बिहार में महागठबंधन की करारी हार: राहुल–तेजस्वी की जोड़ी से कहाँ हो गई घातक चूक?

तेजस्वी यादव के बड़े भाई तेज प्रताप ने भी राहुल की टिप्पणी पर तीखा तंज कसते हुए कहा कि “राहुल को छठ का ज्ञान ही नहीं, वे विदेश घूमते हैं।” ऐसे वक्त में जब महागठबंधन को एकजुट संदेश देना चाहिए था, वह खुद अपनी बातों से अपने ही वोट बैंक को असहज करता दिखा। छठ पर की गई यह बयानबाज़ी महागठबंधन के लिए

मुस्लिम–यादव समीकरण की मजबूती के साथ ही कहाँ हुई बड़ी चूक
मुस्लिम–यादव समीकरण की मजबूती के साथ ही कहाँ हुई बड़ी चूक?
locationभारत
userअभिजीत यादव
calendar01 Dec 2025 08:32 PM
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बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे साफ हो चुके हैं और तस्वीर महागठबंधन के लिए बेहद निराशाजनक है। पिछली बार की तरह इस बार भी महागठबंधन करीब 37.2 फीसदी वोट पर ही ठहरा रह गया, जबकि एनडीए ने अपने पुराने लगभग 37.3 फीसदी वोट शेयर में 10 प्रतिशत से ज्यादा का इजाफा करते हुए करीब 47.7 फीसदी वोट बटोर लिए। नतीजा यह हुआ कि 243 में से महागठबंधन सिर्फ 34 सीटों पर सिमट गया, जबकि एनडीए दो सौ से ज्यादा सीटें जीतकर भारी बहुमत के साथ सत्ता में लौट आया। कागज पर मुकाबला कांटे का दिखा, वोट प्रतिशत में फासला उतना बड़ा नहीं था, लेकिन रणनीतिक और राजनीतिक चूकों की वजह से महागठबंधन के वोट सीटों में तब्दील नहीं हो सके। राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की जोड़ी जिस “मोमेंटम” पर भरोसा कर रही थी, वही कई मोर्चों पर लड़खड़ा गई। आइए उन सात बड़ी गलतियों पर नज़र डालें, जिन्होंने महागठबंधन का खेल बिगाड़ दिया।

1. छठ पर राहुल की टिप्पणी उलटी पड़ी

छठ बिहार की आस्था का सबसे बड़ा पर्व है। ऐसे में छठ पूजा के ठीक बाद 29 अक्टूबर को मुजफ्फरपुर की रैली में राहुल गांधी का बयान महागठबंधन के लिए आत्मघाती साबित हुआ। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला बोलते हुए कहा कि मोदी का छठ पूजा से कोई लेना-देना नहीं, वे वोट के लिए मंच पर डांस-ड्रामा भी कर सकते हैं।इस बयान को बिहार में छठ और स्थानीय आस्था के अपमान के तौर पर पेश किया गया। एनडीए के नेताओं ने इसे “बिहार और छठ दोनों का अपमान” बताकर ज़ोरदार प्रचार किया। भाजपा ने इसे राहुल का “हिन्दू विरोधी रवैया” बताया और हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण में इस मुद्दे का भरपूर इस्तेमाल किया। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सार्वजनिक तौर पर चेतावनी दी कि इसकी राजनीतिक कीमत राहुल को चुकानी पड़ेगी। विपक्ष की मुश्किलें यहीं नहीं थमीं। तेजस्वी यादव के बड़े भाई तेज प्रताप ने भी राहुल की टिप्पणी पर तीखा तंज कसते हुए कहा कि “राहुल को छठ का ज्ञान ही नहीं, वे विदेश घूमते हैं।” ऐसे वक्त में जब महागठबंधन को एकजुट संदेश देना चाहिए था, वह खुद अपनी बातों से अपने ही वोट बैंक को असहज करता दिखा। छठ पर की गई यह बयानबाज़ी महागठबंधन के लिए बड़ा नकारात्मक कारक बनी।

