सॉंग अथवा स्वाँग (DRAMA) में लडक़े बनते थे लडक़ी

सॉंग अथवा स्वाँग जिसे अंग्रेजी में DRAMA भी कहते हैं। यह एक भारतीय पुरातन कला है। इन दिनों यह कला धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है। 19वीं शताब्दी में उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों खासतौर से हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सॉंग बेहद लोकप्रिय थे। इस कला को लोकप्रियता की बुलंदियों तक प्रसिद्ध लोक कलाकार व सांगी पंडित लखमीचंद (Pandit Lakhimchand) ने पहुंचाया था। पंडित लखमीचंद हरियाणवी भाषा के प्रसिद्ध कवि व लोक कलाकार थे। उन्होंने अपने 42 वर्ष के जीवन में 100 से भी अधिक किस्सों व कहानियों को सॉंग के रूप में प्रस्तुत किया। उन किस्सों में गाई व बनाई गयी उनकी रागनी आज भी पूरे उत्तर भारत में गाई व सुनी जाती है। सांग के द्वारा किसी पौराणिक किस्से अथवा कहानी को ड्रामे के रूप में स्टेज पर दर्शाया जाता था । उस प्रस्तुति में लड़कियों व महिलाओं के किरदार भी लडक़े व पुरूष ही निभाते थे। वे लडक़े लड़कियों का ऐसा श्रृंगार करते थे कि उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता था।
सॉंग के लिए गांव के बीच किसी खुले स्थान को चुना जाता था। वहीं पर बुग्गी (भैंसा-बुग्गी) से स्टेज तैयार किया जाता था। उस स्टेज के बीचोंबीच वादय यंत्र बजाने वाले कलाकार बैठते थे। उन कलाकारों के चारों तरफ घूम-घूमकर अभिनय करने वाले कलाकार अपने अभिनय कौशल से हजारों की संख्या में एकत्र ग्रामीणों का भरपूर मनोरंजन करते थे। पंडित लखमीचंद के बाद उनके शिष्य पंडित मांगेराम भी प्रसिद्ध सॉंगी हुए। इसके साथ ही चन्द्र बादी, कच्चा श्याम व जाट मेहर सिंह, बाजे भगत एवं दयाचन्द मैयना जैसे सॉंगी प्रसिद्ध हुए हैं।
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सॉंग अथवा स्वाँग जिसे अंग्रेजी में DRAMA भी कहते हैं। यह एक भारतीय पुरातन कला है। इन दिनों यह कला धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है। 19वीं शताब्दी में उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों खासतौर से हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सॉंग बेहद लोकप्रिय थे। इस कला को लोकप्रियता की बुलंदियों तक प्रसिद्ध लोक कलाकार व सांगी पंडित लखमीचंद (Pandit Lakhimchand) ने पहुंचाया था। पंडित लखमीचंद हरियाणवी भाषा के प्रसिद्ध कवि व लोक कलाकार थे। उन्होंने अपने 42 वर्ष के जीवन में 100 से भी अधिक किस्सों व कहानियों को सॉंग के रूप में प्रस्तुत किया। उन किस्सों में गाई व बनाई गयी उनकी रागनी आज भी पूरे उत्तर भारत में गाई व सुनी जाती है। सांग के द्वारा किसी पौराणिक किस्से अथवा कहानी को ड्रामे के रूप में स्टेज पर दर्शाया जाता था । उस प्रस्तुति में लड़कियों व महिलाओं के किरदार भी लडक़े व पुरूष ही निभाते थे। वे लडक़े लड़कियों का ऐसा श्रृंगार करते थे कि उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता था।
सॉंग के लिए गांव के बीच किसी खुले स्थान को चुना जाता था। वहीं पर बुग्गी (भैंसा-बुग्गी) से स्टेज तैयार किया जाता था। उस स्टेज के बीचोंबीच वादय यंत्र बजाने वाले कलाकार बैठते थे। उन कलाकारों के चारों तरफ घूम-घूमकर अभिनय करने वाले कलाकार अपने अभिनय कौशल से हजारों की संख्या में एकत्र ग्रामीणों का भरपूर मनोरंजन करते थे। पंडित लखमीचंद के बाद उनके शिष्य पंडित मांगेराम भी प्रसिद्ध सॉंगी हुए। इसके साथ ही चन्द्र बादी, कच्चा श्याम व जाट मेहर सिंह, बाजे भगत एवं दयाचन्द मैयना जैसे सॉंगी प्रसिद्ध हुए हैं।
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