क्या है अरावली पहाड़ी का मामला? 2019 से हो रहा है आंदोलन
अरावली पर्वत के ऊपर सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकृत परिभाषा पर पर्यावरण समूहों ने बड़ी प्रतिक्रिया दी है। पर्यावरण समूहों की मानें तो यह बदलाव अरावली के एक बड़े हिस्से को उसके सुरक्षा-घेरे से बाहर कर सकता है।

Aravalli Hills Dispute : अरावली भारत ही नहीं दुनिया की सबसे पुरानी भूगर्भीय संरचनाओं में से एक है। अरावली पर्वत भारत के चार महत्वपूर्ण राज्यों को आपस में जोड़ता है या यूं कहे कि ये उनकी रोजमर्रा की जिंदगी का एक अहम हिस्सा है। अरावली पर्वत भारत के जिन चार महत्वपूर्ण राज्यों से जुड़ा हुआ है उनमें राजस्थान,हरियाणा, गुजरात और देश की राजधानी दिल्ली मुख्य रूप से शामिल है। हालांकि इसी अरावली पर्वत को लेकर पिछले कई दिनों से भारत के कई राज्यों में हलचल तेज है। अरावली को लेकर हो रही है हलचल की वजह कुछ और नहीं भारत के सर्वोच्च न्यायपालिका सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरावली पर्वत को लेकर दी गई नई परिभाषा को स्वीकार करना है। भारत के सर्वोच्च न्यायलय सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस परिभाषा को स्वीकार किए जाने के बाद से भारत के कई महत्वपूर्ण राज्यों में आंदोलन शुरू हो गए है। अरावली पर्वत के ऊपर सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकृत परिभाषा पर पर्यावरण समूहों ने बड़ी प्रतिक्रिया दी है। पर्यावरण समूहों की मानें तो यह बदलाव अरावली के एक बड़े हिस्से को उसके सुरक्षा-घेरे से बाहर कर सकता है।
अरावली क्या है और विवाद क्यों इतना बड़ा हो गया?
अरावली को दुनिया की सबसे प्राचीन भूगर्भीय धरोहरों में शुमार किया जाता है। यह पहाड़ी राजस्थान से निकलकर हरियाणा, गुजरात और दिल्ली-एनसीआर तक फैला हुआ है और उत्तर-पश्चिमी भारत के पर्यावरणीय संतुलन की रीढ़ भी माना जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार अरावली सिर्फ पहाड़ों की एक शृंखला नहीं, बल्कि वह प्राकृतिक कवच है जो रेगिस्तान के फैलाव को रोकता है, भूजल स्रोतों को पुनर्जीवित करता है, जैव विविधता को संरक्षण देता है और तो और लाखों लोगों की आजीविका से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। हालांकि हालिया विवाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकार की गई नई परिभाषा के बाद से खड़ा हुआ है। इस परिभाषा के तहत आसपास की जमीन से कम से कम 100 मीटर ऊँचाई वाले भू-भाग को ही अरावली पहाड़ी माना जाएगा, जबकि 500 मीटर के दायरे में स्थित दो या उससे अधिक पहाड़ियों और उनके बीच की भूमि को अरावली शृंखला का हिस्सा माना जा सकता है। पर्यावरणविदों का कहना है कि यही “ऊँचाई आधारित कसौटी अरावली की मूल आत्मा पर सवाल खड़े कर रही है और इसी वजह से देशभर में इसका विरोध तेज होता जा रहा है।
लोग सड़कों पर क्यों उतर रहे हैं?