2. ‘शहाबुद्दीन जिंदाबाद’ के नारे और जंगल राज की वापसी का डर

तेजस्वी यादव ने मुस्लिम–यादव समीकरण को मजबूत करने के लिए आपराधिक छवि वाले पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा शहाब को आरजेडी में शामिल करवाया। जनवरी में सीवान की रैली के दौरान तेजस्वी ने न सिर्फ शहाबुद्दीन के परिवार के साथ मंच साझा किया, बल्कि भीड़ में उठ रहे ‘शहाबुद्दीन अमर रहें’ जैसे नारों पर चुप्पी भी साधे रखी।

जुलाई 2025 में पार्टी स्थापना दिवस पर भी तेजस्वी ने शहाबुद्दीन को लेकर अपनी बात दोहराई। भाजपा के लिए यह मौका सोने पर सुहागा साबित हुआ। उसने लालू–राबड़ी राज को याद दिलाते हुए इसे “जंगल राज की वापसी” की तस्वीर के रूप में प्रचारित किया। भाजपा सांसद मनोज तिवारी ने तो चुनाव नतीजों के बाद साफ कहा कि “शहाबुद्दीन जिंदाबाद वाले नारों ने ही महागठबंधन की हार लिख दी थी, बिहार की जनता जंगल राज नहीं चाहती।” तेजस्वी जिस साफ-सुथरी, युवा नेतृत्व वाली छवि पर चुनाव लड़ रहे थे, वह इन नारों के शोर में कमजोर पड़ गई।

3. ओवैसी को चरमपंथी बताने की राजनीतिक कीमत

अक्टूबर में AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी पर तेजस्वी यादव की एक टिप्पणी ने सीमांचल की राजनीति का पूरा समीकरण बिगाड़ दिया। महागठबंधन के पक्ष में मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश में तेजस्वी ने ओवैसी को “चरमपंथी” कह दिया। ओवैसी ने तुरंत पलटवार करते हुए इसे मुसलमानों का अपमान करार दिया और चेतावनी दी कि इसकी कीमत तेजस्वी को चुनाव में चुकानी पड़ेगी। राहुल गांधी की चुप्पी और अप्रत्यक्ष सहमति ने भी इस नाराजगी को कम नहीं होने दिया। सीमांचल की रैलियों में ओवैसी ने इस बयान को लगातार मुद्दा बनाया और कहा कि “आरजेडी की नजर में नमाज़ी चरमपंथी हैं।” नतीजा यह हुआ कि मुस्लिम वोट सीमांचल की 24 के करीब मुस्लिम बहुल सीटों पर बंट गए और ओवैसी की पार्टी पांच सीटें जीतने में कामयाब हो गई। लगभग 17 फीसदी आबादी वाले मुस्लिम वोटों का यह बिखराव महागठबंधन के लिए बेहद नुकसानदायक साबित हुआ।

4. टिकट बंटवारे में मुसलमानों की उपेक्षा

आरजेडी की राजनीति मुस्लिम–यादव समीकरण पर टिकी मानी जाती है, लेकिन इस बार टिकट वितरण में मुसलमान खुद को हाशिए पर महसूस करते रहे। आरजेडी को अपने हिस्से में मिली 143 सीटों में से सिर्फ 18 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट मिला, जबकि यादव समुदाय के उम्मीदवारों की संख्या 50 से अधिक रही। नाराजगी यहीं नहीं रुकी। महागठबंधन की प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब मुख्यमंत्री और डिप्टी सीएम पद के चेहरों का ऐलान हुआ, तो 3 फीसदी से भी कम आबादी वाले वीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम चेहरा घोषित कर दिया गया, लेकिन 17 फीसदी मुस्लिम आबादी के लिए कोई स्पष्ट नेतृत्व या चेहरा सामने नहीं रखा गया। यह संदेश गया कि महागठबंधन मुस्लिम वोटों को तो “पक्का बैंक” मानता है, लेकिन निर्णयकारी पदों पर उनकी भागीदारी को तवज्जो नहीं देता। नतीजों में यह नाराजगी साफ झलकी और कई सीटों पर मामूली अंतर से हार महागठबंधन के हिस्से आई।

