वोटर वेरिफिकेशन पर सियासी घमासान! विपक्ष को किस बात की है चिंता?

Bihar Voter Verification : बिहार में आगामी विधानसभा चुनावों से पहले वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) को लेकर जबरदस्त सियासी बवाल खड़ा हो गया है। जहां चुनाव आयोग इसे एक जरूरी और नियमित प्रक्रिया बता रहा है, वहीं विपक्ष इसे लोकतंत्र पर हमला और गरीब-अल्पसंख्यकों को मताधिकार से वंचित करने की साजिश करार दे रहा है। यह मुद्दा अब सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर पहुंच चुका है, जहां 10 जुलाई को सुनवाई होनी है।
क्या है यह विवाद और कैसे बना राजनीतिक तूफान?
भारत निर्वाचन आयोग हर चुनाव से पहले मतदाता सूची को अद्यतन करता है, ताकि मृत या फर्जी नाम हटाए जा सकें और नए पात्र मतदाताओं को जोड़ा जा सके। बिहार में इस बार यह प्रक्रिया 22 वर्षों के बाद विशेष रूप से गहन रूप में की जा रही है। कुल 7.89 करोड़ मतदाताओं के दस्तावेजों की जांच की जा रही है, जिनमें आधार, जन्म प्रमाणपत्र, 1987 से पूर्व के राशन कार्ड, या माता-पिता के जन्म संबंधी दस्तावेज शामिल हैं। आयोग का तर्क है कि यह कदम पारदर्शिता और विश्वसनीयता को सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है। लेकिन विपक्ष को इस प्रक्रिया की मंशा पर संदेह है।
विपक्ष का आरोप: यह ‘वोटबंदी’ है
राजद, कांग्रेस और AIMIM जैसे दलों ने इस प्रक्रिया पर कड़ा ऐतराज जताया है। राजद नेता तेजस्वी यादव ने इस कवायद को ‘वोटबंदी’ करार देते हुए कहा है कि यह गरीब, दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक वर्गों के मतों को समाप्त करने की सुनियोजित रणनीति है।
AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने इसे ‘नागरिकता प्रमाणन की आड़ में मताधिकार छीनने की कोशिश’ बताया।
विपक्ष के मुख्य आपत्ति बिंदु
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समय की कमी: चुनाव निकट हैं और इतनी बड़ी आबादी के दस्तावेजों की जांच एक-दो महीनों में निष्पक्षता से संभव नहीं।
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दस्तावेजों की पेचीदगी: गांवों, खासकर आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के पास पुराने दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं।
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अस्थिर दिशा-निर्देश: पहले दस्तावेज जमा करने की छूट की बात हुई, फिर 25 जुलाई की अनिवार्य समयसीमा घोषित कर दी गई, जिससे भ्रम फैला।
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राजनीतिक दुर्भावना का आरोप: विपक्ष को आशंका है कि इस प्रक्रिया का उपयोग चुनिंदा समुदायों के मतदाता नाम हटाने में किया जाएगा, जिससे सत्तारूढ़ एनडीए को लाभ हो।
तेजस्वी यादव का दावा है कि 2 से 4 करोड़ मतदाता इस प्रक्रिया में बाहर हो सकते हैं — जिनमें से बड़ी संख्या वंचित वर्गों की है।
चुनाव आयोग का पक्ष
चुनाव आयोग ने सभी आरोपों को खारिज करते हुए कहा है कि यह एक नियमित प्रक्रिया है, जिसका मकसद केवल मतदाता सूची की शुद्धता सुनिश्चित करना है। आयोग के अनुसार, 24 जून को जो दिशा-निर्देश जारी किए गए, उनमें कोई बदलाव नहीं हुआ है, और सभी योग्य नागरिकों का नाम सूची में शामिल करना आयोग की प्राथमिकता है। एनडीए के नेता इस प्रक्रिया का समर्थन करते हुए कह रहे हैं कि इससे वास्तविक मतदाता सूची तैयार होगी। पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने कहा कि “जिन्हें डर है, शायद वही गलत हैं।” बीजेपी नेताओं का भी कहना है कि विपक्ष ‘फर्जी वोट बैंक’ खोने के डर से बौखलाया हुआ है।
सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर पहुंचा मुद्दा
इस बीच, विपक्ष ने कानूनी दांव चलाते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल, महुआ मोइत्रा और सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव ने इस प्रक्रिया को रोकने की मांग की है। वहीं, वकील अश्विनी उपाध्याय ने पूरे देश में इसी तरह की पुनरीक्षण प्रक्रिया लागू करने की याचिका दाखिल कर दी है, जिससे मामला और व्यापक हो गया है।
अब सबकी निगाहें सुप्रीम कोर्ट की 10 जुलाई की सुनवाई पर टिकी हैं। यदि कोर्ट इस प्रक्रिया पर रोक लगाता है, तो विपक्ष को बड़ी राहत मिलेगी। लेकिन यदि इसे जारी रखने की अनुमति मिलती है, तो बिहार की चुनावी राजनीति और अधिक गरमा सकती है। Bihar Voter Verification
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Bihar Voter Verification : बिहार में आगामी विधानसभा चुनावों से पहले वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) को लेकर जबरदस्त सियासी बवाल खड़ा हो गया है। जहां चुनाव आयोग इसे एक जरूरी और नियमित प्रक्रिया बता रहा है, वहीं विपक्ष इसे लोकतंत्र पर हमला और गरीब-अल्पसंख्यकों को मताधिकार से वंचित करने की साजिश करार दे रहा है। यह मुद्दा अब सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर पहुंच चुका है, जहां 10 जुलाई को सुनवाई होनी है।
क्या है यह विवाद और कैसे बना राजनीतिक तूफान?
