Durga Bhabhi : एक साधारण महिला ने अंग्रेजों को बताया, वो सिर्फ नाम की नहीं हैं ‘दुर्गा’

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Durga Bhabhi
locationभारत
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calendar07 Oct 2022 09:20 PM
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दुर्गा भाभी की जयंती पर विशेष  Durga Bhabhi : आज बेशक हम आजादी से खुली हवा में सांसें ले रहे हैं, लेकिन ये आजादी हमें यूं ही खैरात में नहीं मिली है। इसके लिए देश के हजारों लाखों नर नारियों ने अपने लहू बहाये हैं, कुर्बानियां दी हैं। ये सच है कि भारत को बहुत लम्बे संघर्ष के बाद आजादी मिली थी। लेकिन, इस आजादी को दिलाने के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले सेनानियों को आज हम भूलते जा रहे हैं। खासकर, उन महिला स्वतंत्रता सेनानिओं को, जिन्होंने पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर देश को आजादी दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी। ऐसी ही एक भूली-बिसरी कहानी है दुर्गा देवी वोहरा की, जिन्हें हम दुर्गा भाभी के नाम से जानते हैं। दुर्गा भाभी ने गुमनामी की जिन्दगी जीकर भी, देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए अंग्रेजों की ईंट से ईंट बजा दी थी। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान न केवल महत्वपूर्ण गतिविधियों को अंजाम दिया, बल्कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के जीवन पर भी इनका गहरा प्रभाव रहा।

Durga Bhabhi :