5. तेजस्वी के समर्थकों की आक्रामक भाषा ने सवर्ण और गैर–यादव ओबीसी को दूर किया

तेजस्वी यादव जहां खुद को एक संतुलित, प्रोग्रेसिव युवा नेता के रूप में पेश कर रहे थे, वहीं उनके कई समर्थकों और कुछ नेताओं की भाषा ने पूरे अभियान की टोन को कठोर और विभाजक बना दिया। सोशल मीडिया और रैलियों में दिए गए आक्रामक बयानों ने सवर्णों और गैर–यादव ओबीसी जातियों में गहरी नाराजगी पैदा की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मां के खिलाफ अमर्यादित टिप्पणियों से लेकर “भूराबाल साफ करो” (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ) जैसे नारे तक – इन सबने यह संदेश दिया कि सत्ता में आने पर आरजेडी का एक हिस्सा बदले की राजनीति पर उतर सकता है। तेजस्वी के समर्थकों की ऐसी भाषा ने उस विस्तारवादी सोशल इंजीनियरिंग को नुकसान पहुंचाया, जिसकी मदद से वे सवर्ण और अन्य ओबीसी वोटरों में भी पैठ बनाना चाहते थे। परिणामस्वरूप, तेजस्वी की सकारात्मक “युवा, काम और बदलाव” वाली छवि इन टेढ़े बोलों के शोर में दबती चली गई।

6. नीतीश कुमार का बार-बार अपमान

जब 2024 लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार ने महागठबंधन छोड़कर एनडीए का दामन थामा, तो तेजस्वी यादव का रुख अचानक बेहद आक्रामक हो गया। रैलियों और बयानों में नीतीश को “बूढ़ा, बीमार और लाचार” मुख्यमंत्री कहकर निशाना बनाया गया। राहुल गांधी और तेजस्वी, दोनों ने अपनी सभाओं में उन्हें “पलटू राम” बताने का सिलसिला जारी रखा। वोटर अधिकार यात्रा के दौरान भी यही लाइन दोहराई गई। लेकिन इसका एक उल्टा असर यह हुआ कि नीतीश के परंपरागत लव–कुश वोटरों (कुशवाहा–कायस्थ–कोइरी–कुर्मियों समेत) और अति पिछड़ी जातियों तक यह संदेश गया कि महागठबंधन उनके लंबे समय से पसंद किए जा रहे नेता का सार्वजनिक अपमान कर रहा है। चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा नेताओं ने यह बात खुलकर कही कि “नीतीश का अपमान, बिहार का अपमान बन गया।” महागठबंधन की रणनीति में यह भावनात्मक पहलू नज़रअंदाज रह गया और इसकी राजनीतिक कीमत उसे चुकानी पड़ी।

7. तेज प्रताप का निष्कासन और यादव वोटों में सेंध

आरजेडी की परेशानियां परिवार के भीतर से भी सामने आईं। तेजस्वी के बड़े भाई तेज प्रताप यादव को पिता लालू प्रसाद यादव ने चुनाव से पहले ही पार्टी और परिवार, दोनों से छह साल के लिए निकाल दिया। यह सिर्फ संगठनात्मक कार्रवाई नहीं थी, बल्कि जनता के सामने यह संदेश भी गया कि जो व्यक्ति अपने ही घर-परिवार को साध नहीं पा रहा, वह पूरे राज्य को कैसे संभालेगा। तेज प्रताप ने इसके बाद ‘जनशक्ति जनता दल’ नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली और महुआ से आरजेडी के खिलाफ चुनाव लड़ा। वे सीट तो नहीं जीत सके, लेकिन कई इलाकों में उम्मीदवार उतारकर यादव वोटों में सेंध लगाने का काम किया। हार के बाद तेज प्रताप ने तंज करते हुए कहा, “तेजस्वी फेलस्वी हो गए।” यह बयान भले ही बाद में आया हो, लेकिन चुनाव के दौरान यादव समाज के भीतर पड़ी यह दरार महागठबंधन के लिए घातक साबित हुई। जहां-जहां यादव वोटों में बंटवारा हुआ, वहां महागठबंधन की जीत मुश्किल होती चली गई।