अरावली को लेकर इस हफ्ते गुरुग्राम से उदयपुर तक कई शहरों में अरावली को लेकर शांतिपूर्ण विरोध देखने को मिला। प्रदर्शन में स्थानीय नागरिकों के साथ साथ किसान, पर्यावरण कार्यकर्ता, और कुछ स्थानों पर वकील व राजनीतिक दलों की मौजूदगी ने संकेत दिया कि यह मुद्दा अब सिर्फ पर्यावरण तक सीमित नहीं रहा। प्रदर्शनकारियों की सबसे बड़ी चिंता यह है कि नई परिभाषा लागू होने पर 100 मीटर से कम ऊँचाई वाली कई छोटी-छोटी पहाड़ियाँ अरावली की श्रेणी से बाहर हो सकती हैं। जबकि यही झाड़ियों और प्राकृतिक वनस्पति से ढकी ढलानें रेगिस्तानीकरण रोकने, भूजल रिचार्ज और स्थानीय इको-सिस्टम को बचाए रखने में अहम भूमिका निभाती हैं। उन्हें आशंका है कि परिभाषा के दायरे से बाहर होते ही इन क्षेत्रों में खनन, निर्माण और व्यावसायिक गतिविधियों के लिए रास्ते आसान हो जाएंगे। पर्यावरण समूह पीपल फॉर अरावलीज की संस्थापक सदस्य नीलम आहलूवालिया की माने तो यह बदलाव अरावली की असली उपयोगिता को कमजोर कर सकता है, जो उत्तर-पश्चिम भारत में रेगिस्तान के फैलाव पर ब्रेक, पानी के स्रोतों का पुनर्भरण और लाखों लोगों की आजीविका का आधार है। वहीं पर्यावरण कार्यकर्ता विक्रांत टोंगड़ की दलील और भी तीखी है। उनके मुताबिक अरावली को केवल ऊँचाई के पैमाने से नहीं, बल्कि उसके भूगर्भीय चरित्र, पर्यावरणीय योगदान और जलवायु-संतुलन में भूमिका से परिभाषित किया जाना चाहिए, क्योंकि दुनिया भर में पहाड़ी प्रणालियों की पहचान उनके “कद” से नहीं, उनके काम से होती है।
केंद्र का पक्ष क्या है?
अरावली को लेकर केंद्र सरकार ने अपना पक्ष रखा है। केंद्र सरकार का कहना है कि अरावली को लेकर उठ रही आशंकाओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है और नई परिभाषा का उद्देश्य सुरक्षा घटाना नहीं, बल्कि नियमों को और भी मजबूत करना और देशभर में एकरूपता लाना है। बीते रविवार को जारी बयान में सरकार ने इस मुद्दे पर अपना तर्क दिया। केंद्र सरकार के मुताबिक खनन जैसी गतिविधियों को सभी राज्यों में समान ढंग से नियंत्रित करने के लिए स्पष्ट, वस्तुनिष्ठ और लागू करने योग्य परिभाषा जरूरी थी। केंद्र सरकार की माने तो नई व्यवस्था केवल पहाड़ी चोटी तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके ढलान,आसपास की भूमि और बीच के क्षेत्र भी परिभाषा के दायरे में भी आते हैं, ताकि पहाड़ी समूहों का आपसी पारिस्थितिक संबंध सुरक्षित रहे। इस मुद्दे पर केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने बड़ा ब्यान दिया है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने साफ किया कि यह मान लेना गलत है कि 100 मीटर से कम ऊँचाई वाली हर जमीन पर खनन को हरी झंडी मिल जाएगी। मंत्रालय का दावा है कि अरावली शृंखला के भीतर नए खनन पट्टे नहीं दिए जाएंगे और पुराने पट्टे भी तभी चल सकेंगे जब वे टिकाऊ खनन मानकों का अच्छे से पालन करेंगे। सरकार ने यह भी दोहराया कि संरक्षित वन, पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र और आर्द्रभूमि जैसे अभेद्य इलाकों में खनन पर पूर्ण प्रतिबंध