है। जैसे यदि एक बार दूध फट गया तो लाख कोशिश करने पर भी उसे मथ कर मक्खन नहीं निकाला जा सकेगा। यह दोहा मुगल बादशाह अकबर के नवरत्नों में से एक रहीम दास का है। इनका नाम अब्दुल रहीम खान-ए-खाना है और 17 दिसंबर 1556 को जिनका जन्म लाहौर में हुआ था। रहीम के पिता बैरम खां हुमायूं की सेना में काम करते थे। रहीम के जन्म के समय बैरम खां की आयु 60 वर्ष थी। हुमायूं की मृत्यु के बाद बैरम खां ने मात्र 13 वर्ष की उम्र में अकबर को राज सिंहासन पर बैठा दिया था।

जब बैरम खां सपरिवार हज यात्रा पर गए थे, तब एक अफगानी पठान के द्वारा अकबर ने ही उनकी हत्या करा दी थी। उस समय रहीम की आयु मात्र 5 वर्ष की थी। बाद में अकबर ने रहीम का अपने पुत्र की तरह पालन किया। रहीम को अकबर का सौतेला बेटा भी कहा जाता है, क्योंकि बैरम खां की मौत के बाद अकबर ने बैरम खां की दूसरी पत्नी सईदा बेगम से निकाह कर लिया था।

वर्ष 1573 में अकबर गुजरात में हुए विद्रोह को शांत करने के लिए जिन विश्वस्त सरदारों को लेकर गए थे, उनमें रहीम भी थे। 1576 में रहीम को गुजरात का सूबेदार बना दिया गया। 28 वर्ष के रहीम को अकबर ने खान-ए-खाना की उपाधि से विभूषित किया था, इससे पहले यह सम्मान केवल बैरम खान को ही मिला था।

अब्दुल रहीम खान-ए-खाना अकबर के नवरत्नों में इकलौते थे जिनका कलम और तलवार दोनों पर समान अधिकार था। रहीम मुसलमान होते हुए भी श्रीकृष्ण के परम भक्त थे और हिंदू जीवन को अपने अंतर्मन में धारण किए हुए थे। रहीम दास अपनी काव्य रचना में महाभारत, रामायण, पुराण और गीता जैसे पवित्र हिंदू ग्रंथों को उदाहरण के रूप में उपयोग में लाते थे, जिनसे उनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति की झलक साफ दिखाई देती है। रहीम के दोहे तब भी प्रसिद्ध थे और आज भी प्रसिद्ध और लोकप्रिय हैं। रहीम दास के दोहे शिक्षाप्रद प्रेरणादायक और मनभावन हैं। अपनी रचनाओं में रहीम दास ने खड़ी बोली, पूर्वी अवधी और ब्रज भाषा का प्रयोग किया है। रहीम दास के ग्रंथों में रहीम सतसई, बरवै, सोरठा, भेद, श्रंगार, मदनाष्टक, पंचाध्याई, राग, नगर शोभा, फुटकर छंद, संस्कृत काव्य आदि शामिल हैं।

रहीम दास का एक-एक दोहा एक शिक्षक की भूमिका में साक्षात खड़ा दिखाई देता है। जैसे-

यह रहीम निज संग लै, जनमत जगत न कोई। बैर, प्रीति, अभ्यास, जस होत होत ही होय।। भावार्थ यह कि दुश्मनी, प्रेम, अभ्यास और यश या मान-सम्मान कोई अपने साथ लेकर पैदा नहीं होता, यह सब धीरे-धीरे मनुष्य के आचरण और प्रयासों से क्या अनुसार बढ़ते हैं।

खैर, खून, खांसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान। रहिमन दाबे ना दबे, जानत सकल जहान।। भावार्थ : सात बातें ऐसी हैं, जो किसी के लाख कोशिशों के बावजूद भी गुप्त नहीं रह सकतीं। यह सात बातें हैं - खैर (सेहत), खून (कत्ल), खांसी, खुशी, बैर (शत्रुता), प्रीति (प्रेम) और मदिरापान इन बातों को आप भले ही जाहिर न करें लेकिन यह जाहिर हो ही जाती हैं। जे गरीब पर हित करें, हे रहीम बड़ लोग। कहां सुदामा बापरो, कृष्ण मिताई जोग।।

भावार्थ यह कि जो गरीबों का हित करते हैं, वह बड़े लोग होते हैं। जैसे सुदामा कहते हैं-कृष्ण की मित्रता भी एक साधना है। 1627 ईसवी में 70 वर्ष की अवस्था में कृष्ण भक्त रहीम दास की मृत्यु हुई।

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Literature : नेता को प्रत्येक व्यक्ति वोट नज़र आता है!