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बिहार में आएगी निवेश की बहार, जुगलबंदी से बढ़ रही उम्मीदें

सड़क परियोजनाओं पर ही 54 हजार करोड़ रुपये से अधिक के निवेश का अनुमान है। अगर ये योजनाएं तय समयसीमा में जमीन पर उतरती हैं, तो बिहार की भौतिक संरचना आने वाले वर्षों में पूरी तरह बदलती दिख सकती है।

पीएम–सीएम की संयुक्त रणनीति पर टिकी बिहार के युवाओं और किसानों की नजर
पीएम–सीएम की संयुक्त रणनीति पर टिकी बिहार के युवाओं और किसानों की नजर
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userअभिजीत यादव
calendar01 Dec 2025 02:33 PM
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बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए की धमाकेदार जीत के बाद अब असली फोकस सत्ता की कुर्सी से ज्यादा विकास के एजेंडे पर टिक गया है। केंद्रीय गृह मंत्री की मानें तो राज्य में करीब ₹1.8 लाख करोड़ का निवेश आने वाला है, जिसके तहत 25 नई चीनी मिलों की स्थापना की बात कही जा रही है। इसी बीच अदाणी ग्रुप ने भी ‘मुंगेर–सुल्तानगंज रोड’ प्रोजेक्ट के जरिए बिहार में अपनी सक्रिय मौजूदगी दर्ज करा दी है। ऊपर से एक करोड़ नौकरी, सात एक्सप्रेसवे और ‘लखपति दीदी’ जैसी योजनाओं के वादे – तस्वीर साफ है कि अब जनता इन घोषणाओं के जमीन पर उतरने का इंतज़ार कर रही है।

डबल इंजन को मिला मजबूत जनादेश

इस चुनाव में एनडीए गठबंधन ने 202 सीटों पर बढ़त और जीत दर्ज कर यह साफ कर दिया कि मतदाताओं ने एक बार फिर ‘डबल इंजन’ मॉडल पर भरोसा जताया है। बीजेपी की 89 और जेडीयू की 85 सीटों वाले इस समीकरण ने नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जोड़ी को विकास का एक आक्रामक रोडमैप पेश करने का मौका दिया है। अब चुनौती यह है कि चुनावी मंच से किए गए बड़े-बड़े वादे सिर्फ कागजों पर न रह जाएं, बल्कि आम लोगों के जीवन में ठोस बदलाव के रूप में दिखाई दें। क्योंकि जनता ने यह जनादेश सिर्फ सरकार बदलने के लिए नहीं, बल्कि बिहार की किस्मत बदलने की उम्मीद से दिया है।

युवाओं के लिए रोजगार का नया रोडमैप

बिहार के युवा इस चुनाव में एनडीए की जीत के सबसे बड़े हिस्सेदार माने जा रहे हैं। गठबंधन ने अपने विजन डॉक्यूमेंट में एक करोड़ से अधिक नौकरी और रोजगार के अवसर सृजित करने का दावा किया है।हर जिले में मेगा स्किल सेंटर खोलने की योजना है, ताकि बिहार के युवाओं को देश और विदेश दोनों के लिए ‘स्किल्ड वर्कफोर्स’ के रूप में तैयार किया जा सके। विचार यह है कि राज्य को ‘ग्लोबल स्किलिंग हब’ की दिशा में आगे बढ़ाया जाए, जिससे पलायन करने वाला युवा अब रोजगार के लिए अपने ही राज्य में विकल्प तलाश सके। उद्योगों के मोर्चे पर भी सरकार ने हर जिले में आधुनिक मैन्युफैक्चरिंग यूनिट और 10 नए औद्योगिक पार्क स्थापित करने की बात कही है। गृह मंत्री के दावे के मुताबिक, ₹1.80 लाख करोड़ के अनुमानित निवेश के साथ 25 नई चीनी मिलें लगाने की तैयारी है। इसके साथ कौशल जनगणना के बाद युवाओं को उनके हुनर के मुताबिक रोजगार देने का वादा किया गया है, यानी लक्ष्य सिर्फ नौकरी देना नहीं, बल्कि ‘राइट स्किल–राइट जॉब’ मॉडल पर काम करना है।

