Durga Bhabhi : एक साधारण महिला ने अंग्रेजों को बताया, वो सिर्फ नाम की नहीं हैं ‘दुर्गा’

Durga Bhabhi :
अपने माता-पिता की इकलौती संतान दुर्गावती देवी को उनकी मां के निधन के बाद उनकी एक रिश्तेदार ने पाला, क्योंकि उनके पिता ने भी संन्यास ले लिया था। 11 साल की कम उम्र में ही उनकी शादी भगवती चरण वोहरा से कर दी गयी थी, जो एक सपन्न गुजराती परिवार से थे और लाहौर में रहकर रेलवे के लिए काम करते थे। बचपन से ही अंग्रेजों के अत्याचारों को देखकर बड़े हुए भगवती चरण वोहरा वर्ष-1920 के दशक में सत्याग्रह के आन्दोलन से जुड़ गये। लाहौर के नेशनल कॉलेज के छात्र के रूप में उन्होंने भगत सिंह, सुखदेव और यशपाल के साथ मिलकर एक स्टडी सर्कल की शुरुआत की, जो दुनियाभर में होने वाले क्रांतिकारी आंदोलनों के बारे में जानने-समझने के लिए बनाया गया था। इसके तुरंत बाद, इन सभी दोस्तों ने युवाओं को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने और सांप्रदायिकता व कुरीतियों के खिलाफ लड़ने के लिए ‘नौजवान भारत सभा’ की स्थापना की। इस सभा के लिए इन सभी क्रांतिकारियों का भगवती के घर आना-जाना बढ़ गया। उस समय दुर्गा देवी लाहौर में एक कॉलेज में पढ़ाती थीं। अपने घर पर आये क्रांतिकारियों से वे पहली बार सम्पर्क में आयीं, और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) में शामिल हो गयीं। एचएसआरए का लक्ष्य भारत को ब्रिटिश शासन के बंधनों से मुक्त करना था। 1920 के दशक के अंत तक, एचएसआरए के सदस्यों ने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को बढ़ा दिया था और दुर्गा देवी एक महत्वपूर्ण योजनाकार के रूप में एचएसआरए का एक अभिन्न हिस्सा बन गयीं। साल-1928 में बेटे को जन्म देने के तीन साल बाद दुर्गा देवी को अपनी गतिविधियां रोकनी पड़ीं। क्योंकि अंग्रेज सिपाहियों ने एचएसआरए सदस्यों के खिलाफ क्रूर रूप से दमनकारी अभियान शुरू कर दिया था। भगवती चरण ने उस समय बम बनाने के लिए लाहौर में एक कमरा किराये पर लिया और उन्होंने अपनी क्रांतिकारी सक्रियता को जारी रखा। दिसंबर 1928 की शुरुआत में, भगवती भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की वार्षिक बैठक में भाग लेने के लिए कोलकाता गए थे। कुछ दिनों बाद, 19 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने असिस्टेंट पुलिस अधीक्षक जॉन सांडर्स की हत्या कर दी। जॉन वही ब्रिटिश पुलिस अधिकारी था, जिसके लाठी चार्ज के क्रूर कदम की वजह से लाला लाजपत राय शहीद हो गए थे। इस घटना के बाद पुलिस से बचते हुए तीनों क्रन्तिकारी सहायता के लिए ‘दुर्गा भाभी’ के पास जा पहुंचे। पहचाने जाने से बचने के लिए भगत सिंह ने अपने बाल कटवा लिए थे और अंग्रेजी कपड़े पहन लिए थे। अपनी परवाह किये बिना दुर्गा देवी तुरंत इनकी सहायता के लिए तैयार हो गयीं। जो पैसे उनके पति उनके बुरे समय के लिए छोड़ गए थे, वह भी उन्होंने इन क्रांतिकारियों को दे दिए। यहां तक कि समाज की परवाह किये बिना, भगत सिंह की पत्नी का रूप धरकर, वे उन्हें पुलिस की नाक के नीचे से निकाल लायीं। उस समय सामाजिक नियम-कानून ऐसे थे कि यदि कोई स्त्री और पुरुष शादीशुदा नहीं हैं, तो उनका इस तरह का कोई नाटक करना भी सवालिया दृष्टि से देखा जाता था। इस काम से जुड़े हर जोखिम को जानते हुए भी, दुर्गा देवी ने इन क्रांतिकारियों की मदद करने