रहेगा। हालांकि कुछ रणनीतिक/परमाणु खनिजों को कानूनन अनुमति वाले अपवाद के रूप में रखा गया है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव के अनुसार 1,47,000 वर्ग किमी में फैली अरावली का केवल करीब 2% हिस्सा ही अध्ययन और आधिकारिक मंजूरी के बाद संभावित रूप से खनन उपयोग में आ सकता है। वही दूसरी तरफ इस मुद्दे पर आंदोलन कर रहे आंदोलनकारी समूहों का कहना है कि वे सरकार की दलीलों से संतुष्ट नहीं हैं और अपना विरोध प्रदर्शन जारी रखेंगे। Aravalli Hills Dispute
Aravalli Hills Dispute : अरावली भारत ही नहीं दुनिया की सबसे पुरानी भूगर्भीय संरचनाओं में से एक है। अरावली पर्वत भारत के चार महत्वपूर्ण राज्यों को आपस में जोड़ता है या यूं कहे कि ये उनकी रोजमर्रा की जिंदगी का एक अहम हिस्सा है। अरावली पर्वत भारत के जिन चार महत्वपूर्ण राज्यों से जुड़ा हुआ है उनमें राजस्थान,हरियाणा, गुजरात और देश की राजधानी दिल्ली मुख्य रूप से शामिल है। हालांकि इसी अरावली पर्वत को लेकर पिछले कई दिनों से भारत के कई राज्यों में हलचल तेज है। अरावली को लेकर हो रही है हलचल की वजह कुछ और नहीं भारत के सर्वोच्च न्यायपालिका सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरावली पर्वत को लेकर दी गई नई परिभाषा को स्वीकार करना है। भारत के सर्वोच्च न्यायलय सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस परिभाषा को स्वीकार किए जाने के बाद से भारत के कई महत्वपूर्ण राज्यों में आंदोलन शुरू हो गए है। अरावली पर्वत के ऊपर सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकृत परिभाषा पर पर्यावरण समूहों ने बड़ी प्रतिक्रिया दी है। पर्यावरण समूहों की मानें तो यह बदलाव अरावली के एक बड़े हिस्से को उसके सुरक्षा-घेरे से बाहर कर सकता है।
अरावली क्या है और विवाद क्यों इतना बड़ा हो गया?
अरावली को दुनिया की सबसे प्राचीन भूगर्भीय धरोहरों में शुमार किया जाता है। यह पहाड़ी राजस्थान से निकलकर हरियाणा, गुजरात और दिल्ली-एनसीआर तक फैला हुआ है और उत्तर-पश्चिमी भारत के पर्यावरणीय संतुलन की रीढ़ भी माना जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार अरावली सिर्फ पहाड़ों की एक शृंखला नहीं, बल्कि वह प्राकृतिक कवच है जो रेगिस्तान के फैलाव को रोकता है, भूजल स्रोतों को पुनर्जीवित करता है, जैव विविधता को संरक्षण देता है और तो और लाखों लोगों की आजीविका से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। हालांकि हालिया विवाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकार की गई नई परिभाषा के बाद से खड़ा हुआ है। इस परिभाषा के तहत आसपास की जमीन से कम से कम 100 मीटर ऊँचाई वाले भू-भाग को ही अरावली पहाड़ी माना जाएगा, जबकि 500 मीटर के दायरे में स्थित दो या उससे अधिक पहाड़ियों और उनके बीच की भूमि को अरावली शृंखला का हिस्सा माना जा सकता है। पर्यावरणविदों का कहना है कि यही “ऊँचाई आधारित कसौटी अरावली की मूल आत्मा पर सवाल खड़े कर रही है और इसी वजह से देशभर में इसका विरोध तेज होता जा रहा है।
लोग सड़कों पर क्यों उतर रहे हैं?