इंफ्रास्ट्रक्चर से बदलेगी बिहार की सूरत

किसी भी राज्य की अर्थव्यवस्था को ‘सुपर इकोनॉमी’ की दिशा में ले जाने के लिए मजबूत इंफ्रास्ट्रक्चर रीढ़ की हड्डी का काम करता है। एनडीए ने इस मोर्चे पर भी कई बड़े और महत्वाकांक्षी वादे किए हैं।

सात नए एक्सप्रेसवे

चार शहरों में मेट्रो सेवा

3600 किलोमीटर रेल ट्रैक का आधुनिकीकरण

10 नए शहरों को घरेलू हवाई सेवा से जोड़ने की योजना

इसके साथ ही पटना के पास एक ग्रीनफील्ड इंटरनेशनल एयरपोर्ट विकसित करने का वादा किया गया है। पूर्णिया, भागलपुर और दरभंगा को भी अंतरराष्ट्रीय हवाई कनेक्टिविटी के नक्शे पर लाने की तैयारी की जा रही है। सड़क परियोजनाओं पर ही 54 हजार करोड़ रुपये से अधिक के निवेश का अनुमान है। अगर ये योजनाएं तय समयसीमा में जमीन पर उतरती हैं, तो बिहार की भौतिक संरचना आने वाले वर्षों में पूरी तरह बदलती दिख सकती है।

अदाणी ग्रुप की एंट्री

गौतम अदाणी के नेतृत्व वाला अदाणी ग्रुप भी अब बिहार में सीधे तौर पर दांव खेल रहा है। अदाणी एंटरप्राइजेज लिमिटेड ने “मुंगेर सुल्तानगंज रोड लिमिटेड” नाम से एक फुली सब्सिडियरी कंपनी बनाई है। यह कंपनी हाइब्रिड एन्युटी मोड पर ‘मुंगेर (सफियाबाद) बरियारपुर घोरघाट सुल्तानगंज रोड को जोड़ने वाले गंगा पथ’ के विकास, प्रबंधन और रखरखाव की जिम्मेदारी संभालेगी। यह कदम संकेत देता है कि देश के बड़े कॉरपोरेट हाउस अब बिहार को गंभीर निवेश गंतव्य के रूप में देखने लगे हैं। निजी क्षेत्र की यह भागीदारी अगर बढ़ी, तो रोजगार, स्थानीय व्यापार और सप्लाई चेन के स्तर पर बड़ा बदलाव संभव है।

गरीब, किसान और महिलाओं के लिए ‘पंचामृत गारंटी’

सरकार ने गरीब और वंचित वर्ग के लिए जो सामाजिक सुरक्षा ढांचा घोषित किया है, उसे “पंचामृत गारंटी” के रूप में पेश किया जा रहा है। इसमें

– मुफ्त राशन

– 125 यूनिट तक मुफ्त बिजली

– 5 लाख रुपये तक का मुफ्त इलाज

जैसी सुविधाएं शामिल हैं। यह सीधे तौर पर उन परिवारों को राहत देने की कोशिश है, जिनकी रोजमर्रा की ज़िंदगी महंगाई और अनिश्चित आय की मार झेल रही है।

महिला सशक्तिकरण पर भी सरकार ने खास जोर दिया है। मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत महिलाओं को दो लाख रुपये तक की वित्तीय सहायता देने की बात कही गई है। इसके साथ ही एक करोड़ महिलाओं को ‘लखपति दीदी’ बनाने का लक्ष्य रखा गया है, यानी महिलाओं को खुद–रोजगार, स्वरोजगार और छोटे उद्यमों के जरिए आर्थिक रूप से मजबूत करने की योजना है।