अपने माता-पिता की इकलौती संतान दुर्गावती देवी को उनकी मां के निधन के बाद उनकी एक रिश्तेदार ने पाला, क्योंकि उनके पिता ने भी संन्यास ले लिया था। 11 साल की कम उम्र में ही उनकी शादी भगवती चरण वोहरा से कर दी गयी थी, जो एक सपन्न गुजराती परिवार से थे और लाहौर में रहकर रेलवे के लिए काम करते थे। बचपन से ही अंग्रेजों के अत्याचारों को देखकर बड़े हुए भगवती चरण वोहरा वर्ष-1920 के दशक में सत्याग्रह के आन्दोलन से जुड़ गये। लाहौर के नेशनल कॉलेज के छात्र के रूप में उन्होंने भगत सिंह, सुखदेव और यशपाल के साथ मिलकर एक स्टडी सर्कल की शुरुआत की, जो दुनियाभर में होने वाले क्रांतिकारी आंदोलनों के बारे में जानने-समझने के लिए बनाया गया था। इसके तुरंत बाद, इन सभी दोस्तों ने युवाओं को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने और सांप्रदायिकता व कुरीतियों के खिलाफ लड़ने के लिए ‘नौजवान भारत सभा’ की स्थापना की। इस सभा के लिए इन सभी क्रांतिकारियों का भगवती के घर आना-जाना बढ़ गया। उस समय दुर्गा देवी लाहौर में एक कॉलेज में पढ़ाती थीं। अपने घर पर आये क्रांतिकारियों से वे पहली बार सम्पर्क में आयीं, और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) में शामिल हो गयीं। एचएसआरए का लक्ष्य भारत को ब्रिटिश शासन के बंधनों से मुक्त करना था। 1920 के दशक के अंत तक, एचएसआरए के सदस्यों ने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को बढ़ा दिया था और दुर्गा देवी एक महत्वपूर्ण योजनाकार के रूप में एचएसआरए का एक अभिन्न हिस्सा बन गयीं। साल-1928 में बेटे को जन्म देने के तीन साल बाद दुर्गा देवी को अपनी गतिविधियां रोकनी पड़ीं। क्योंकि अंग्रेज सिपाहियों ने एचएसआरए सदस्यों के खिलाफ क्रूर रूप से दमनकारी अभियान शुरू कर दिया था। भगवती चरण ने उस समय बम बनाने के लिए लाहौर में एक कमरा किराये पर लिया और उन्होंने अपनी क्रांतिकारी सक्रियता को जारी रखा। दिसंबर 1928 की शुरुआत में, भगवती भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की वार्षिक बैठक में भाग लेने के लिए कोलकाता गए थे। कुछ दिनों बाद, 19 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने असिस्टेंट पुलिस अधीक्षक जॉन सांडर्स की हत्या कर दी। जॉन वही ब्रिटिश पुलिस अधिकारी था, जिसके लाठी चार्ज के क्रूर कदम की वजह से लाला लाजपत राय शहीद हो गए थे। इस घटना के बाद पुलिस से बचते हुए तीनों क्रन्तिकारी सहायता के लिए ‘दुर्गा भाभी’ के पास जा पहुंचे। पहचाने जाने से बचने के लिए भगत सिंह ने अपने बाल कटवा लिए थे और अंग्रेजी कपड़े पहन लिए थे। अपनी परवाह किये बिना दुर्गा देवी तुरंत इनकी सहायता के लिए तैयार हो गयीं। जो पैसे उनके पति उनके बुरे समय के लिए छोड़ गए थे, वह भी उन्होंने इन क्रांतिकारियों को दे दिए। यहां तक कि समाज की परवाह किये बिना, भगत सिंह की पत्नी का रूप धरकर, वे उन्हें पुलिस की नाक के नीचे से निकाल लायीं। उस समय सामाजिक नियम-कानून ऐसे थे कि यदि कोई स्त्री और पुरुष शादीशुदा नहीं हैं, तो उनका इस तरह का कोई नाटक करना भी सवालिया दृष्टि से देखा जाता था। इस काम से जुड़े हर जोखिम को जानते हुए भी, दुर्गा देवी ने इन क्रांतिकारियों की मदद करने का फैसला किया। उन्हें पता था कि यह संघर्ष, राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए बेहद जरुरी है। अपने तीन साल के बेटे को साथ लेकर इस साहसी महिला ने भगत सिंह और राजगुरु को परिवार का नौकर बताकर अंग्रेज सिपाहियों की नजरों से बचाया और ये तीनों लखनऊ के लिए ट्रेन में बैठ गये। बहरूपिया होने के लिए मशहूर, चंद्रशेखर आजाद ने भी औरतों को तीर्थयात्रा पर ले जाने वाले साधु का वेश बनाया और सुखदेव की मां और बहन की मदद से लाहौर से बच निकले। लखनऊ पहुंचते ही भगत सिंह ने भगवती चरण को एक टेलीग्राम भेजा और बताया कि वह दुर्गा भाभी के साथ कलकत्ता आ रहे हैं, जबकि राजगुरु बनारस जा रहे हैं। भगत सिंह और अपनी पत्नी को कोलकाता पहुंचा देखकर भगवती बहुत आश्चर्यचकित हुए, लेकिन उन्हें गर्व भी हुआ, जब उन्हें पता चला कि कैसे उनकी पत्नी ने भगत सिंह की मदद की है। बाद के दिनों में भगवती चरण, दुर्गा देवी और वेश बदले हुए भगत सिंह ने कांग्रेस के कलकत्ता सत्र में भाग लिया (जहां उन्होंने गांधी, नेहरू और सुभाष चंद बोस को देखा) और कई बंगाली क्रांतिकारियों से मुलाकात की। कलकत्ता में ही टोपी में भगत सिंह की प्रसिद्ध तस्वीर भी ली गई थी। उसी दौरान, लाहौर में भगवती चरण के बम बनाने वाले कारखाने पर छापा पड़ गया और उन्हें छिपना पड़ा। इस सबके दौरान उनकी पत्नी दुर्गा ने उनका भरपूर साथ दिया। वे उनके लिए अंडरकवर ‘पोस्ट बॉक्स’ बन गयीं और क्रांतिकारियों के पत्र उनके परिवारों तक पहुंचाती रहीं। यह जानते हुए कि बहुत से नेताओं की गिरफ्तारी से एचएसआरए में एक खालीपन आ गया है, दुर्गा देवी ने खुद क्रांतिकारी गतिविधियों की शुरुआत की। इनमें से एक पंजाब के पूर्व गवर्नर लॉर्ड हैली और क्रांतिकारियों के कट्टर दुश्मन की हत्या के साहसी प्रयास शामिल थे। लेकिन, एक बहुत बड़ी त्रासदी दुर्गा देवी के जीवन में घटने वाली थी। भगवती चरण, भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना बना रहे थे। इस योजना के तहत उन्हें जेल में बम रखना था, जिसके लिए वे स्वयं बम बना रहे थे। रावी नदी के तट पर बम का परीक्षण होना था। लेकिन, परीक्षण करते हुए, अचानक बम फट गया। दुर्भाग्यवश, भगवती चरण इस घटना में शहीद हो गए। अपने पति की मौत से उबरने के लिए दुर्गा देवी ने अपनी क्रन्तिकारी गतिविधियां और तेज कर दी थीं। जुलाई 1929 में, उन्होंने भगत सिंह की तस्वीर के साथ लाहौर में एक जुलूस का नेतृत्व किया और उनकी रिहाई की मांग की। इसके कुछ हफ्ते बाद, 63 दिनों तक भूख हड़ताल करने वाले जातिंद्र नाथ दास जेल में ही शहीद हो गए। ये दुर्गा देवी ही थीं, जिन्होंने लाहौर में उनका अंतिम संस्कार करवाया। उसी वर्ष 8 अक्टूबर को उन्होंने दक्षिण बॉम्बे में लैमिंगटन रोड पर खड़े एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी पर हमला किया। यह पहली बार था, जब किसी महिला को ‘इस तरह से क्रन्तिकारी गतिविधियों में शामिल’ पाया गया था। इसके लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और तीन साल की जेल हुई। भारत की आजादी में उनका सिर्फ यही योगदान नहीं था। 1939 में उन्होंने मद्रास में मारिया मोंटेसरी (इटली के प्रसिद्द शिक्षक) से प्रशिक्षण प्राप्त किया। एक साल बाद, उन्होंने लखनऊ में उत्तर भारत का पहला मोंटेसरी स्कूल खोला। इस स्कूल को उन्होंने पिछड़े वर्ग के पांच छात्रों के साथ शुरू किया था। दुर्गा देवी 07 अक्टूबर, 1907 को पैदा हुईं दुर्गा देवी ने बचपन भी ढंग से नहीं देखा। बचपन में ही मां गुजर गईं और पिता संन्यासी हो गए। 11 वर्ष की उम्र में उनका विवाह हो गया। लेकिन, वह हर हालात से लड़ती रहीं। देश आजाद हो गया, लेकिन दुर्गा भाभी उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद शहर मे गुमनामी की जिन्दगी जीती रहीं। ऐसे कम ही लोग व संगठन जानते थे कि दुर्गा भाभी एक महान विरंगना हैं । वर्ष 1983 से अपना आखिरी सांस लेने तक 15 अक्तूबर 1999 तक गाजियाबाद के राजनगर स्थित सेक्टर 2 मे रहती थीं । गाजियाबाद जर्नलिस्ट क्लब ने जरूर उन्हें याद रखा और उनके आवास पर जाकर देश की आजादी में उनके अतुलनीय योगदान के लिए उनका अभिनंदन व सम्मान किया था। इस क्लब ने उस समय के अध्यक्ष व वरिष्ठ पत्रकार पंडित सुशील शर्मा बताते हैं कि गाजियाबाद के पार्षद राजीव शर्मा उन दिनों दैनिक जागरण के पत्रकार थे, जब वह पत्रकारिता छोड़कर राजनीति में उतरे तो सबसे पहले उन्होंने स्थानीय नवयुग मार्केट के पास सिहानी गेट चौराहे पर दुर्गा भाभी की प्रतिमा स्थापित कराई तथा उस चौराहे का नाम दुर्गा भाभी चौराहा रखवाया। अब भी हर वर्ष उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर उस चौराहे पर ही श्रद्धांजलि समारोह भी आयोजित किया जाता है। अक्सर यही होता आया है कि हमारा इतिहास महिलाओं के बलिदान और उनकी बहादुरी को भूल जाता है। बहुत सी ऐसी नायिकाएं हमेशा छिपी ही रह जाती हैं। दुर्गा देवी वोहरा भी उन्हीं नायिकाओं में से एक हैं। देश की आजादी के लिए मर-मिटने वाली ऐसी वीरांगनाओं को कोटि कोटि प्रणाम। जयहिन्द।
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Day Special : आज ही के दिन नोएडा में बहा था शूरवीरों का खून, गुर्जर वीरों ने रचा था इतिहास