का फैसला किया। उन्हें पता था कि यह संघर्ष, राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए बेहद जरुरी है। अपने तीन साल के बेटे को साथ लेकर इस साहसी महिला ने भगत सिंह और राजगुरु को परिवार का नौकर बताकर अंग्रेज सिपाहियों की नजरों से बचाया और ये तीनों लखनऊ के लिए ट्रेन में बैठ गये। बहरूपिया होने के लिए मशहूर, चंद्रशेखर आजाद ने भी औरतों को तीर्थयात्रा पर ले जाने वाले साधु का वेश बनाया और सुखदेव की मां और बहन की मदद से लाहौर से बच निकले। लखनऊ पहुंचते ही भगत सिंह ने भगवती चरण को एक टेलीग्राम भेजा और बताया कि वह दुर्गा भाभी के साथ कलकत्ता आ रहे हैं, जबकि राजगुरु बनारस जा रहे हैं। भगत सिंह और अपनी पत्नी को कोलकाता पहुंचा देखकर भगवती बहुत आश्चर्यचकित हुए, लेकिन उन्हें गर्व भी हुआ, जब उन्हें पता चला कि कैसे उनकी पत्नी ने भगत सिंह की मदद की है। बाद के दिनों में भगवती चरण, दुर्गा देवी और वेश बदले हुए भगत सिंह ने कांग्रेस के कलकत्ता सत्र में भाग लिया (जहां उन्होंने गांधी, नेहरू और सुभाष चंद बोस को देखा) और कई बंगाली क्रांतिकारियों से मुलाकात की। कलकत्ता में ही टोपी में भगत सिंह की प्रसिद्ध तस्वीर भी ली गई थी। उसी दौरान, लाहौर में भगवती चरण के बम बनाने वाले कारखाने पर छापा पड़ गया और उन्हें छिपना पड़ा। इस सबके दौरान उनकी पत्नी दुर्गा ने उनका भरपूर साथ दिया। वे उनके लिए अंडरकवर ‘पोस्ट बॉक्स’ बन गयीं और क्रांतिकारियों के पत्र उनके परिवारों तक पहुंचाती रहीं। यह जानते हुए कि बहुत से नेताओं की गिरफ्तारी से एचएसआरए में एक खालीपन आ गया है, दुर्गा देवी ने खुद क्रांतिकारी गतिविधियों की शुरुआत की। इनमें से एक पंजाब के पूर्व गवर्नर लॉर्ड हैली और क्रांतिकारियों के कट्टर दुश्मन की हत्या के साहसी प्रयास शामिल थे। लेकिन, एक बहुत बड़ी त्रासदी दुर्गा देवी के जीवन में घटने वाली थी। भगवती चरण, भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना बना रहे थे। इस योजना के तहत उन्हें जेल में बम रखना था, जिसके लिए वे स्वयं बम बना रहे थे। रावी नदी के तट पर बम का परीक्षण होना था। लेकिन, परीक्षण करते हुए, अचानक बम फट गया। दुर्भाग्यवश, भगवती चरण इस घटना में शहीद हो गए। अपने पति की मौत से उबरने के लिए दुर्गा देवी ने अपनी क्रन्तिकारी गतिविधियां और तेज कर दी थीं। जुलाई 1929 में, उन्होंने भगत सिंह की तस्वीर के साथ लाहौर में एक जुलूस का नेतृत्व किया और उनकी रिहाई की मांग की। इसके कुछ हफ्ते बाद, 63 दिनों तक भूख हड़ताल करने वाले जातिंद्र नाथ दास जेल में ही शहीद हो गए। ये दुर्गा देवी ही थीं, जिन्होंने लाहौर में उनका अंतिम संस्कार करवाया। उसी वर्ष 8 अक्टूबर को उन्होंने दक्षिण बॉम्बे में लैमिंगटन रोड पर खड़े एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी पर हमला किया। यह पहली बार था, जब किसी महिला को ‘इस तरह से क्रन्तिकारी गतिविधियों में शामिल’ पाया गया था। इसके लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और तीन साल की जेल हुई। भारत की आजादी में उनका सिर्फ यही योगदान नहीं था। 1939 में उन्होंने मद्रास में मारिया मोंटेसरी (इटली के प्रसिद्द शिक्षक) से प्रशिक्षण प्राप्त किया। एक साल बाद, उन्होंने लखनऊ में उत्तर भारत का पहला मोंटेसरी स्कूल खोला। इस स्कूल को उन्होंने पिछड़े वर्ग के पांच छात्रों के साथ शुरू किया था। दुर्गा देवी 07 अक्टूबर, 1907 को पैदा हुईं दुर्गा देवी ने बचपन भी ढंग से नहीं देखा। बचपन में ही मां गुजर गईं और पिता संन्यासी हो गए। 