Special Story : सबकुछ बदल चुका है, अब कुछ भी पहले सा नहीं। लोग, विचार, भाषा, प्रकृति, प्यार, नफरत, विश्वास , अविश्वास, दिन-रात, सुबह-शाम सबकुछ। कम्बख्त भोला मासूम सा बचपन भी। अब वो गलियों में लुका-छिप्पी नहीं खेला करता। अब आंगन के आगे भागते बच्चों का शोर सुने हुए एक अरसा हो गया है। मेरे आंगन पर पड़ती धूप भी बड़ी इमारतों के आगे हार चुकी। रौशनदान में बने घोंसले की चिड़िया जाने कहां चली गई रूठ कर।
Special Story :
पल्यूशन बढ़ गया है, बीमारियां घर कर चुकी हैं, शिकायतें बढ़ने लगी हैं, रवायतें मिटने लगीं हैं, लोग परेशान से रहने लगे हैं, एक अलग ही भगदड़ सी मचने लगी है। जाने इतनी जल्दी कहां पहुंचना है और कहां से आना है। भीड़ बढ़ती जा रही है लोग गाड़ियो की रफ्तार से दोड़ रहे हैं, अब हवा में प्लेन कम लोगों की सोच ज़्यादा उड़ने लगी है। वो सिर्फ हवा से बतियताते हैं, एक दूजे से बात करने का वक्त ही कहां।
अब पड़ोस की बूढ़ी काकी ऐतवार की सुबह मोहल्ले के चौक पर अपने भूरे बालों को नहीं संवारा करती, अब बच्चों को भी फुरसत नहीं कि उसको अपने छेड़ने के खेल में शामिल करें, उनका बचपन घर की सीलन में मोबाइल की सक्रीन ताक रहा है, अब वो एक रूपये के गुब्बारे के लिए फर्श पर रो रो कर सिर नहीं पटकते। वो अब समझदार हैं, हमारे बचपन से बुद्धू नहीं। अब उनका बचपन घर के पिछवाड़े के रहस्य नहीं तलाशता, अब वो स्कूल के बाद सीधा ट्यूशन जाते हैं और होम वर्क कर, थक कर सो जाते हैं। अब बच्चे थकने लगे हैं।
बात अगर प्यार की करें तो वो भी अब लेन-देन का सौदा सा बन गया है। रोज़ डे, किस डे, चाॅकलेट डे, सबसे बढ़कर वैलेनटाईन्स डे, पर प्यार का एक भी डे नहीं। अजी वो होता क्या है? कहने भर का एक शब्द जिसके कोई मायने नहीं। अब प्यार छज्जों से उतरक सड़कों पर आ गया है, अजी! खुल्लम खुल्ला! वैसे कुछ गलत नहीं पर छिप छिपाके इश्क फरमाने का अपना ही मज़ा था। अब इश्क में मुश्क की कमी है, दरअसल इश्क में शिद्दत, हया, हिफाज़त, तसल्ली, इंतज़ार, इज़हार फिर इकरार, दर्द, आंसू, मिलन, जलन, फिक्र और ज़िक्र की कंगाली का दौर है। अब इश्क और दोस्ती वट्स ऐप का स्टेटस बनकर रह गई है या साल भर का इश्क वैलेनटाइन्स डे पर एक गुबार की तरह बाहर आता है, जैसे जाम गटर आज खुला हो! दत्त! ये भी क्या मोहब्बत है, एक दफा दादा जी से पूछो उनके वाला इश्क! कसम से खुदपर लानत भेजोगे।
Chetna Manch Kavita – धार निर्झर की तिरोहित हो नदिया में
गीतों की मिठास भी इश्क की तरह फीकी हो चली है। अब लड़की ब्यूटीफुल चुल करती है। अब चांद आहें नहीं भरता अब फूल भी दिल नहीं थामते। एक नया ट्रैंड और चल पड़ा है “सरकारी नौकरी” हर नौजवान इसके लिए कुछ भी कर गुज़रने को तैयार है। भूख प्यास भूलकर, सब छोड़-छाड़ कर कम्पटीशन की पढ़ाई चल रही है, कोचिंग्स की दुकाने खुली पड़ी हैं सड़कों के खंभों पर लगे बड़े-बड़े बैनर 3 महीने में कम्पटीशन क्रैक करवाने के दावे ठोकते हैं। जैसे कोई अल्लादीन का चिराग हो। स्टूडेंट्स भी उस चिराग को घिस रहे हैं पर जिन्न न जाने कहां सोया पड़ा है? आज की पढ़ाई सिर्फ सरकारी नौकरी तक सिमटकर रह गई है। स्कूल में हमें पढ़ाते वक्त ये नहीं बताया गया था कि सरकारी नौकरी भी करनी है, हमें तो सिर्फ पढ़ाया गया था। कुछ और बाद में पहले नौकरी वो भी सरकारी। चलो नौकरी तो पाई पर क्या ही कुछ खोया क्या मालूम? जिस रास्ते से रोज़ गुज़रे उस फुटपाथ से गुज़रे किसी पुराने दोस्त को खोया, उस रास्ते पर लहलहाते पेड़ों की हवाएं खोई, किसी से नज़रें तक न मिला सके, कोई नया पेंच न भिड़ा सके, घर आंगन में आती धूप को भूल ही गए, पैसा तो कमाया पर क्या रिश्ते कमाए? आखरी बार दोस्तों से वही पुराने किस्से कब साझा किये कुछ मालूम है? बड़े समझदार हो यार! जीने की रेस में जीना ही भूल गए, न जाने कितनी बार बिज़ी हो कहकर बिज़ी रहे ऐसा क्या हुआ जो सांस भी गिनकर लेते हो, तुम्हारी ही ज़िंदगी है कोई उधारी का राशन नहीं जो सोच समझकर खर्च कर रहे हो। लैपटॉप पर आॅनलाईन क्लासेज़ भी बहुत लीं यार ज़रा फुरसत पाओ दुनिया कम्प्यूटर की स्क्रीन से बहुत बड़ी है।
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ज़रा मिलो कभी एक दफा वक्त गंवाकर भी देखो वहीं स्कूल के पीछे वाले पार्क में बैठेंगे, सर्दी बहुत है कुछ देर धूप सेकेंगे मैं बाकियों को भी बुलाता हूं तुम ज़रूर आना। अरे यार दो घंटे में न कुछ घिस रहा पर जो न आए तो बहुत कुछ मिस कर दोगे अब आखरी बार है तुम्हें बहुत बुलाया फिर न बुलाएंगे आओ यार धूम मचाएंगे। टालम टूल इस बार नहीं। चलो कहो तो उसे भी बुला लूं जिसके पीछे न जाने कितनी कविताएं लिख डालीं थीं, उसे बुला लूंगा कोई नई कविता फिर लिख लो। देखो अब इनकार न करना। समझो यार!
अरे छोड़ो यार तुम न समझोगे!
आकाश