Shaheed 1 final
On this day, the blood of the warriors was shed in Noida, Gurjar heroes had created history
locationभारत
userचेतना मंच
calendar03 Oct 2022 09:00 PM
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Day Special : आज 3 अक्टूबर है। आज का दिन गौतमबुद्ध नगर के इतिहास में बहुत बड़ा है। आज के दिन वीरता और कुर्बानी की जो इबारत लिखी गई, शायद उससे पाठक परिचित नहीं होंगे। आपको यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि लाखों की अंग्रेज सेना के सामने गुर्जर वीरों ने चतुरता, जांबाजी और शहादत की जो मिसाल पेश की, वह हमें अपनी मिट्टी से प्रेम करने और उसके लिए कुर्बान होने की प्रेरणा देता है। हम नतमस्तक हैं उन वीरों के आगे। जयहिन्द। आइये, जानें, उन गुर्जर वीरों की दास्तान, जिसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। तीन अक्टूबर 1857 को क्रांतिकारी फौज ने ब्रिटिश फौज के साथ निर्णायक मुकाबला किया था। जिस निर्णायक मुकाबले में क्रांति फौज के 5 कमांडर वीर सेनापति दरियाव सिंह नागर, राव सुरजीत सिंह नागर, चौधरी राम बख्श सिंह नागर, चौधरी इंदर सिंह नागर एवं चौधरी कान्हा सिंह नागर वीरगति को प्राप्त हो गए थे।