11 वर्ष की उम्र में उनका विवाह हो गया। लेकिन, वह हर हालात से लड़ती रहीं। देश आजाद हो गया, लेकिन दुर्गा भाभी उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद शहर मे गुमनामी की जिन्दगी जीती रहीं। ऐसे कम ही लोग व संगठन जानते थे कि दुर्गा भाभी एक महान विरंगना हैं । वर्ष 1983 से अपना आखिरी सांस लेने तक 15 अक्तूबर 1999 तक गाजियाबाद के राजनगर स्थित सेक्टर 2 मे रहती थीं । गाजियाबाद जर्नलिस्ट क्लब ने जरूर उन्हें याद रखा और उनके आवास पर जाकर देश की आजादी में उनके अतुलनीय योगदान के लिए उनका अभिनंदन व सम्मान किया था। इस क्लब ने उस समय के अध्यक्ष व वरिष्ठ पत्रकार पंडित सुशील शर्मा बताते हैं कि गाजियाबाद के पार्षद राजीव शर्मा उन दिनों दैनिक जागरण के पत्रकार थे, जब वह पत्रकारिता छोड़कर राजनीति में उतरे तो सबसे पहले उन्होंने स्थानीय नवयुग मार्केट के पास सिहानी गेट चौराहे पर दुर्गा भाभी की प्रतिमा स्थापित कराई तथा उस चौराहे का नाम दुर्गा भाभी चौराहा रखवाया। अब भी हर वर्ष उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर उस चौराहे पर ही श्रद्धांजलि समारोह भी आयोजित किया जाता है। अक्सर यही होता आया है कि हमारा इतिहास महिलाओं के बलिदान और उनकी बहादुरी को भूल जाता है। बहुत सी ऐसी नायिकाएं हमेशा छिपी ही रह जाती हैं। दुर्गा देवी वोहरा भी उन्हीं नायिकाओं में से एक हैं। देश की आजादी के लिए मर-मिटने वाली ऐसी वीरांगनाओं को कोटि कोटि प्रणाम। जयहिन्द।अगली खबर पढ़ें
Durga Bhabhi :
अपने माता-पिता की इकलौती संतान दुर्गावती देवी को उनकी मां के निधन के बाद उनकी एक रिश्तेदार ने पाला, क्योंकि उनके पिता ने भी संन्यास ले लिया था। 11 साल की कम उम्र में ही उनकी शादी भगवती चरण वोहरा से कर दी गयी थी, जो एक सपन्न गुजराती परिवार से थे और लाहौर में रहकर रेलवे के लिए काम करते थे। बचपन से ही अंग्रेजों के अत्याचारों को देखकर बड़े हुए भगवती चरण वोहरा वर्ष-1920 के दशक में सत्याग्रह के आन्दोलन से जुड़ गये। लाहौर के नेशनल कॉलेज के छात्र के रूप में उन्होंने भगत सिंह, सुखदेव और यशपाल के साथ मिलकर एक स्टडी सर्कल की शुरुआत की, जो दुनियाभर में होने वाले क्रांतिकारी आंदोलनों के बारे में जानने-समझने के लिए बनाया गया था। इसके तुरंत बाद, इन सभी दोस्तों ने युवाओं को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने और सांप्रदायिकता व कुरीतियों के खिलाफ लड़ने के लिए ‘नौजवान भारत सभा’ की स्थापना की। इस सभा के लिए इन सभी क्रांतिकारियों का भगवती के घर आना-जाना बढ़ गया। उस समय दुर्गा देवी लाहौर में एक कॉलेज में पढ़ाती थीं। अपने घर पर आये क्रांतिकारियों से वे पहली बार सम्पर्क में आयीं, और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) में शामिल हो गयीं। एचएसआरए का लक्ष्य भारत को ब्रिटिश शासन के बंधनों से मुक्त करना था। 