Wednesday, 4 December 2024

महात्मा फूले तथा बाबा साहेब को समझे बिना अधूरा है भारत का लोकतंत्र , क्या बचेगा संविधान?

Dr. Bhimrao Ambedkar : भारत में लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं। चुनाव जीतने के लिए भारत का हर राजनीतिक…

महात्मा फूले तथा बाबा साहेब को समझे बिना अधूरा है भारत का लोकतंत्र , क्या बचेगा संविधान?

Dr. Bhimrao Ambedkar : भारत में लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं। चुनाव जीतने के लिए भारत का हर राजनीतिक दल तथा छोटा-बड़ा नेता बाबा साहेब डा. भीमराव अंबेडकर का नाम ले रहे हैं। दुर्भाग्य है कि भारत के इन नेताओं तथा दलों को बाबा साहेब की शिक्षा, उनकी दृष्टि, भारत के प्रति उनकी सोच तथा आम आदमी के लिए उनके दर्द का जरा भी ज्ञान नहीं है। भारत के अनेक नेता देखा-देखी ही सही चुनाव में बाबा साहेब के साथ ही साथ भारत के महान सपूत महात्मा ज्योतिराव गोविंदराव फुले का नाम भी ले रहे हैं। भारत के नेताओं को महात्मा फुले के संघर्ष से भी कुछ लेना-देना नहीं है। ऐसे में सवाल उठता है कि भारत का भविष्य क्या होगा ? क्या भारत का संविधान बचेगा ?

कड़वे यथार्थ के भुक्तभोगी भारत के दो पुरोधा

महात्मा फुले की कहानी एक भुक्तभोगी समाज सुधारक की कहानी है, जो अप्रैल में ही चौंसठ साल बाद पैदा हुए डॉ. भीमराव आंबेडकर की कहानी की पूर्व पीठिका है। फुले 1848 में एक ब्राह्मण मित्र की शादी में जातिभेद के कारण अपमानित हुए थे। फुले की मृत्यु 1890 में हुई और ठीक एक साल बाद पैदा हुए आंबेडकर को भी जाति भेद, अस्पृश्यता अपने विकराल रूप में सक्रिय होती मिली। वह स्कूल गए, तो ‘उच्च जाति के हिंदूू बच्चों’ ने साथ बैठने से मना कर दिया। अध्यापक ने कक्षा के बाहर बैठ कर पढऩे की इजाजत दी। कैशियर की नौकरी कर रहे पिता से मिलने गए, तो स्टेशन से सवारी नहीं मिली। स्वयं हांक कर ले जाने की शर्त पर बैलगाड़ी मिली, तो समय पर पहुंच नहीं पाए। बड़ौदरा नरेश के राज्य में वित्त-सचिव बने, तो किराये का मकान नहीं मिला। धर्म/जाति छिपा कर रहे, तो उन्हें बलपूर्वक बाहर निकाला गया। ज्योतिबा फुले ने अस्पृश्यों के लिए जल-कुएं खुलवा दिए। वर्ष 1848 से ही बालिका विद्यालय खोलने की शुरुआत की, और मुंबई प्रेसिडेंसी में मुस्लिम और अस्पृश्य बच्चों के लिए कुल 18 विद्यालय खोलने का रिकॉर्ड बनाया।