अरावली को लेकर इस हफ्ते गुरुग्राम से उदयपुर तक कई शहरों में अरावली को लेकर शांतिपूर्ण विरोध देखने को मिला। प्रदर्शन में स्थानीय नागरिकों के साथ साथ किसान, पर्यावरण कार्यकर्ता, और कुछ स्थानों पर वकील व राजनीतिक दलों की मौजूदगी ने संकेत दिया कि यह मुद्दा अब सिर्फ पर्यावरण तक सीमित नहीं रहा। प्रदर्शनकारियों की सबसे बड़ी चिंता यह है कि नई परिभाषा लागू होने पर 100 मीटर से कम ऊँचाई वाली कई छोटी-छोटी पहाड़ियाँ अरावली की श्रेणी से बाहर हो सकती हैं। जबकि यही झाड़ियों और प्राकृतिक वनस्पति से ढकी ढलानें रेगिस्तानीकरण रोकने, भूजल रिचार्ज और स्थानीय इको-सिस्टम को बचाए रखने में अहम भूमिका निभाती हैं। उन्हें आशंका है कि परिभाषा के दायरे से बाहर होते ही इन क्षेत्रों में खनन, निर्माण और व्यावसायिक गतिविधियों के लिए रास्ते आसान हो जाएंगे। पर्यावरण समूह पीपल फॉर अरावलीज की संस्थापक सदस्य नीलम आहलूवालिया की माने तो यह बदलाव अरावली की असली उपयोगिता को कमजोर कर सकता है, जो उत्तर-पश्चिम भारत में रेगिस्तान के फैलाव पर ब्रेक, पानी के स्रोतों का पुनर्भरण और लाखों लोगों की आजीविका का आधार है। वहीं पर्यावरण कार्यकर्ता विक्रांत टोंगड़ की दलील और भी तीखी है। उनके मुताबिक अरावली को केवल ऊँचाई के पैमाने से नहीं, बल्कि उसके भूगर्भीय चरित्र, पर्यावरणीय योगदान और जलवायु-संतुलन में भूमिका से परिभाषित किया जाना चाहिए, क्योंकि दुनिया भर में पहाड़ी प्रणालियों की पहचान उनके “कद” से नहीं, उनके काम से होती है।
केंद्र का पक्ष क्या है?
अरावली को लेकर केंद्र सरकार ने अपना पक्ष रखा है। केंद्र सरकार का कहना है कि अरावली को लेकर उठ रही आशंकाओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है और नई परिभाषा का उद्देश्य सुरक्षा घटाना नहीं, बल्कि नियमों को और भी मजबूत करना और देशभर में एकरूपता लाना है। बीते रविवार को जारी बयान में सरकार ने इस मुद्दे पर अपना तर्क दिया। केंद्र सरकार के मुताबिक खनन जैसी गतिविधियों को सभी राज्यों में समान ढंग से नियंत्रित करने के लिए स्पष्ट, वस्तुनिष्ठ और लागू करने योग्य परिभाषा जरूरी थी। केंद्र सरकार की माने तो नई व्यवस्था केवल पहाड़ी चोटी तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके ढलान,आसपास की भूमि और बीच के क्षेत्र भी परिभाषा के दायरे में भी आते हैं, ताकि पहाड़ी समूहों का आपसी पारिस्थितिक संबंध सुरक्षित रहे। इस मुद्दे पर केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने बड़ा ब्यान दिया है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने साफ किया कि यह मान लेना गलत है कि 100 मीटर से कम ऊँचाई वाली हर जमीन पर खनन को हरी झंडी मिल जाएगी। मंत्रालय का दावा है कि अरावली शृंखला के भीतर नए खनन पट्टे नहीं दिए जाएंगे और पुराने पट्टे भी तभी चल सकेंगे जब वे टिकाऊ खनन मानकों का अच्छे से पालन करेंगे। सरकार ने यह भी दोहराया कि संरक्षित वन, पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र और आर्द्रभूमि जैसे अभेद्य इलाकों में खनन पर पूर्ण प्रतिबंध रहेगा। हालांकि कुछ रणनीतिक/परमाणु खनिजों को कानूनन अनुमति वाले अपवाद के रूप में रखा गया है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव के अनुसार 1,47,000 वर्ग किमी में फैली अरावली का केवल करीब 2% हिस्सा ही अध्ययन और आधिकारिक मंजूरी के बाद संभावित रूप से खनन उपयोग में आ सकता है। वही दूसरी तरफ इस मुद्दे पर आंदोलन कर रहे आंदोलनकारी समूहों का कहना है कि वे सरकार की दलीलों से संतुष्ट नहीं हैं और अपना विरोध प्रदर्शन जारी रखेंगे। Aravalli Hills Dispute