1920 के दशक के अंत तक, एचएसआरए के सदस्यों ने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को बढ़ा दिया था और दुर्गा देवी एक महत्वपूर्ण योजनाकार के रूप में एचएसआरए का एक अभिन्न हिस्सा बन गयीं। साल-1928 में बेटे को जन्म देने के तीन साल बाद दुर्गा देवी को अपनी गतिविधियां रोकनी पड़ीं। क्योंकि अंग्रेज सिपाहियों ने एचएसआरए सदस्यों के खिलाफ क्रूर रूप से दमनकारी अभियान शुरू कर दिया था। भगवती चरण ने उस समय बम बनाने के लिए लाहौर में एक कमरा किराये पर लिया और उन्होंने अपनी क्रांतिकारी सक्रियता को जारी रखा। दिसंबर 1928 की शुरुआत में, भगवती भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की वार्षिक बैठक में भाग लेने के लिए कोलकाता गए थे। कुछ दिनों बाद, 19 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने असिस्टेंट पुलिस अधीक्षक जॉन सांडर्स की हत्या कर दी। जॉन वही ब्रिटिश पुलिस अधिकारी था, जिसके लाठी चार्ज के क्रूर कदम की वजह से लाला लाजपत राय शहीद हो गए थे। इस घटना के बाद पुलिस से बचते हुए तीनों क्रन्तिकारी सहायता के लिए ‘दुर्गा भाभी’ के पास जा पहुंचे। पहचाने जाने से बचने के लिए भगत सिंह ने अपने बाल कटवा लिए थे और अंग्रेजी कपड़े पहन लिए थे। अपनी परवाह किये बिना दुर्गा देवी तुरंत इनकी सहायता के लिए तैयार हो गयीं। जो पैसे उनके पति उनके बुरे समय के लिए छोड़ गए थे, वह भी उन्होंने इन क्रांतिकारियों को दे दिए। यहां तक कि समाज की परवाह किये बिना, भगत सिंह की पत्नी का रूप धरकर, वे उन्हें पुलिस की नाक के नीचे से निकाल लायीं। उस समय सामाजिक नियम-कानून ऐसे थे कि यदि कोई स्त्री और पुरुष शादीशुदा नहीं हैं, तो उनका इस तरह का कोई नाटक करना भी सवालिया दृष्टि से देखा जाता था। इस काम से जुड़े हर जोखिम को जानते हुए भी, दुर्गा देवी ने इन क्रांतिकारियों की मदद करने का फैसला किया। उन्हें पता था कि यह संघर्ष, राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए बेहद जरुरी है। अपने तीन साल के बेटे को साथ लेकर इस साहसी महिला ने भगत सिंह और राजगुरु को परिवार का नौकर बताकर अंग्रेज सिपाहियों की नजरों से बचाया और ये तीनों लखनऊ के लिए ट्रेन में बैठ गये। बहरूपिया होने के लिए मशहूर, चंद्रशेखर आजाद ने भी औरतों को तीर्थयात्रा पर ले जाने वाले साधु का वेश बनाया और सुखदेव की मां और बहन की मदद से लाहौर से बच निकले। लखनऊ पहुंचते ही भगत सिंह ने भगवती चरण को एक टेलीग्राम भेजा और बताया कि वह दुर्गा भाभी के साथ कलकत्ता आ रहे हैं, जबकि राजगुरु बनारस जा रहे हैं। भगत सिंह और अपनी पत्नी को कोलकाता पहुंचा देखकर भगवती बहुत आश्चर्यचकित हुए, लेकिन उन्हें गर्व भी हुआ, जब उन्हें पता चला कि कैसे उनकी पत्नी ने भगत सिंह की मदद की है। बाद के दिनों में भगवती चरण, दुर्गा देवी और वेश बदले हुए भगत सिंह ने कांग्रेस के कलकत्ता सत्र में भाग लिया (जहां उन्होंने गांधी, नेहरू और सुभाष चंद बोस को देखा) और कई बंगाली क्रांतिकारियों से मुलाकात की। कलकत्ता में ही टोपी में भगत सिंह की प्रसिद्ध तस्वीर भी ली गई थी। उसी दौरान, लाहौर में भगवती चरण के बम बनाने वाले कारखाने पर छापा पड़ गया और उन्हें छिपना पड़ा। इस सबके दौरान उनकी पत्नी दुर्गा ने उनका भरपूर साथ दिया। वे उनके लिए अंडरकवर ‘पोस्ट बॉक्स’ बन गयीं और क्रांतिकारियों के पत्र उनके परिवारों तक पहुंचाती रहीं। यह जानते हुए कि बहुत से नेताओं की गिरफ्तारी से एचएसआरए में एक खालीपन आ गया है, दुर्गा देवी ने खुद क्रांतिकारी गतिविधियों की शुरुआत की। इनमें से एक पंजाब के पूर्व गवर्नर लॉर्ड हैली और क्रांतिकारियों के कट्टर