सत्य शोधक समाज का गठन

वर्ष 1873 में ‘सत्य शोधक समाज’ का गठन कर, फुले दंपती ने समाज सुधार की रचनात्मक मुहिम छेड़ी। ‘अस्पृश्यता’ और ‘जाति भेद’ के खिलाफ समाज में आत्मसम्मान की चेतना जागृत की। फुले पर तुकाराम चोखामेला, कबीरवाणी और रैदास का प्रभाव था। ब्रिटिश राज की शिक्षा और संस्कृति से स्त्री-पुरुष बराबरी का सबक सीखा। मराठी भाषा के प्रमुख भारतीय लेखक होने के साथ फुले की ख्याति सुधारक के रूप में फैल गई। 1872 में उन्होंने गुलाम गिरी लिखी। यह पुस्तक उतनी ही महत्वपूर्ण थी, जितनी 1948 में प्रकाशित हुई डॉ. आंबेडकर की पुस्तक द अनटचेबल थी। कोलापुर के छत्रपति शाहू महाराज पर भी फुले के सत्यशोधक आंदोलन का प्रभाव पड़ा था। उन्होंने 1902 में ही अपने राज्य की नौकरियों में अस्पृश्य व अति पिछड़ी जातियों के लिए पचास फीसदी आरक्षण की व्यवस्था कर दी थी। बिना शर्त मूकनायक की सहायता करते हुए प्रवेशांक पर ही ढाई लाख रुपये की मदद की।

आधार स्तम्भ बनी सावित्री

सावित्री बाई फुले, ज्योतिबा फुले के साथ 1840 में ब्याह कर आईं। वह उनकी महज पत्नी भर नहीं थी, शिक्षा मिशन को आगे ले जाने वाली आधार स्तंभ थीं। सावित्री बाई के साथ शिक्षिका ‘फातिमा शेख’ को भी याद करना प्रासंगिक होगा। फातिमा मुस्लिम समाज से पहली शिक्षिका थीं, जो सावित्री से तो बड़ी थीं ही, फुले से भी तीन साल बड़ी थीं। आंबेडकर ने फुले से विद्या और सामाजिक सम्मान सीखा, शिक्षा को जाति-धर्म के भेदों से मुक्त उसे शुद्ध मानवीय बनाया। बुद्ध से संगठन सीखा, जो ‘संघ’ के रूप में स्थापित हुए थे। फुले से जो बात विद्या के रूप में गांठ बांधी, आजीवन विद्या को सर्वोपरि महत्व दिया। ज्योतिबा फुले किसान जीवन के अंतर्विरोधों, जमींदारों और भूमिहीन किसानों के संबंधों को बखूबी समझते थे। उन्होंने अपने यथार्थपरक लेखन द्वारा गुलाम को गुलामी का एहसास कराया था।

Dr. Bhimrao Ambedkar

नेताओं का फर्जी प्रेम

वर्तमान में डॉ. आंबेडकर सभी दलों के प्रिय हो गए हैं। कोई उनकी लोकतांत्रिक अवधारणा का पक्ष प्रकट कर रहा है, तो कोई ‘संविधान’ को बचाने की बात कर रहा है। संसदीय लोकतंत्र की चर्चा बिना आंबेडकर की विधिक चेतना-ज्ञान, आशाओं और आशंकाओं को नजर अंदाज करके नहीं की जा सकती। डॉ. आंबेडकर लोकतंत्र के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने दुनिया के कई देशों की अनियंत्रित सत्ताओं के परिणामों से सीखा और समझा था। अंतत: वे जनता द्वारा नियंत्रित सत्ता के प्रस्तावक बने। वह तानाशाही या एकाधिकावादी सत्ता के स्थान पर जनमत से चुनी जाने वाली सत्ता का सम्मान करते थे। वह स्त्री-पुरुष, धनी-निर्धन सभी के मत का मूल्य एक बराबर मानते थे। विचारणीय है कि यदि आज आंबेडकर जीवित होते, तो मौजूदा चुनावी राजनीति पर क्या कहते? ज्ञात हो कि वह पहले चुनाव के परिणामों से ही निराश हो उठे थे। जीवन के आखिरी दिनों में वह भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को लेकर आश्वस्त नहीं थे। उन्हें भय था कि यदि लोकतांत्रिक शिक्षा का अभाव रहा, तो मतदाता को बरगलाया जा सकता है, जो निष्पक्ष चुनाव कराने के सम्मुख एक बड़ी चुनौती के रूप में उपस्थित है।

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