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calendar01 Dec 2025 04:57 AM
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 विनय संकोची

जैसे दुकानदार (Shopkeeper ) को सड़क पर चलता हुआ प्रत्येक व्यक्ति ग्राहक नजर आता है, जैसे डॉक्टर को प्रत्येक व्यक्ति बीमार लगता है, जैसे वकील को कचहरी में कदम रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति में क्लाइंट नजर आता है, जैसे पुलिस को देर रात घूम रहे प्रत्येक व्यक्ति में अपराधी दिखाई देता है, जैसे प्रेमी को प्रेमिका में सारा संसार दिखाई देता है, जैसे मनचले को प्रत्येक लड़कियों में प्यार नजर आता है, जैसे कलाकार को प्रत्येक पदार्थ में सौंदर्य दिखाई देता है, जैसे भूखे को चांद में भी तंदूरी रोटी नजर आती है, जैसे भक्तों को कण-कण में भगवान दिखाई देता है, जैसे ब्याज( Interest) पर पैसा देने वाले को हर आदमी 'गरजू' दिखाई देता है, जैसे किसान को प्रत्येक बादल में बरसात नजर आती है, जैसे धर्मगुरु को प्रत्येक व्यक्ति में भावी शिष्य नजर आता है, ठीक उसी प्रकार चुनाव लड़ने की प्रबल इच्छा रखने वाले प्रत्येक नेता को प्रत्येक जाति का, प्रत्येक बालिग व्यक्ति वोट नजर आता है। नहीं मानते हैं तो किसी नेता से पूछ कर मेरे दावे को कंफर्म कर सकते हैं।

कोई भी नेता ब्राह्मण, वैश्य, ठाकुर, यादव, गुर्जर, जाट, मुस्लिम, हरिजन सभी को वोट के रूप में देखता और मानता है। इस बात का प्रमाण यह है कि चुनाव में उतरने वाला प्रत्याशी अधिकांश रूप से जातिगत समीकरण के आधार पर तय होता है। जिस जाति का बाहुल्य उसी जाति का कैंडिडेट, यह अक्सर होता है। इसके उलट भी टिकटों की 'बंटाई' होती है। लेकिन जातियों, धर्म-संप्रदायों को वोट मानने के सच में कहीं कोई बदलाव नजर नहीं होता है।

वोट में ताकत है। वोट प्रतिनिधि चुनती है। वोट एक आम आदमी को खास बनाती है। गली-मोहल्ले से किसी को बाहर निकालकर, वोट ही उसकी प्रदेश-देश में पहचान बनाती है। वोट में सचमुच बहुत ताकत होती है। परंतु इस सब के बावजूद 'वोट' चुनावों के बाद निर्जीव मान ली जाती है। उसे उसके हाल पर छोड़ दिया जाता है। नेताओं के पास राजनीति से फुर्सत नहीं होती कि 'वोट' की तरफ देख सकें। दरवाजे-दरवाजे हाथ जोड़ने वाले नेता, चुन लिए जाने के बाद अपने दरवाजे पर आई 'वोट' से मिलना टाइम वेस्ट समझते हैं। वोट से मिलना हेठी समझते हैं। गद्दी मिलने के बाद 'वोट' के पास से गुजरते नेता ऐसा व्यवहार करते हैं, जैसे गंदगी के पास से गुजरता हुआ इंसान नाक पर रूमाल रख लेता है। गिरगिट की श्रेणी में रखे जाने योग्य नेता चुनाव आने पर फिर से वोटों के घुटने छूते नजर आते हैं। आखिर कब तक हम वोट बने रहेंगे, नेताओं को पालते रहेंगे?