दुश्मन की हत्या के साहसी प्रयास शामिल थे। लेकिन, एक बहुत बड़ी त्रासदी दुर्गा देवी के जीवन में घटने वाली थी। भगवती चरण, भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना बना रहे थे। इस योजना के तहत उन्हें जेल में बम रखना था, जिसके लिए वे स्वयं बम बना रहे थे। रावी नदी के तट पर बम का परीक्षण होना था। लेकिन, परीक्षण करते हुए, अचानक बम फट गया। दुर्भाग्यवश, भगवती चरण इस घटना में शहीद हो गए। अपने पति की मौत से उबरने के लिए दुर्गा देवी ने अपनी क्रन्तिकारी गतिविधियां और तेज कर दी थीं। जुलाई 1929 में, उन्होंने भगत सिंह की तस्वीर के साथ लाहौर में एक जुलूस का नेतृत्व किया और उनकी रिहाई की मांग की। इसके कुछ हफ्ते बाद, 63 दिनों तक भूख हड़ताल करने वाले जातिंद्र नाथ दास जेल में ही शहीद हो गए। ये दुर्गा देवी ही थीं, जिन्होंने लाहौर में उनका अंतिम संस्कार करवाया। उसी वर्ष 8 अक्टूबर को उन्होंने दक्षिण बॉम्बे में लैमिंगटन रोड पर खड़े एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी पर हमला किया। यह पहली बार था, जब किसी महिला को ‘इस तरह से क्रन्तिकारी गतिविधियों में शामिल’ पाया गया था। इसके लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और तीन साल की जेल हुई। भारत की आजादी में उनका सिर्फ यही योगदान नहीं था। 1939 में उन्होंने मद्रास में मारिया मोंटेसरी (इटली के प्रसिद्द शिक्षक) से प्रशिक्षण प्राप्त किया। एक साल बाद, उन्होंने लखनऊ में उत्तर भारत का पहला मोंटेसरी स्कूल खोला। इस स्कूल को उन्होंने पिछड़े वर्ग के पांच छात्रों के साथ शुरू किया था। दुर्गा देवी 07 अक्टूबर, 1907 को पैदा हुईं दुर्गा देवी ने बचपन भी ढंग से नहीं देखा। बचपन में ही मां गुजर गईं और पिता संन्यासी हो गए। 11 वर्ष की उम्र में उनका विवाह हो गया। लेकिन, वह हर हालात से लड़ती रहीं। देश आजाद हो गया, लेकिन दुर्गा भाभी उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद शहर मे गुमनामी की जिन्दगी जीती रहीं। ऐसे कम ही लोग व संगठन जानते थे कि दुर्गा भाभी एक महान विरंगना हैं । वर्ष 1983 से अपना आखिरी सांस लेने तक 15 अक्तूबर 1999 तक गाजियाबाद के राजनगर स्थित सेक्टर 2 मे रहती थीं । गाजियाबाद जर्नलिस्ट क्लब ने जरूर उन्हें याद रखा और उनके आवास पर जाकर देश की आजादी में उनके अतुलनीय योगदान के लिए उनका अभिनंदन व सम्मान किया था। इस क्लब ने उस समय के अध्यक्ष व वरिष्ठ पत्रकार पंडित सुशील शर्मा बताते हैं कि गाजियाबाद के पार्षद राजीव शर्मा उन दिनों दैनिक जागरण के पत्रकार थे, जब वह पत्रकारिता छोड़कर राजनीति में उतरे तो सबसे पहले उन्होंने स्थानीय नवयुग मार्केट के पास सिहानी गेट चौराहे पर दुर्गा भाभी की प्रतिमा स्थापित कराई तथा उस चौराहे का नाम दुर्गा भाभी चौराहा रखवाया। अब भी हर वर्ष उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर उस चौराहे पर ही श्रद्धांजलि समारोह भी आयोजित किया जाता है। अक्सर यही होता आया है कि हमारा इतिहास महिलाओं के बलिदान और उनकी बहादुरी को भूल जाता है। बहुत सी ऐसी नायिकाएं हमेशा छिपी ही रह जाती हैं। दुर्गा देवी वोहरा भी उन्हीं नायिकाओं में से एक हैं। देश की आजादी के लिए मर-मिटने वाली ऐसी वीरांगनाओं को कोटि कोटि प्रणाम। जयहिन्द।संबंधित खबरें
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