किसानों के लिए नई योजनाएं और निवेश

किसान मोर्चे पर सरकार ने कर्पूरी ठाकुर किसान सम्मान निधि योजना के तहत किसानों को सालाना तीन हजार रुपये देने की घोषणा की है। इसके अलावा, सभी प्रमुख फसलों की पंचायत स्तर पर MSP पर खरीद सुनिश्चित करने, प्रखंड स्तर पर फूड प्रोसेसिंग यूनिट लगाने, और एग्री इंफ्रास्ट्रक्चर में एक लाख करोड़ रुपये तक का निवेश करने का वादा किया गया है। अगर एमएसपी पर प्रभावी खरीद और फूड प्रोसेसिंग यूनिट की स्थापना समय पर हो पाती है, तो किसानों की आय में वास्तविक बढ़ोतरी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में नकदी प्रवाह देखने को मिल सकता है।

BIADA के जरिए जिलों में उद्योगों की नई कोशिश

बिहार औद्योगिक क्षेत्र विकास प्राधिकरण (BIADA) भी नए निवेशकों को लगातार प्लेटफॉर्म देने की कोशिश कर रहा है। उदाहरण के तौर पर, मुजफ्फरपुर जैसे जिलों में नमकीन, मिनरल वाटर, बिस्किट, आटा और अन्य घरेलू उत्पादों की 27 नई इंडस्ट्रियल यूनिट को जमीन आवंटित की गई है। इन यूनिट्स में करीब 18 करोड़ रुपये का निवेश प्रस्तावित है।

ऐसी छोटी लेकिन महत्वपूर्ण औद्योगिक परियोजनाएं स्थानीय स्तर पर रोजगार, सप्लाई चेन और छोटे व्यापारियों के लिए नए अवसर पैदा कर सकती हैं।

वादों की रफ्तार और नतीजा

कुल तस्वीर देखें तो मोदी–नीतीश की नई पारी खुद को सिर्फ ‘सत्ता प्रबंधन’ तक सीमित न रखकर, ‘इकोनॉमिक ट्रांसफॉर्मेशन’ की कहानी के रूप में पेश करने की कोशिश कर रही है। बड़े निवेश, रोजगार के दावे, इंफ्रास्ट्रक्चर की लकीरें, किसानों–महिलाओं–गरीबों के लिए योजनाएं – कागज पर सब कुछ दमदार दिखता है।

लेकिन बिहार की राजनीति और प्रशासन, दोनों ने पहले भी वादों और हकीकत के बीच की दूरी देखी है। अब पूरा राज्य यही देखना चाहता है कि यह जुगलबंदी इन घोषणाओं को फाइलों से बाहर निकालकर ज़मीन पर कितनी तेजी और पारदर्शिता के साथ उतार पाती है। अगर ये वादे समय पर पूरे हुए, तो आने वाले वर्षों में बिहार की आर्थिक कहानी वाकई नई दिशा पकड़ सकती है।

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बिहार के ‘टाइगर’ ने कैसे किया एनडीए को मात, जानिए नीतीश की सफलता के राज

इस चुनावी नारे ‘टाइगर अभी ज़िंदा है’ ने साबित कर दिया कि नीतीश कुमार की राजनीतिक ताकत और विश्वसनीयता आज भी बरकरार है। उनकी वापसी ने न केवल जेडीयू को पुनः एक मजबूत पार्टी बना दिया, बल्कि यह भी दर्शाया कि बिहार की राजनीति में स्थिरता, प्रशासनिक निरंतरता और सामाजिक समावेशिता को प्राथमिकता दी जा रही है।

Tiger is still alive, Nitish Kumar poster
टाइगर अभी ज़िंदा है ​नितिश कुमार पोस्टर (फाइल फोटो)
locationभारत
userऋषि तिवारी
calendar30 Nov 2025 08:03 PM
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बता दे कि बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के मतगणना रुझानों ने न केवल एनडीए की जीत का संकेत दिया, बल्कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) की शानदार वापसी को भी उजागर किया है। जहां एक ओर भाजपा 92 सीटों पर आगे चल रही थी, वहीं जेडीयू ने 82 सीटों पर अपना दबदबा बना लिया और चुनावी मैदान में एक निर्णायक ताकत के रूप में उभरी। यह परिणाम 2020 के चुनाव में जेडीयू की केवल 45 सीटों तक सीमित रहने और इससे पहले की कमजोर उम्मीदों के मुकाबले एक बड़ा उलटफेर है।

