ओडिशा के बालासोर में पिछले दिनों हुए भीषण रेल हादसे के बाद स्थानीय लोगों ने बचाव कार्य में दिन-रात एक करने के साथ ही घायलों के इलाज के लिए रक्तदान (Blood Donation) कर कुछेक घंटों में 900 यूनिट रक्त का इंतजाम कर दिया। इस घटना से इतर एक कड़वा सच यह भी है कि भारत में समय पर खून नहीं मिलने से हर छह मिनट में एक व्यक्ति दम तोड़ देता है। इनमें हादसों में घायलों के साथ ही वे लोग भी शामिल हैं, जिन्हें किसी न किसी कारण से रक्त की जरूरत होती है। दुनिया के सबसे बड़े आबादी वाले देश के लिए यह चिंता की बात है कि यहां कुल आबादी के एक फीसदी के करीब ही लोग रक्तदान (Blood Donation) जैसे महादान का हिस्सा बनते हैं। यानी, 99 फीसदी लोगों की रक्त संबंधी जरूरत का भार इसी एक फीसदी आबादी के कंधों पर है। नतीजतन, रक्त की कमी से होने वाली मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है।
इस साल विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 14 जून को होने वाले विश्व रक्तदान दिवस (World Blood Donation Day) का नारा दिया है- ‘खून दो, प्लाज्मा दो, जीवन बांटो, बार-बार बांटो’। यह नारा न सिर्फ लोगों को रक्तदान के लिए प्रेरित करने वाला है बल्कि, उसकी अहमियत भी बताता है। लेकिन, भारत में यह नारा कितना प्रभावी हो पाएगा यह कहना मुश्किल है। यहां अब तक किए गए प्रयासों के बावजूद रक्त की मांग और आपूर्ति में अंतर को नहीं पाटा जा सका है। मेडिकल जर्नल ‘प्लस वन’ में अप्रैल, 2022 में छपी रिपोर्ट बताती है कि 2021 में देश में रक्त की मांग 1.46 करोड़ यूनिट रही, जबकि रक्तदान के जरिए 1.25 करोड़ यूनिट का ही इंतजाम किया जा सका। इससे पिछले साल भी आपूर्ति का आंकड़ा 1.27 यूनिट रहा। रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में कुल आबादी के 37 फीसदी के करीब लोग रक्तदान करने की स्थिति में है। यह संख्या करीब 50 करोड़ बैठती है। चिंताजनक यह है कि रक्तदान के लिए पात्र लोगों में से महज 10 फीसदी लोग ही नियमित रक्तदान करते हैं। इनके बूते साल भर में करीब सवा करोड़ यूनिट का इंतजाम हो पाता है, जो मांग से करीब 20 लाख यूनिट कम है। रक्त की यह कमी लोगों की जिंदगी पर भारी पड़ रही है।
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कुल मांग में से सबसे ज्यादा 41.2 फीसदी रक्त की जरूरत थैलेसीमिया और सिकल-सेल के मरीजों को पड़ती है। ऐसे मरीजों को साल में कम से कम 60 लाख यूनिट रक्त चाहिए। देश में हर साल तकरीबन 10000 बच्चे थैलेसीमिया की बीमारी के साथ पैदा होते हैं। इससे साल-दर-साल ऐसे मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है और इसी के साथ इस मद में खून की खपत भी बढ़ रही है। ऐसी स्थिति में मांग और आपूर्ति में पहले से ही चल रहे अंतर को पाट पाना तब तक मुमकिन नहीं है, जब तक कि रक्तदाताओं की संख्या में अच्छा-खासा इजाफा न हो जाए। भारत में केवल सर्जरी के लिए ही साल भर में 41 लाख यूनिट रक्त की जरूरत पड़ती है। इनमें विभिन्न रोगों से पीडि़तों के साथ ही एक बड़ी संख्या दुर्घटना में घायल लोगों की होती है। पिछले दशक में भारत में तकरीबन 14 लाख लोग सडक़ दुर्घटनाओं में मारे गए। इनमें से करीब 27 फीसदी लोग सही समय पर पर्याप्त मात्रा में रक्त का इंतजाम नहीं हो पाने से जान गंवा बैठे। प्रसूति एवं स्त्री रोग के लिए सालाना 33 लाख यूनिट और बाल रोग के लिए 12 लाख यूनिट रक्त की जरूरत होती है।