भारत निर्वाचन आयोग हर चुनाव से पहले मतदाता सूची को अद्यतन करता है, ताकि मृत या फर्जी नाम हटाए जा सकें और नए पात्र मतदाताओं को जोड़ा जा सके। बिहार में इस बार यह प्रक्रिया 22 वर्षों के बाद विशेष रूप से गहन रूप में की जा रही है। कुल 7.89 करोड़ मतदाताओं के दस्तावेजों की जांच की जा रही है, जिनमें आधार, जन्म प्रमाणपत्र, 1987 से पूर्व के राशन कार्ड, या माता-पिता के जन्म संबंधी दस्तावेज शामिल हैं। आयोग का तर्क है कि यह कदम पारदर्शिता और विश्वसनीयता को सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है। लेकिन विपक्ष को इस प्रक्रिया की मंशा पर संदेह है।
विपक्ष का आरोप: यह ‘वोटबंदी’ है
राजद, कांग्रेस और AIMIM जैसे दलों ने इस प्रक्रिया पर कड़ा ऐतराज जताया है। राजद नेता तेजस्वी यादव ने इस कवायद को ‘वोटबंदी’ करार देते हुए कहा है कि यह गरीब, दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक वर्गों के मतों को समाप्त करने की सुनियोजित रणनीति है।
AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने इसे ‘नागरिकता प्रमाणन की आड़ में मताधिकार छीनने की कोशिश’ बताया।
विपक्ष के मुख्य आपत्ति बिंदु
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समय की कमी: चुनाव निकट हैं और इतनी बड़ी आबादी के दस्तावेजों की जांच एक-दो महीनों में निष्पक्षता से संभव नहीं।
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दस्तावेजों की पेचीदगी: गांवों, खासकर आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के पास पुराने दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं।
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अस्थिर दिशा-निर्देश: पहले दस्तावेज जमा करने की छूट की बात हुई, फिर 25 जुलाई की अनिवार्य समयसीमा घोषित कर दी गई, जिससे भ्रम फैला।
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राजनीतिक दुर्भावना का आरोप: विपक्ष को आशंका है कि इस प्रक्रिया का उपयोग चुनिंदा समुदायों के मतदाता नाम हटाने में किया जाएगा, जिससे सत्तारूढ़ एनडीए को लाभ हो।
तेजस्वी यादव का दावा है कि 2 से 4 करोड़ मतदाता इस प्रक्रिया में बाहर हो सकते हैं — जिनमें से बड़ी संख्या वंचित वर्गों की है।
चुनाव आयोग का पक्ष
चुनाव आयोग ने सभी आरोपों को खारिज करते हुए कहा है कि यह एक नियमित प्रक्रिया है, जिसका मकसद केवल मतदाता सूची की शुद्धता सुनिश्चित करना है। आयोग के अनुसार, 24 जून को जो दिशा-निर्देश जारी किए गए, उनमें कोई बदलाव नहीं हुआ है, और सभी योग्य नागरिकों का नाम सूची में शामिल करना आयोग की प्राथमिकता है। एनडीए के नेता इस प्रक्रिया का समर्थन करते हुए कह रहे हैं कि इससे वास्तविक मतदाता सूची तैयार होगी। पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने कहा कि “जिन्हें डर है, शायद वही गलत हैं।” बीजेपी नेताओं का भी कहना है कि विपक्ष ‘फर्जी वोट बैंक’ खोने के डर से बौखलाया हुआ है।
सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर पहुंचा मुद्दा
इस बीच, विपक्ष ने कानूनी दांव चलाते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल, महुआ मोइत्रा और सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव ने इस प्रक्रिया को रोकने की मांग की है। वहीं, वकील अश्विनी उपाध्याय ने पूरे देश में इसी तरह की पुनरीक्षण प्रक्रिया लागू करने की याचिका दाखिल कर दी है, जिससे मामला और व्यापक हो गया है।
अब सबकी निगाहें सुप्रीम कोर्ट की 10 जुलाई की सुनवाई पर टिकी हैं। यदि कोर्ट इस प्रक्रिया पर रोक लगाता है, तो विपक्ष को बड़ी राहत मिलेगी। लेकिन यदि इसे जारी रखने की अनुमति मिलती है, तो बिहार की चुनावी राजनीति और अधिक गरमा सकती है। Bihar Voter Verification