नीतीश कुमार का कड़ा राजनीतिक संघर्ष

नीतीश कुमार, जिन्हें ‘सुशासन बाबू’ के रूप में जाना जाता है, चुनाव से पहले अपनी सबसे कठिन राजनीतिक परीक्षा से गुजर रहे थे। लगभग दो दशकों तक सत्ता में रहने के बाद, उनके खिलाफ सत्ता विरोधी लहर, राजनीतिक थकान और गठबंधन में कमजोरी की भविष्यवाणियां की जा रही थीं। मतदाताओं में उनके शासन से ताजगी की उम्मीद जताई जा रही थी, लेकिन रुझानों ने यह साबित कर दिया कि नीतीश की राजनीतिक ताकत अभी भी कायम है।

चुनाव से पहले उनकी स्वीकार्यता 2020 में 37% से गिरकर 16-25% के बीच रह गई थी, और यह माना जा रहा था कि भाजपा की ताकत ही एनडीए को जीत दिलाएगी। हालांकि, जेडीयू और भाजपा के बीच बराबरी की सीटों के समझौते के बावजूद, नीतीश की राजनीतिक विश्वसनीयता ने सभी संदेहों को गलत साबित कर दिया।

नीतीश की स्थायिता और राजनीतिक लचीलापन

चुनाव में नीतीश कुमार की वापसी इस बात का प्रमाण है कि उनकी व्यक्तिगत विश्वसनीयता अभी भी मजबूत है। भाजपा के रणनीतिकारों ने जेडीयू के इस स्तर की वापसी की उम्मीद नहीं की थी। नीतीश ने शासन-प्रथम नेता के रूप में अपनी छवि बनाए रखी है और उनकी उम्र, स्वास्थ्य या राजनीतिक थकान के बावजूद, मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग उन्हें समर्थन देने के लिए तैयार था।

जेडीयू की सफलता के प्रमुख कारण

नीतीश कुमार की राजनीति में कई महत्वपूर्ण कारणों ने काम किया। सबसे प्रमुख थी उनकी जातिगत संतुलन और सामाजिक सद्भाव की नीति। जेडीयू की पकड़ हिन्दू सवर्ण, कुशवाहा, पासवान, मुसहर और मल्लाह जैसी जातियों में मजबूत रही, और मुस्लिम मतदाताओं के बीच भी उनका अच्छा समर्थन था। इसके अलावा, नीतीश कुमार ने महिला मतदाताओं के बीच अपने कल्याणकारी कार्यक्रमों जैसे ‘महिला रोजगार योजना’ के जरिए अपनी लोकप्रियता बढ़ाई।

भाजपा के रणनीतिकारों का आकलन गलत साबित हुआ

भले ही 2020 में भाजपा के वोट शेयर में गिरावट आई थी और सीटों की संख्या भी घट गई थी, लेकिन भाजपा के रणनीतिकारों ने कभी नहीं सोचा था कि नीतीश की लोकप्रियता इतनी तेज़ी से वापस लौटेगी। उनके नेताओं ने यह उम्मीद की थी कि नीतीश को मोदी की लोकप्रियता के सामने खड़ा कर पाना मुश्किल होगा, लेकिन नतीजों ने सबको हैरान कर दिया।

सत्ता विरोधी लहर के बावजूद नीतीश की स्थिरता

नीतीश कुमार के लिए यह चुनावी मुकाबला सिर्फ व्यक्तिगत राजनीति का नहीं था, बल्कि यह बिहार के शासन मॉडल, उनकी कल्याणकारी योजनाओं और प्रशासनिक अनुभव का भी परीक्षण था। सत्ता विरोधी लहर के बावजूद, मतदाताओं ने निरंतरता, प्रशासनिक क्षमता और जातिगत समावेशिता की नीतीश की शैली को प्राथमिकता दी। इस चुनावी परिणाम ने यह स्पष्ट कर दिया कि नीतीश की राजनीतिक लचीलापन और विश्वसनीयता अब भी प्रासंगिक हैं।