हर मद में साल-दर-साल रक्त की मांग बढ़ रही है। दूसरी ओर, रक्तदाताओं की संख्या बढ़ी तो है लेकिन, मांग और आपूर्ति का अंतर खत्म होने लायक बढ़ोतरी नहीं होना चिंता का विषय है। यूं तो इस अंतर के कई कारण हैं लेकिन, सबसे बड़ा कारण लोगों में रक्तदान को लेकर बेसिर-पैर की भ्रांतियां हैं। रक्तदान से कमजोरी आना, आयरन की कमी होना, ब्लड प्रेशर से जुड़ी समस्या पैदा होना, संक्रमित होने का खतरा, दिमागी संतुलन गड़बड़ाना जैसी ढेरों दकियानूसी भ्रांतियां लोगों के दिल-ओ-दिमाग में बैठी हैं। रक्तदान जागरूकता अभियान भी लोगों के दिमाग से इन भ्रांतियों को नहीं निकाल सके। तमाम स्वास्थ्य संगठनों से लेकर डब्ल्यूएचओ तक न सिर्फ इन भ्रांतियों को सिरे से खारिज करते हैं बल्कि, रक्तदान को सेहत के लिए फायदेमंद बताते हैं। इनका दावा है कि इससे रक्त में आयरन की मात्रा संतुलित होती है, जो हार्ट अटैक और ब्लड कैंसर (Heart Attack and Blood Cancer) के खतरे को कम करती है। रक्तदान से शारीरिक कमजोरी के तर्क में इसलिए दम नजर नहीं आता क्योंकि, शरीर में 24 घंटे के भीतर नया रक्त बनकर कमी पूरी हो जाती है। यह नया खून दिल और दिमाग को नई ऊर्जा देता है, जिससे न सिर्फ शरीर की क्रियाशीलता बढ़ती है बल्कि, दिमाग भी खुद को तरोताजा महसूस करता है। रक्तदान का एक बड़ा फायदा रोग प्रतिरोधक क्षमता बढऩे के रूप में मिलता है। ऐसे तमाम वैज्ञानिक निष्कर्ष हैं, जो रक्तदान से कन्नी काटने वालों के तर्कों को सिरे से खारिज करते हैं। यह निष्कर्ष कहते हैं कि एक स्वस्थ पुरुष हर तीसरे महीने और महिला चार माह में एक बार रक्तदान करें तो उन्हें स्वास्थ्य संबंधी फायदा मिलता है।
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इसमें कोई शक नहीं कि देश में रक्त की कमी के लिए रक्तदान (Blood Donation) के प्रति लोगों की बेरुखी मुख्य रूप से जिम्मेदार है लेकिन, रक्त संग्रहण को लेकर संबंधित संस्थाओं का कुप्रबंधन भी कम दोषी नहीं है। साल 2017 में आरटीआई (RTI) के तहत फाइलों से बाहर आया एक सनसनीखेज सच यह था कि पांच साल में करीब छह लाख लीटर रक्त खराब हो गया। बर्बाद हुए रक्त से 56 वाटर टैंकर भरे जा सकते थे। जो देश पहले से ही रक्त की आपूर्ति की समस्या से जूझ रहा हो, वहां इस तरह की लापरवाही बेहद निराश करने वाली है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर रक्त संग्रहण की समुचित व्यवस्था न होना भी एक बड़ी समस्या है। आंकड़े बताते हैं कि देश के 80 फीसदी स्वास्थ्य केंद्रों पर रक्त संग्रहण के इंतजाम नहीं हैं। इससे न सिर्फ रक्तदान करने की इच्छा रखने वालों को निराश होना पड़ता है बल्कि, इलाज के लिए आने वालों को समय पर रक्त नहीं मिल पाता।
सरकार ने रक्त देने और लेने की प्रक्रिया आसान बनाने की मंशा से साल 2020 में ऑनलाइन प्लेटफॉर्म ‘ई-रक्तकोष’ शुरू किया था। इस बार ग्रामीण क्षेत्रों से रक्तदाता जोडऩे की मुहिम शुरू की है। विश्व रक्तदान दिवस पर देश भर की 2.50 लाख ग्राम पंचायतों में शिविर लगाए जाएंगे। ग्रामीणों को रक्तदान (Blood Donation) के लिए जागरूक करने और शपथ दिलाने की जिम्मेदारी सरपंचों को सौंपी गई है। देखना यह है कि यह कवायद कम से कम दो लाख यूनिट रक्त जुटाने का लक्ष्य पूरा कर पाती है या नहीं। इससे इतर, हर स्वस्थ व्यक्ति को रक्तदान (Blood Donation) अपनी जीवनशैली का हिस्सा बनाना होगा, तभी रक्त की मांग और आपूर्ति के अंतर को पाटकर लोगों का जीवन बचाया जा सकता है। विश्व में सबसे अधिक 203 बार रक्तदान का रिकॉर्ड बनाने वाली कनाडा की 80 वर्षीय जोसफीन मिचलुक भी कहती हैं- ‘किसी व्यक्ति की जान बचाने के लिए रक्त की अधिक जरूरत है। इसलिए रक्तदान करने वाले अधिक से अधिक लोग होने चाहिए।’
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