Friday, 22 November 2024

धरती के स्वर्ग में मरने वाली है स्वर्ग की सबसे बड़ी निशानी

Dal Lake : भारत के श्रीनगर को धरती का स्वर्ग कहा जाता है। धरती के इसी स्वर्ग में मौजूद है…

धरती के स्वर्ग में मरने वाली है स्वर्ग की सबसे बड़ी निशानी

Dal Lake : भारत के श्रीनगर को धरती का स्वर्ग कहा जाता है। धरती के इसी स्वर्ग में मौजूद है भारत की सबसे सुंदर डल झील। डल झील श्रीनगर ही नहीं बल्कि भारत के हर पर्यटक के लिए आकर्षण का केन्द्र रही है। दु:खद समाचार यह है कि धरती के स्वर्ग यानि की श्रीनगर की डल झील मरने के कगार पर पहुंच गयी है। डल झील को लेकर हाल ही में एक बड़ी रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। डल झील पर केन्द्रित यह रिपोर्ट बताती है कि डल झील दर्द का दरिया बनने वाली है।

डल झील का दर्द आया सामने

ताजा रिपोर्ट के अनुसार डल झील खतरे में है। दरअसल हाल में राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने कश्मीर में डल झील की ‘बिगड़ती स्थिति’ पर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और जम्मू-कश्मीर प्रदूषण नियंत्रण समिति सहित कई प्राधिकारों से जवाब मांगा है। एनजीटी ने कहा कि एक समय लोग इस झील का पानी पीते थे, लेकिन आज इसका उपयोग मुंह धोने के लिए भी नहीं कर सकते। इसरो द्वारा खींचे गए सैटेलाइट चित्रों के सहयोग से अमेरिकी संस्था ‘अर्थ ऑब्जर्वेटरी इमेज’ भी कह चुकी है कि वर्ष 1980 से 2018 के बीच श्रीनगर का ‘अस्तित्व’ कही जाने वाली डल झील का आकार 25 फीसदी घट गया। अदालती दखल, सरकारी कोशिशों व स्थानीय दबाव के बावजूद डल झील मजबूर है मौन अतिक्रमण सहने और घरेलू गंदगी को खपाने के लिए। श्रीनगर की कुल आय का 16 प्रतिशत इसी झील से आता है। यहां के 46 फीसदी लोगों के घर का चूल्हो इसी झील से हुई कमाई से जलता है। तैरते हुए बगीचे झील के मुख्य आकर्षण हैं। कमल और कुमुदनी के फूल नयनाभिराम दृश्य प्रस्तुत करते हैं। यह झील लाखों जलचरों, परिंदों का भी घरोंदा हुआ करती थी। अपने जीवन की थकान, हताशा और एकाकीपन को दूर करने के लिए देश-दुनिया के लाखों पर्यटक इसका दीदार करने आते थे। अब यह बदबूदार नाबदान व शहर के लिए मौत के जीवाणु पैदा करने का जरिया बन गई है।

कागजों में है डल झील (Dal Lake )की योजना

डल झील पर आई रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि पिछले महीने ही जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका के दबाव में सरकार ने एक हजार पन्ने के दस्तावेज में एक योजना पेश की। बीते अनुभव बताते हैं कि अदालत में पेश योजना जब महकमों के पास साकार होने आती है, तो कागजों के अलावा कहीं सुधार नहीं होता। एक अनुमान के अनुसार, अब तक इस झील को बचाने के नाम पर एक हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। असल में इसे बचाने की ज्यादातर योजनाएं दिखावटी होती हैं, जैसे एलईडी लाइट लगाना, रैलिंग लगाना, फुटपाथ को नया बनाना आदि। इन सबसे इस अनूठी जलनिधि के नैसर्गिक स्वरूप को बनाए रखने की दिशा में कोई लाभ नहीं होता, बल्कि ऐसे निर्माणों का मलबा झील को नुकसान ही पहुंचाता है। वर्ष 1976 में सरकार ने पहली बार झील की स्थिति पर विचार किया। 1978 में झील व उसके आसपास किसी भी तरह के निर्माण पर रोक लगाई गई, लेकिन बीते 45 वर्षों में इस पर कभी अमल होता नहीं दिखा है। आज एक लाख से ज्यादा झोपड़ी झील क्षेत्र में बसी हैं। जब भी कोर्ट ने अतिक्रमण हटाने, हाउस बोट को दूसरी जगह ले जाने के आदेश दिए, तो सियासी दबाव में उन पर अमल नहीं हुआ। जब तक स्थानीय लोगों की भागीदारी और सहमति नहीं होगी, डल झील को दर्द का दरिया बनने से नहीं रोका जा सकता। झील का सबसे बड़ा दुश्मन अतिक्रमण है। आसपास की बस्तियों और शिकारों से निकलने वाला ष्ट्व एक हजार मल-मूत्र सीधे इसमें गिरने से इसके पानी की गुणवत्ता खराब हुई है। लोग चोरी-छिपे इसमें कूड़ा भी फेंकते हैं। तीन तरफ पहाडय़िों से घिरी डल झील में चार जलाशयों का पानी आकर मिलता है। झील में सफाई होती भी है, तो इन चार जलाशयों का प्रदूषित पानी इसे और गंदा कर देता है। Dal Lake के बड़े हिस्से में वनस्पतियां उग आई हैं, जिससे सूर्य की किरणें गहराई तक नहीं जा पातीं। इससे पानी में ऑक्सीजन की कमी होती और बदबू आने लगती है। ज्यादा कमाई के लोभ में होती निरंकुश खेती के चलते रासायनिक खाद व कीटनाशकों ने पानी को जहरीला बना दिया है।

कभी 75 वर्ग किलोमीटर में फैली हुई थी Dal Lake

सरकारी रिकॉर्ड गवाह है कि सन 1200 में स झील का फैलाव 75 वर्ग किलोमीटर में था। लेकिन अब इसमें जल का फैलाव मुश्किल से आठ वर्ग किलोमीटर में सिमट गया है। झील गाद से पटी हुई है। पानी का रंग लाल-गंदला है और काई की परतें हैं। इसका पानी मनुष्यों के इस्तेमाल के लिए खतरनाक घोषित हो चुका है। बढ़ते वैश्विक तापमान से भी डल झील अछूती नहीं है। डल का सिकुडऩा ऐसे ही जारी रहा, तो इसका अस्तित्व बमुश्किल 350 साल बचा है। यह बात रुडक़ी यूनिवर्सिटी के वैकल्पिक जल-ऊर्जा केंद्र द्वारा तैयार प्रोजेक्ट रिपोर्ट में कही गई है। श्रीनगर शहर के पास न तो क्षमताओं के अनुरूप सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट है, न ही शहर के बड़े होटल इस बारे में कोई कदम उठाते हैं। इसका खामियाजा वहीं के लोग भुगत रहे हैं। झील के पास की बस्तियों में शायद ही ऐसा कोई घर हो, जहां गेस्ट्रोइंटाटीस, पेचिस, पीलिया जैसे रोगों से पीडि़त न हो।

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