Day Special :

कहानी इस तरह है कि 10 मई 1857 को जब मेरठ में क्रांति का ऐलान हुआ, तब अमर सेनानी धन सिंह कोतवाल ने अंग्रेजांे के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंका। उसके बाद परीक्षितगढ़ के राजा कदम सिंह की एक बड़ी सेना मेरठ से दिल्ली की ओर कूच की। उन सैनिकों ने दो दिन की लड़ाई के बाद लाल किले पर कब्जा कर लिया। ब्रिटिश फौज को दिल्ली से भगा दिया और बहादुर शाह जफर को दिल्ली का सुल्तान घोषित कर दिया। उसके बाद देश में जगह-जगह क्रांति का आगाज होने लगा। भारत, स्वाधीनता प्राप्ति के लिए संघर्ष करने लगा, लेकिन अंग्रेज भी कहां चुप बैठने वाले थे। अंग्रेजों ने अपनी शक्ति का संचय करके 29 मई को कैप्टन रोज व मेजर हडसन के नेतृत्व में दिल्ली पर कब्जा करने का प्रयास किया। उसमें बड़ी संख्या में अंग्रेज व गोरखा सैनिक मौजूद थे। इस फौज ने गाजियाबाद की तरफ से दिल्ली में प्रवेश करने का प्रयास किया, लेकिन क्रांतिकारी सेना ने जोरदार मुकाबला किया। क्रांतिकारी सेना का नेतृत्व दादरी के राजा उमराव सिंह भाटी कर रहे थे। उनके साथ बुलंदशहर के नवाब बलिदान खान थे। बागपत के शाहमल जाट थे और स्थानीय गुर्जरों की एक बड़ी फौजी थी, जिसमें करीब 10 हजार सशस्त्र सैनिक थे। तीन दिन चले युद्ध में क्रांतिकारियों को विजय मिली और ब्रिटिश सेना को पीछे हटना पड़ा।

Day Special :

लगभग तीन महीने की तैयारी के बाद पंजाब रेजीमेंट की मदद से अंग्रेजों ने 16 सितंबर 1857 को हरियाणा की तरफ से दिल्ली में प्रवेश किया और 19 सितंबर को दिल्ली पर पूरा नियंत्रण कर लिया। 21 सितंबर को बहादुर शाह जफर को बंदी बना लिया और उसके दो बेटों का कत्ल कर दिया। उसके बाद ब्रिटिश फौज ने बुलंदशहर की तरफ रुख किया। 23 व 24 सितंबर की रात ब्रिटिश सेना यमुना नदी को पार करके वर्तमान नोएडा में पहुंची। उधर, क्रांतिकारी भी पूरी तरह से तैयार थे। क्रांति सेना का नेतृत्व राव उमराव सिंह भाटी उनके भाई राव बिशन सिंह भाटी कर रहे थे। साथ में थे दनकौर के जमींदार राव जवाहर सिंह नागर के पुत्र सरजीत सिंह नागर, दरियाव सिंह नागर, राम बख्श सिंह नागर, इंदर सिंह नागर और कान्हा सिंह नागर। ये पांचों योद्धा एक ही परिवार से थे। ये सभी क्रांति सेना के नायक परीक्षितगढ़ नरेश राव कदम सिंह के चचेरे भाई थे। सूरजपुर के पास इन्होंने ब्रिटिश सेना से पहला मुकाबला किया। ये राजा कदम सिंह की दनकौर की ब्रिगेड थी, जिसका नेतृत्व दरियाव सिंह गुर्जर कर रहे थे। राव दरियाव सिंह को युद्धों का बड़ा अनुभव था। वह अपने चाचा परीक्षितगढ़ के पूर्व राजा नत्था सिंह के साथ कई युद्ध में भाग ले चुके थे। इनके सहयोगी थे राव सरजीत सिंह नागर, जिनके के पास 10 हजार जवानों की फौज थी। सरजीत सिंह की आयु कोई 30 वर्ष बताई जाती है। कान्हा सिंह बुलंदशहर के गांव अट्टा सावर के जमींदार थे। उनके पास 5000 की सैन्य शक्ति थी। इंदर सिंह नागर अट्टा गुजरान के थे। राम बख्श सिंह नागर गुनपुरा गांव के थे। इन पांचों ने 25 सितंबर से ही ब्रिटिश सेना पर घात लगाकर हमले करने शुरू कर दिये थे। दरियाव सिंह ने रणनीति के तहत क्रांतिकारियों की ताकत को 5 हिस्सों में बांटा, जिसमें सेना के क्रांतिकारियों के एक समूह का नेतृत्व दरियाव सिंह के पास था। दूसरा सरजीत सिंह के पास, तीसरा कान्हा सिंह, चौथा राम बख्श सिंह और पांचवें ग्रुप की जिम्मेवारी इंदर सिंह के पास थी।

