Aghori Sadhana: अघोरी साधना अथवा अघोर विद्या दुनिया का बहुत बड़ा रहस्य है। प्रयागराज (Prayagraj) में चल रहे महाकुंभ (Maha Kumbh) के मेले में एक से बड़े एक ज्ञानी तथा ध्यानी अघोरी साधु मौजूद हैं। महाकुंभ के मेले में अघोरी साधु-संतों को देखने के बाद अघोरी साधना या अघोर को जानने की उत्सुकता हर किसी के मन में है। यहां हम आपको विस्तार से बता रहे हैं कि क्या होती है अघोरी साधना ? साथ ही अघोरी साधना साधु-संतों की पूरी जीवनशैली को भी हम आपको आसान शब्दों में बता रहे हैं। यदि आप अघोरी साधना को नहीं जानते हैं तो यह समाचार (लेख) पढक़र आप अघोरी साधना को जान जाएंगे।
क्या है अघोरी अथवा अघोर साधना
अघोरी अथवा अघोर साधना के विषय में अघोर अखाड़ा के महासचिव स्वामी पृथ्वीनाथ ने बहुमूल्य जानकारी दी है। उन्होंने बताया कि अघोर एक परंपरा है। अघोर एक तंत्र क्रिया है। अघोर एक साधना और विचार है। अघोर का ज्ञान आपको किताबों में नहीं मिल सकता है। इसका अनुभव करने के लिए आपको अघोरी बनना पड़ेगा। तीन साल तक आश्रम में रहकर सेवा करनी होगी, तब गुरु महाराज तय करेंगे कि दीक्षा मिलेगी या नहीं। इसके बाद अलग- अलग साधनाएं होती हैं। अघोरियों के बारे में बहुत बातें गलत प्रचारित की जा रही हैं। कुछ लोग यूट्यूब और सोशल मीडिया पर अलग-अलग टिप्पणी करते हैं। कुछ फर्जी अघोरी भी सोशल मीडिया पर अफवाह फैला रहे हैं। यह सही बात है कि अघोर पंथ में बलि प्रथा रही है। तपस्या के दौरान देवता को खून चढ़ाया जाता था। लेकिन वह एक बूंद भी हो सकता है। मेरी जानकारी में तो कभी बलि नहीं दी गई।
शमशान घाट में रहकर साधना करते हैं अघोरी साधु
अघोर अखाड़ा (Aghor Akhada) के महासचिव पृथ्वीनाथ स्वयं अघोरी साधना के साधक हैं। वें बताते है। कि जो अघोरी बनता है, वह अपने गुरु की देखरेख में श्मशान साधना करता है। यह साधना तीन तरह की होती है। पहली श्मशान साधना, दूसरी शिव साधना और तीसरी शव साधना। शव साधना में मुर्दा भी इच्छाएं पूरी करता है। इस साधना का मूल शिव की छाती पर पार्वती द्वारा रखा हुआ पांव है। ऐसी साधनाओं में मुर्दे को प्रसाद के रूप में मांस और मदिरा चढ़ाया जाता है। ऐसी साधनाएं कुछ ही जगहों पर होती है और वहां पर आम लोगों का प्रवेश वर्जित होता है। देखिए, अघोरियों के बारे में अनेक भ्रांतियां हैं। अघोरियों को अपने गुरु के आदेश और उनके बताए मार्ग पर साधना करनी पड़ती है। यह धारणा प्रचलित है कि कुछ अघोरी श्मशान साधना के दौरान जलते हुए शव का मांस खाते हैं। यह तांत्रिक प्रक्रिया हो सकती है, जो उनके दर्शन और साधना पद्धति से जुड़ी है। इसका उद्देश्य सांसारिक मोह, घृणा और भयों को समाप्त करना है। अघोरी मानते हैं कि सब कुछ शिव है और शरीर, चाहे वह जीवित हो या मृत, मात्र पंचतत्वों का मिश्रण है। अघोरी अपनी साधना से यह सिद्ध करना चाहते हैं कि मृत्यु और जीवन में कोई भेद नहीं है।
भगवान शिव की कृपा प्राप्त करती है अघोरी साना
अघोरी साधना की चर्चा करते हुए पृथ्वीनाथ आगे बताते हैं कि अघोरी का मतलब सरल, सहज और सभी भेदभावों से मुक्त होने का प्रतीक है। हमारी साधना का उद्देश्य किसी को नुकसान पहुंचाना नहीं, बल्कि अपनी आत्मा को शुद्ध करना और भगवान शिव की कृपा प्राप्त करना है। हम मानते हैं कि सब कुछ शिव का ही रूप है, चाहे वह शुभ हो या अशुभ। अखोरी किसी जाति या धर्म में नहीं बंधे होते हैं। कई मुसलमान भी अघोरी बन गए हैं। संन्यास लेने के बाद हमारी पहचान केवल अघोरी की ही होती है। अघोरी भस्म (राख) को अपने शरीर पर मलते हैं। यह शुद्धता और मृत्यु को स्वीकार करने का प्रतीक है। हमारी जीवनशैली समाज की सामान्य धारणाओं और प्रथाओं से बहुत अलग होती है। हमारा उद्देश्य किसी को डराना नहीं, बल्कि सांसारिक बंधनों और मृत्यु के भय से दूर जाना है। अगर हमारी साधना को समझा जाए तो और ज्यादा सम्मान पैदा होगा।
मानव खोपड़ी यानि कि खप्पर धारण करते हैं अघोरी साधना के साधक
अघोरी साधक पृथ्वीनाथ (Aghori Sadhak Prithvinath) बताते हैं कि साधना के दौरान अघोरी साधक मानव खोपड़ी अपने साथ रखते हैं। अघोर साधना में मानव खोपड़ी को खप्पर कहा जाता है। सभी अघोरियों के पास खप्पर नहीं होती है। कुछ के पास होती है। वैसे भी खप्पर कभी नष्ट नहीं होती है और यह दूसरे के पास भी चली जाती है। सब खप्पर काम की भी नहीं होती हैं। कई खप्पर मिलने के बाद उनमें से एक-दो ही काम की होती हैं। कई पुरानी खप्पर हैं। यह शमशान से ही आती हैं। हमारे पंथ में भी अंतिम संस्कार होता है। जो बड़े गुरु होते हैं, उन्हें समाधि दी जाती है और हमेशा उनकी पूजा की जाती है। अन्य लोगों का अंतिम संस्कार ही किया जाता है।
गुरू की सेवा के बिना नहीं हो सकती अघोरी साधना
आपको बता दें कि किसी भी व्यक्ति को अघोरी बनने के लिए गुरु की तलाश करनी होती है और उसके प्रति समर्पित होना पड़ता है। गुरु की बताई हर बात पत्थर की लकीर होती है। इसके बाद गुरु शिष्य को बीज मंत्र देता है, जिसकी साधना शिष्य के लिए आवश्यक होती है। इस प्रक्रिया को हिरित दीक्षा कहा जाता है। हिरित दीक्षा के बाद गुरु शिष्य को शिरित दीक्षा देते हैं।
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इस दीक्षा में गुरु शिष्य के हाथ, गले और कमर पर एक काला धागा बांधते हैं और शिष्य को जल का आचमन दिलाकर कुछ जरूरी नियमों का वचन लेते हैं। इनमें सफल होने पर ही आगे की प्रक्रिया होती है। आखिरी में रंभत दीक्षा गुरु महाराज देते हैं। इस दीक्षा के शुरू होने से पहले शिष्य को अपने जीवन और मृत्यु का पूरा अधिकार गुरु को देना पड़ता है। अगर रंभत दीक्षा देते समय गुरु शिष्य से प्राण भी मांग ले तो शिष्य को देने होते हैं। Aghori Sadhana :
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