Day Special :

दरियाव सिंह ने रणनीतिक कौशल का परिचय देते हुए अंग्रेजों की बड़ी फौज के सामने यह भ्रम फैला दिया कि यहां भी क्रांतिकारियों की संख्या लाखों में है। लगातार छापामार लड़ाई चलती रही। 25 सितंबर से 3 अक्टूबर तक ब्रिटिश फौज को रोके रखा गया। छापामार लड़ाई में अंग्रेजों की ब्रिटिश फौज की संख्या लगभग डेढ लाख थी। वहीं, क्रांतिकारियों की संख्या मात्र 20 हजार के आसपास थी। लगातार हुए संघर्ष में क्रांतिवीर शहीद होते गए। मातृभूमि के लिए वीरगति को प्राप्त होते गए। एक-एक गुर्जर वीर अपनी शहादत देता रहा। अंग्रेज सेना ने क्रांतिकारियों के साथ समझौते के कई प्रयास किये, लेकिन क्रांति सेना ने समझौता न करने का फैसला किया। क्रांतिवीरों ने अंतिम सांस तक लड़ते रहने और ब्रिटिश फौज को जमुनापार खदेड़ने का फैसला किया। आज ही के दिन यानि 03 अक्टूबर 1857 को वर्तमान में परी चौक के पास ब्रिटिश फौज और क्रांति सेना का निर्णायक युद्ध हुआ। उस युद्ध में लाखों की फौज के सामने सीमित क्रांति सेना थी। क्रांतिवीरों के लगातार शहीद होने की वजह से क्रांति सेना कमजोर पड़ गई। राव कदम सिंह ने धौलपुर के सेनापति देवहंस कसाना को दरियाव सिंह की मदद के लिए भेजने का प्रयास किया, लेकिन धौलपुर की फौज जब तक आती, तब तक क्रांतिवीर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर चुके थे। चारों तरफ से घिरे क्रांतिकारी भारत की स्वाधीनता के लिए मातृभूमि की आजादी के लिए अंतिम सांस तक लड़ते हुए रणभूमि में शहीद हो गए। उन वीरों ने अपनी शहादत दी और हम लोगों के लिए एक उदाहरण छोड़ गये कि जालिम चाहे कितना भी ताकतवर क्यों न हो, अंत में जीत सत्य की ही होती है।
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NGO News : एथोमार्ट चैरिटेबल ट्रस्ट की कार्यशाला में बच्चों को बताया सफाई का महत्व, बाल भी काटे

Athomart 1 final
locationभारत
userचेतना मंच
calendar19 Jul 2022 10:00 PM
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Greater Noida : ग्रेटर नोएडा। एथोमार्ट चैरिटेबल ट्रस्ट (Athomart Charitable Trust) की ओर से मंगलवार को आयोजित कार्यशाला में बच्चों को शारीरिक साफ सफाई (Physical cleaning) के प्रति जागरूक किया गया। कार्यशाला में सभी बच्चों की हेयर कटिंग (Hair cutting) की गयी, जिसमें प्रमुख योगदान ईएमसीटी की सदस्य शक्ति ने दिया। ईएमसीटी की सदस्य शक्ति शुक्ला ने बताया कि ज्यादातर बच्चों के बालों में इन्फेक्शन है। गर्मी और बढ़ती हुई उमस की वजह से स्किन में भी इन्फेक्शन हो रहा है। ईएमसीटी द्वारा संचालित स्कूल में वंचित बच्चों के निशुल्क हेयर कट किए गए। ये सेवाएं समाज के वंचित वर्गों के बच्चों को दी जाएगी। ईएमसीटी की संस्थापक रश्मि पाण्डेय ने बताया कि एक स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ्य दिमाग का विकास होता है। इसलिए हम बच्चों को निशुल्क शिक्षा के साथ साथ स्वास्थ्य सम्बंधित कार्यशाला और कैम्प का आयोजन भी करते हैं, ताकि बच्चों का सर्वांगीण विकास हो। उन्होंने बताया कि बच्चों को पर्सनल हाइजिन किट भी दी गई, जिसमें शैम्पू, साबुन, तेल, टूथ ब्रश और पेस्ट शामिल थे।